देश में इच्छा मृत्यु को लेकर चल रही बहस के दौरान खबर आई है कि केंद्र सरकार इस संबंध में तैयार किए जा रहे कानून के मसौदे में एक महत्वपूर्ण प्रावधान जोड़ रही है। इस प्रावधान के मुताबिक अब पैसिव यूथनेशिया (निष्क्रिय इच्छामृत्यु) के मामले में गलत जानकारी दिए जाने पर दस साल की सजा और एक करोड़ रुपए के जुर्माने का प्रावधान किया जा रहा है।
निष्क्रिय इच्छामृत्यु के मामलों में फैसला लेने के लिए अब अस्पतालों को अपने यहां मंजूरी पैनल बनाने होंगे और उनकी राय के बाद ही किसी को परोक्ष रूप से इच्छामृत्यु की इजाजत दी जा सकेगी। ऐसे पैनल के सामने किसी भी प्रकार की गलत जानकारी देने की दशा में कड़ी सजा का प्रावधान किया जा रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा तैयार किए जा रहे बिल के संशोधित मसौदे में ऐसी मौत को ‘प्राकृतिक मृत्यु’ के रूप में स्वीकारने का भी प्रावधान है।
नए प्रावधानों के अनुसार ‘लिविंग विल’ यानी जिंदा वसीयत पर फैसला करने का अधिकार भी इसी पैनल के डॉक्टरों का होगा। जिंदा वसीयत ऐसा लिखित दस्तावेज होता है जिसमें भविष्य के इलाज की दशा एवं दिशा तय करने के लिए मरीज की इच्छा शामिल की जाती है। सभी सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों के लिए अपने यहां इस तरह की कमेटी बनाना अनिवार्य होगा।
स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों ने यह बात स्पष्ट की है कि नए मसौदे में एक्टिव यूथनेशिया यानी सक्रिय इच्छामृत्यु को कतई बढ़ावा नहीं दिया गया है। पैसिव यूथनेशिया में मरीज को यह फैसला करने का अधिकार होता है कि असाध्य रोगों की स्थिति में वह अपना इलाज आगे जारी रखने या जीवन रक्षक उपकरणों के आधार पर जिंदा रहने से इनकार कर दे। जबकि एक्टिव यूथनेशिया का अर्थ है मौत की प्रक्रिया को इंजेक्शन या दवाओं के जरिए गति देना। दोनों में मोटा अंतर यह है कि एक्टिव में मरीज की मृत्यु के लिए कुछ किया जाता है जबकि पैसिव यूथेनेशिया में मरीज की जान बचाने के लिए कुछ नहीं किया जाता।
बिल में प्रावधान है कि यदि पैसिव यूथनेसिया की मांग करने वाला मरीज इस तरह का निर्णय लेने में सक्षम नहीं है तो उसकी ओर से ऐसा फैसला करने वाले परिजनों का निर्णय भी सर्वानुमति से होना चाहिए। निष्क्रिय इच्छामृत्यु का विकल्प लेने के बाद भी मरीज की समुचित तीमारदारी सुनिश्चित करनी होगी। नए बिल में इस तरह का विकल्प लेने वाले मरीज के साथ साथ उसका इलाज करने वाले चिकित्सा दल को समुचित कानूनी सुरक्षा प्रदान करने का प्रावधान भी है।
दरअसल देश में इच्छामृत्यु को लेकर बहस कई सालों से चल रही है। मुंबई में यौन हिंसा की शिकार हुई नर्स अरुणा शानबाग के 42 साल तक कोमा में रहने के कारण उसकी तीमारदारी कर रहे लोगों ने वर्ष 2011 में कोर्ट में इच्छा मृत्यु के लिए याचिका डाली थी। कोर्ट ने अरुणा को इच्छामृत्यु देने की याचिक तो खारिज कर दी थी, लेकिन निष्क्रिय इच्छामृत्यु की मंजूरी दे दी थी। 2014 में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने 2011 में इच्छा मृत्यु के मामले में दिए गए फैसले को ‘असंगत’ करार देते हुए इसे पांच जजों की संवैधानिक पीठ को सौंप दिया था। तब से यह मामला संवैधानिक पीठ के पास लंबित है।
इस बीच एनजीओ कॉमन कॉज ने इस मसले पर दाखिल याचिका के जरिए यह मांग भी उठाई थी कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों को’लिविंग विल’ बनाने का हक मिलना चाहिये। जबकि केंद्र सरकार का कहना था कि विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथनेशिया तो ठीक है,लेकिन ‘लिविंग विल’ उचित नहीं क्योंकि यह एक तरह से आत्महत्या जैसा है।
सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष सरकार ने पिछले दिनों अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पैसिव यूथनेशिया को लेकर विधेयक का मसौदा तैयार कर लिया गया है। दरअसल सरकार ने इस बिल का मसौदा गत वर्ष मई माह में सार्वजनिक करते हुए लोगों की राय मांगी थी और उस पर प्रतिक्रिया देने वाले 70 फीसदी लोगों ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु (पैसिव यूथनेशिया) का समर्थन किया था।
भारत जैसे देश में इच्छामृत्यु का मामला बहुत संवेदनशील है। यहां के सामाजिक और आर्थिक हालात इस विषय को और अधिक जटिल बनाते हैं। यह बात ठीक है कि कई बार परिजन अपने प्रियजन की असाध्य बीमारी के मामले में उसे बस मरता हुआ या असहनीय कष्ट पाता हुआ असहाय से देखते रहते हैं। इलाज महंगा होने के कारण कई बार उस पर होने वाला खर्च परिवार की कई पीढि़यों को कर्ज में डुबो देता है।
उधर मरीज के लिहाज से देखें तो वह भी लाचार सा बिस्तर पर पड़ा हुआ अपने दिन गिनता और मौत के आने का इंतजार करता रहता है। लेकिन मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं के धागे इतने गहरे जुड़े होते हैं कि ऐसी परिस्थति में भी परिजन उसके बच जाने की उम्मीद पालते हुए उसे बचा लेने की भरसक कोशिश करते हैं।
फिर भी इच्छामृत्यु का मामला दुनिया भर में हमेशा से ही विवादस्पद रहा है। एक तरफ अमेरिका, स्विटजरलैंड, नीदरलैंड्स, बेल्जियम आदि देशों में किसी न किसी रूप में इसे मान्यता है, वहीं ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस और इटली जैसे प्रमुख यूरोपीय देशों के साथ साथ दुनिया के अधिकांश देशों में इसे गैरकानूनी ही माना गया है।
ऐसे मामलों में सबसे बड़ा खतरा सक्रिय या निष्क्रिय इच्छामृत्यु का विकल्प चुने जाने को लेकर है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि ऐसे प्रावधानों का जमकर दुरुपयोग भी हो सकता है। इसलिए ऐसी कोई भी व्यवस्था करते समय यह देखना जरूरी है कि उसका दुरुपयोग रोकने के क्या उपाय किए गए हैं। इस लिहाज से निष्क्रिय इच्छामृत्यु को मंजूरी देने वाले पैनल के सामने गलत जानकारी देने पर एक करोड़ का जुर्माना और दस साल की सजा का प्रावधान स्वागत योग्य है।