ईवीएम को गाली देकर चुनाव जीत गई कांग्रेस!

मध्‍यप्रदेश में बांधवगढ़ और अटेर में हुए उपचुनावों के जो नतीजे आए हैं, उन्‍होंने भाजपा और कांग्रेस दोनों को समान रूप से खुश और दुखी होने का अवसर उपलब्‍ध कराया है। बांधवगढ़ में भाजपा जहां 25 हजार से अधिक मतों से हुई जीत पर अपनी पीठ ठोक सकती है, वहीं कांग्रेस के लिए यह संतोष का विषय है कि सत्‍तारूढ़ दल की पूरी ताकत लग जाने और अंतिम समय तक चली कांटे की टक्‍कर के बावजूद वह अटेर का चुनावी मुकाबला 782 मतों से जीतने में सफल रही।

उपचुनाव कहीं भी हों, आमतौर पर वे बहुत ही ठंडे तरीके से संपन्‍न होते रहे हैं। क्‍योंकि उनमें कोई भी हारे या जीते, किसी सरकार या दल को उस हारजीत से बहुत ज्‍यादा फर्क नहीं पड़ता। लेकिन भिंड जिले के अटेर उपचुनाव ने इस बार प्रदेश ही नहीं बल्कि देश की राजनीति में हलचल पैदा कर दी थी। और यह हलचल भी राजनीतिक कारणों से कम और चुनाव प्रक्रिया से ज्‍यादा जुड़ी थी।

उत्‍तरप्रदेश के चुनाव परिणामों के बाद से ही गैर भाजपा दलों ने इलेक्‍ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) को निशाना बना रखा है। बसपा और कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी तक, सभी ईवीएम पर संदेह जताते हुए उसके जरिए होने वाले मतदान की निष्‍पक्षता पर सवाल उठा रहे हैं। गैर भाजपा दलों की तो मांग है कि भविष्‍य में सारे चुनाव ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर यानी मतपत्रों के जरिए कराए जाएं।

विपक्ष की इस मांग को उस समय भारी मजबूती मिल गई थी जब अटेर में मतदान से पहले ईवीएम और वीवीपीएटी मशीनों के ट्रायल के दौरान बटन दबाने पर भाजपा के चुनाव चिह्न वाली पर्ची बाहर निकली थी। इस पर काफी बवाल मचा और चुनाव आयोग ने मामले को गंभीरता से लेते हुए कलेक्‍टर और एसपी सहित, चुनाव प्रक्रिया से जुड़े करीब दो दर्जन अधिकारियों को वहां से हटा दिया।

अब जब प्रदेश में हुए उपचुनावों के नतीजे दोनों दलों ने आधे-आधे बांट लिए हैं तो उम्‍मीद की जानी चाहिए कि ईवीएम को लेकर जो बातें उठी थीं उन पर भी विराम लगेगा। क्‍योंकि उन्‍हीं ईवीएम मशीनों ने यदि बांधवगढ़ में भाजपा को जिताया तो अटेर में कांग्रेस को। यह भी ध्‍यान रखना होगा कि कांग्रेस की शिकायत के बाद चुनाव आयोग ने मतदान से जुड़ी सरकारी मशीनरी को जरूर बदला, लेकिन उसने ईवीएम मशीनें नहीं बदली थीं। यानी जिन मशीनों पर शंका जताई गई थी उन्‍हीं ने कांग्रेस के पक्ष में फैसला दिया है।

उम्‍मीद की जानी चाहिए कि मध्‍यप्रदेश सहित देश भर में हुए उपचुनावों के मिलेजुले नतीजों के बाद ईवीएम को खारिज करने का जो राजनीतिक उबाल आया है वह ठंडा पड़ेगा। राजनीतिक दल मशीन के बजाय अपनी चुनावी रणनीति की कमियों और कमजोर मैदानी पकड़ की ओर ज्‍यादा ध्‍यान देंगे। दरअसल इन दिनों संवैधानिक संस्‍थाओं को संदिग्‍ध बनाने या कामकाज को लेकर उन पर आरोप प्रत्‍यारोप का जो सिलसिला चल रहा है वह देश के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए ठीक नहीं है। याद रखा जाना चाहिए कि चुनावी हारजीत से पैदा हुआ परिदृश्‍य तो पांच साल में फिर भी बदला जा सकता है, लेकिन चुनाव आयोग जैसी संस्‍थाओं की साख यदि खत्‍म की गई तो वह फिर कब लौटेगी, कोई नहीं जानता।

अटेर में चुनाव से पहले कांग्रेस ने ईवीएम पर उंगली उठाकर चुनाव प्रक्रिया को संदेह में खड़ा करने की कोशिश की थी तो वहीं गुरुवार को चल रही मतगणना के दौरान मध्‍यप्रदेश भाजपा के अध्‍यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने एक बयान देकर चुनाव आयोग पर ही उंगली उठा दी। एक स्‍थानीय टीवी चैनल से चौहान ने कहा कि आयोग ने भाजपा के साथ अन्‍याय किया। उसने कांग्रेस की हर शिकायत को इंटरटेन किया और मतदान से चंद घंटों पहले तक आधी रात में अफसर बदले गए।

इस तरह के बयान चुनाव आयोग जैसी संस्‍थाओं की छवि तो खराब करते ही हैं साथ ही खुद राजनीतिक दलों की साख पर भी इनसे आंच आती है। यदि कोई पूछ ले कि चलिए मान लिया, चुनाव आयोग ने पक्षपातपूर्ण तरीके से कार्रवाई करते हुए जिले के अफसरों को बदल दिया, लेकिन भाजपा फिर यह बताए कि क्‍या उसने उन अफसरों के जरिए ही चुनाव जीतने का प्‍लान बनाया था?

जब भिंड जिले के अफसरों को हटाया गया था तो मैंने इसी कॉलम में सवाल उठाया था कि कलेक्‍टर और एसपी को हटवा कर क्‍या कांग्रेस चुनाव जीत जाएगी? दरसअल चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी के साथ से ज्‍यादा जरूरी है कि जनता या मतदाता आपके साथ हों। अफसरों की कारगुजारियों पर निगाह रखी जानी चाहिए लेकिन उससे भी ज्‍यादा निगाह अपने वोटरों पर रखना जरूरी है। मान भी लें कि अफसर या सरकारी कर्मचारी गड़बड़ी करवा सकते हैं, लेकिन उसका प्रतिशत, आज की सख्‍त ‘मीडिया निगरानी’ वाले जमाने में,इतना नहीं हो सकता कि वे हजारों वोटों को इधर से उधर कर दें।

वोटिंग मशीन या चुनावी मशीनरी पर आरोप लगा देने से, हार के कारण चेहरे पर लगा दाग छुपाया नहीं जा सकता। न ही किसी हार को जीत में तब्‍दील किया जा सकता है। जीत तो उस तैयारी और मेहनत से हासिल होती है जो मतदाताओं के मन में किसी भी राजनीतिक दल या प्रत्‍याशी के लिए जगह बनाती है।

 

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