सबसे पहले तो मैं आपको करीब साल भर पहले के कालखंड में ले जाना चाहूंगा जब मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हुए थे और तीनों जगह कांग्रेस की सरकार बनने की स्थितियां बनी थीं। छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस ने सीधे सीधे स्पष्ट बहुमत पा लिया था लेकिन मध्यप्रदेश और राजस्थान में थोड़ा सा पेंच फंसा हुआ था। यह पेंच दो तरह का था, पहला कांग्रेस के खुद के सरकार बनाने लायक बहुमत जुटाने का और दूसरा सरकार बन जाने की स्थिति में मुख्यमंत्री कौन हो इस सवाल को सुलझाने का।
उस समय तीनों राज्यों में सरकार के गठन और मुख्यमंत्री के चयन को लेकर तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कई दौर की बैठकें की थीं। मध्यप्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दावेदारी जता रहे थे, तो राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच मामला उलझा था। छत्तीसगढ़ में साफ साफ बहुमत पा लेने के बावजूद यह तय नहीं हो पा रहा था कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भूपेश बघेल बैठेंगे या फिर टीएस सिंहदेव।
आपको शायद यह भी याद होगा कि कांग्रेस की सरकार बनने में हो रही देरी और मुख्यमंत्री पद को लेकर चल रही खींचतान और आपसी उठापटक के हम मीडियावालों ने बहुत मजे लिए थे। जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे थे, मीडिया ने कांग्रेस की प्रबंधन क्षमता, उसके अनुशासन और इन सबसे बढ़कर राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे। कहा गया था कि जो पार्टी सरकार का मुखिया तय करने में इतना टाइम ले रही है वह सरकार कैसे चलाएगी।
खैर वो सब अब अतीत की बात हो चुकी है। तीनों राज्यों में न सिर्फ कांग्रेस की सरकारें बनीं बल्कि उन्हें काम करते हुए एक साल पूरा होने को भी आ रहा है। इस अवधि में कांग्रेस मुख्यालय में और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर जो भी उठापटक हुई हो, लेकिन मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस ने अपने स्तर पर कोशिशें करते हुए सरकार के टिके रहने की संभावनाओं को मजबूत किया है और विधानसभा में साबित कर सकने लायक बहुमत का जुगाड़ भी कर लिया है।
लेकिन आज हैरानी इस बात पर हो रही है कि शिवसेना के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ने वाली भाजपा, अपने गठबंधन को सरकार बनाने लायक बहुमत मिल जाने के बाद भी, महाराष्ट्र में सरकार का गठन नहीं कर पा रही है। जिस भाजपा नेतृत्व की प्रबंधन क्षमता के डंके बजा करते थे वो भाजपा प्रबंधन अपने गठबंधन के सहयोगी दल को ही नहीं साध पा रहा है। और साल भर पहले, अनिर्णय की स्थिति को लेकर राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता की खाल उधेड़ देने वाला मीडिया, महाराष्ट्र मामले में अमित शाह और नरेंद्र मोदी की चुप्पी पर मुंह सिलकर बैठा है।
कोई नहीं पूछ रहा कि आखिर महाराष्ट्र जैसे राजनीतिक और आर्थिक महत्व वाले राज्य में चुनाव हो जाने के दस दिन बाद भी इस अनिर्णय और असमंजसपूर्ण स्थिति की वजह क्या है? सरकार का गठन न हो पाने की इस गुत्थी को सुलझाने के लिए भाजपा के शीर्ष नेता क्या कर रहे हैं? कहां हैं वे प्रबंधन वीर जो हरियाणा में तो बहुमत न आ पाने के बाद भी, अपने विरोध में चुनाव लड़ने वालों को साथ लेकर, सरकार बना लेते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में साथ रहकर सरकार चलाने और चुनाव लड़ने वाले दल के साथ ही तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं। अब कोई यह सवाल क्यों नहीं पूछ रहा कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को क्या लकवा मार गया है?
आखिर क्या वजह हो सकती है भाजपा नेतृत्व की इस चुप्पी की? आखिर क्या कारण है अपनी ही पुरानी सहयोगी शिवसेना को इस तरह खिजाने का? क्या मामला उतना ही आसान है जितना दिख रहा है या फिर इसकी निगाहें और निशाने दोनों अलग अलग हैं। क्या सचमुच हम मान लें कि भाजपा को महाराष्ट्र की कोई चिंता नहीं है और वह अपनी शर्तो पर सरकार का गठन न होने पर विपक्ष में भी बैठने को राजी है?
संभवत: ऐसा कतई नहीं है। न तो भाजपा का नेतृत्व महाराष्ट्र के घटनाक्रम को लेकर निर्लिप्त है और न ही भाजपा ने महाराष्ट्र में शिवसेना के सामने सरेंडर करते हुए विपक्ष में बैठने तक का भी मन बना लिया है। दरअसल भाजपा इस खेल को जहां बहुत चतुराई और कूटनीति से खेल रही है वहीं शिवसेना हमेशा की तरह बचकाना व्यवहार करते हुए राज्य की राजनीति में खुद को और कमजोर बना रही है।
महाराष्ट्र के ताजा घटनाक्रम में मुद्दा शिवसेना है ही नहीं। संभवत: भाजपा इस मामले को जानबूझकर इसलिए लंबा खींच रही है कि गलती से ही सही यदि शिवसेना को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और एनसीपी ने समर्थन दे दिया तो, उसके लिए यह बहुत बड़ी राजनीतिक जीत होगी। आज सीटों का जो गणित है उसमें शिवसेना को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और एनसीपी दोनों का सहयोग चाहिए होगा और जैसे ही ऐसा हुआ कांग्रेस अपने आप एक ऐसी पार्टी के साथ खड़ी नजर आएगी जिसकी राजनीतिक शैली और विचारधारा दोनों का वह घोर विरोध करती आई है।
जरा कल्पना कीजिए, क्या कांग्रेस उस पार्टी को सरकार बनाने के लिए सहयोग दे सकती है जिसने खुलेआम अयोध्या में बाबरी निर्माण को गिराने की जिम्मेदारी ली हो। क्या कांग्रेस उस पार्टी की ताजपोशी करवा सकती है जो, खुद उसके (कांग्रेस) ही मुताबिक, महात्मा गांधी की हत्या करवाने वाले विचार के जनक सावरकर को अपना आदर्श मानती हो। और यदि ऐसा हो जाता है तो इससे बढ़कर भाजपा के लिए मनचाहा छींका टूटने वाली बात और क्या हो सकती है।
जिस दिन कांग्रेस ने शिवसेना को सरकार बनाने के लिए समर्थन या सहयोग किया उसी दिन कांग्रेस का रहा सहा वैचारिक आधार और विरोध भी ध्वस्त हो जाएगा। फिर वह किस मुंह से अयोध्या की घटनाओं से लेकर महात्मा गांधी की हत्या के मामले में बोल सकेगी। और शायद यही वजह है कि भाजपा इतनी लंबी ढील के साथ महाराष्ट्र में सरकार के गठन का खेल खेल रही है। उसे पता है स्थितियां जो भी बनें, उसके दोनों हाथों में लड्डू रहेंगे। अव्वल तो शिवसेना को झक मारकर भाजपा के पास ही आना होगा और यदि ऐसा न हुआ तो कांग्रेस को अपनी पूरी राजनीतिक पुण्याई दांव पर लगाकर शिवसेना के साथ जाने का फैसला करना होगा। क्या कांग्रेस यह खतरा मोल लेगी? मजे की बात यह भी कि, ऐसा होने पर नुकसान सिर्फ कांग्रेस को ही नहीं शिवसेना को भी होगा, क्योंकि दोनों की विचारधाराएं दो अलग-अलग ध्रुवों पर टिकी हैं।
इसके बाद भी यदि बात नहीं बनती तो, राष्ट्रपति शासन का तुरुप का पत्ता तो भाजपा के पास है ही। छह माह में राजनीति की नदी में कितना पानी बह जाता है यह कोई दबी छिपी बात है क्या?