खबर न सिर्फ चौंका देने वाली है बल्कि बहुत बड़ा सबक देने वाली भी है। इस खबर का महत्व उस समय और भी बढ़ जाता है जब हम मशीन के बजाय मनुष्य को महत्व देने वाले महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती मना रहे हैं। मशीन और मनुष्य का द्वंद्व कोई नया नहीं है, लेकिन जब से इसने शारीरिक श्रम से आगे बढ़कर मनुष्य के दिमाग को भी अपने हिसाब से संचालित करना शुरू किया है, यह द्वंद्व और घातक हो गया है।
खबर आई है कि गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के चचेरे भाई की इसलिए मौत हो गई क्योंकि गूगल मैप के कारण एंबुलेंस रास्ता भटक गई और करीब पौन घंटा देरी से मरीज के घर पर पहुंच सकी। दरअसल राजकोट के ईश्वरिया इलाके में रहने वाले मुख्यमंत्री के परिजन अनिल संघवी को सांस लेने में दिक्कत हुई तो 108 एंबुलेंस को कॉल किया गया। एंबुलेंस ईश्वरिया बस्ती में पहुंचने के बजाय ईश्वरिया गांव पहुंच गई।
गलत जगह पहुंच जाने का पता चलने के बाद एंबुलेंस जब तक सही जगह पहुंची तब तक मरीज की सांसें उखड़ चुकी थीं। आरंभिक पड़ताल में 108 एंबुलेंस सेवा के क्षेत्रीय समन्वयक के हवाले से इस बात की जानकारी मिली है कि एंबुलेंस को संघवी के घर तक पहुंचने में इतना समय इसलिए लगा क्योंकि गलती से वह उसी नाम वाली दूसरी जगह पर पहुंच गई थी। बताया जा रहा है कि ऐसा ‘गूगल मैप’ के जरिये गंतव्य ढूंढने के कारण हुआ।
गुजरात प्रशासन ने मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं। राजकोट के जिला कलेक्टर रेम्या मोहन ने बताया कि स्वास्थ्य विभाग मामले का पता लगा रहा है। अंतिम जांच रिपोर्ट के बाद ही कहा जा सकेगा कि आखिर एंबुलेंस को सही जगह तक पहुंचने में इतनी देर क्यों लगी। इसके लिए सचमुच गूगल मैप के भरोसे जगह को ढूंढना असली कारण है या कोई और बात है यह तो जांच के बाद ही सामने आ सकेगा।
सरकारी जांच का नतीजा जो भी हो, लेकिन इस घटना ने एक बार फिर मशीनों पर हमारी निर्भरता पर सवाल खड़े किए हैं। गूगल मैप इन दिनों हमारा असली ‘मार्गदर्शक’ बना हुआ है। खासतौर से युवा पीढ़ी तो गूगल मैप के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाती। वे कहीं भी पहुंचने के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल करने के बजाय सीधे गूगल मैप पर लोकेशन डालते हैं और जैसे जैसे गूगल रास्ता बताता है वे गाड़ी चलाते जाते हैं।
इसे दूसरे संदर्भ के साथ देखें तो जिंदगी में अब हम अपना रास्ता भी खुद ढूंढने या खुद अपनी मंजिल तलाशने के लायक भी नहीं रहे हैं। गूगल हमें जहां ले जाता है हम वहां चले जाते हैं, फिर वह चाहे जहां ले जाए, चाहे जैसे भी ले जाए। बारीकी से देखें तो गूगल पर हमारी यह निर्भरता हमें अपने आसपास के समाज से ही नहीं, भौगोलिक संरचनाओं और परिस्थितियों से भी काट रही है। एक समय था जब हमें रास्ते याद हुआ करते थे, उन रास्तों पर पड़ने वाले स्थान, मकान, दुकान और रास्ते में अकसर मिलने वाले लोग हमें याद रहते थे। लेकिन अब यह सारा संपर्क गूगल ने हमसे छीन लिया है।
अब हमारा ध्यान रास्ते के नदी, पहाड़, पेड़, पौधों, खेत, खलिहान, गांव, कस्बे, गली मोहल्ले पर नहीं रहता बल्कि गूगल के उस तीर पर रहता है जो मोबाइल पर या गाड़ी में लगे एक छोटे से स्क्रीन पर हमें रास्ता दिखाता हुआ ‘निर्देशित’ करता रहता है कि इतने मीटर बाद आपको दाएं मुड़ना है, इतने मीटर तक सीधे चलना है और फिर इतने मीटर बाद बाएं मुड़ जाना है। और हम बस एक गुलाम की तरह गूगल के निर्देशों का पालन करते हुए चलते जाते हैं।
हो सकता है नई जगह पर गूगल मैप रास्ता ढूंढने में मददगार साबित होता हो, लेकिन इस मशीनी मदद ने लोगों से हमारा जीवंत संपर्क खत्म कर दिया है। मुझे याद है पहले रास्ता भटकने पर या कोई खास जगह पूछने के लिए हम रुक रुक कर रास्ते में चलने वाले लोगों से बात कर लिया करते थे। सुनसान सड़क पर यदि गफलत होती तो गाड़ी रोककर, उतरते और रास्ते के किनारे बैठे किसी किसान या गुमटी वाले से बात करते। इसी दौरान भुट्टा, अमरूद या हरे चने खा लेते, फल, सब्जी या जरूरत का कोई सामान खरीद लेते, गांव समाज की कुछ बातें हो जातीं और सही रास्ता भी पता चल जाता। लेकिन गूगल ने अब यह सब खत्म कर दिया है।
गूगल पर निर्भरता इतनी अधिक है कि दिमाग ने रास्तों को ढूंढना, उन्हें पहचानना और उन्हें याद करना तक छोड़ दिया है। यह ठीक वैसा ही है जैसे केल्क्यूलेटर आने के बाद हमने पहाड़े याद करना छोड़ दिया। अब बच्चे दो और दो का जोड़ भी जबानी याद करने के बजाय मोबाइल एप के जरिये टू प्लस टू करके बताते हैं। अब जिंदगी का जोड़-बाकी, गुणा-भाग वे अपने दम पर, मानवीय संवेदनाओं और अनुभवों से नहीं सीखते, बल्कि मोबाइल एप के भरोसे छोड़ देते हैं।
ऐसा नहीं है कि गूगल के पास कोई दिव्य दृष्टि हो। मेरे साथ तो कई बार ऐसा अनुभव हुआ है जब गूगल के सहारे जा रहे ड्राइवर को मुझे कहना पड़ा कि भाई इसे बंद कर, गाड़ी रोक और उस पान वाले या साइकिल पर जा रहे आदमी से पूछ कि सही रास्ता कौनसा है। वो आदमी जो बताएगा वह गूगल तो क्या गूगल का बाप भी नहीं बता सकता। लेकिन हकीकत यह है कि गूगल हमारी लत बन गया है। ड्राइवर भी गाड़ी रोककर उतरने और लोगों से रास्ता पूछने को अपनी शान में गुस्ताखी समझने लगा है।
मैं मशीनों के इस्तेमाल का विरोधी नहीं हूं, लेकिन मुझे लगता है कि सप्ताह में एक दिन हमें मशीनों के बिना जीने की प्रेक्टिस करते रहना चाहिए। ऐसा इसलिए ताकि हम मनुष्य होने के अहसास को, अपने वजूद को जिंदा रख सकें। वरना एक दिन हम भी इंसान नहीं सिर्फ एक ऐप बनकर रह जाएंगे। किसी प्ले स्टोर से डाउनलोड होंगे और किसी स्क्रीन पर अंगूठों के इशारे पर नाचते मिलेंगे।
और यकीन जानिए तब कोई भी एंबुलेंस जरूरत पड़ने पर हमारे पास नहीं पहुंच पाएगी। हमारी नियति भी राजकोट की उस एंबुलेंस जैसी होगी, जिसे किसी को बचाने के लिए ईश्वर की तरह ईश्वरिया इलाके में आना था, लेकिन उसकी वजह से बंदा ही ईश्वर के पास पहुंच गया।