जिंदगी में खिलाड़ी बने, दर्शक नहीं

आकाश शुक्‍ला

जिंदगी खेल के मैदान की तरह है। खेल के मैदान में या तो लोग खेल देखने आते हैं या खेलने वाले। दोनों में एक अंतर होता है। खेलने वाला अपने साथ जीत का लक्ष्य लेकर खेलने आता है। खेलते समय गिरता भी है, गिरकर उठता भी है, फिर से खेलता है। चोट भी लगती है, गिरने के बाद धूल झाड़ कर, चोट को भूलकर फिर से खेलता है। खेलने वाला ही हारता भी है, परंतु हमेशा नहीं हारता। कभी हारता है कभी जीतता है।

खिलाड़ी संख्या में कम होते हैं। दर्शकों की संख्या बहुत ज्यादा होती है। दर्शक के पास दूसरे का प्रदर्शन देखने के अलावा खुद करने के लिए कुछ नहीं होता। वह दूसरे की जीत पर ताली बजाता है या हार पर दुखी होता है। जीवन में हमेशा खिलाड़ी ही प्रसिद्धि पाता है और उसके पास खुद की उपलब्धियां रहती है।

महेंद्र सिंह धोनी की कप्तानी में 2011 का और कपिल देव की कप्तानी में 1983 का वर्ल्ड कप जीतने वाली टीम और टीम के सभी खिलाड़ी आज भी लोगों को याद है। परंतु इन मैचों को देखने वाले दर्शक किसी को याद नहीं है। दर्शक के पास खेल और खिलाड़ियों की उपलब्धियो की बातें रहती है, खुद की कोई उपलब्धि नहीं रहती।

इस अंतर को अपने जीवन में समझना बहुत आवश्यक है, इसीलिए खिलाड़ी बनें, दर्शक नहीं। दर्शक कभी जीतता नहीं केवल जीत का गवाह बनता है। खिलाड़ी खेलने में अपना जी जान लगा देता है इसीलिए जीतता हमेशा खिलाड़ी ही है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति मेहनत करने से घबराता है, उसके लिए सफलता का सुख नहीं है। सफलता का सुख उसे ही मिलता है जो अपने कार्य और लक्ष्य को पूरा करने के लिए कठोर परिश्रम करने के लिए तैयार रहता है।

चाणक्य के अनुसार सफलता का रास्ता कठोर परिश्रम से होकर जाता है। इसलिए कभी भी परिश्रम से न घबराएं और निरंतर मेहनत करते रहें। चाणक्य के अनुसार कठोर परिश्रम करने वालों को सफलता जरूर मिलती है। जिस आदमी के पास लक्ष्य है, जो आदमी उस लक्ष्य को पाने के लिए मेहनत करेगा, जो आदमी कर्म करेगा बिना सफलता की चिंता करे, जिसको हार और जीत की कोई चिंता नहीं होगी। उसी आदमी में यह संभावना होगी कि वह खिलाड़ी जैसा बन सके सफल हो सके।

दर्शक तो वह होता है जो दूसरे को कर्म करते देखकर और सफलता प्राप्त करता देख कर अपनी इच्छाओं की पूर्ति करता है। क्योंकि उसमें इच्छाशक्ति का अभाव होता है। दर्शक मेहनत भी नहीं करना चाहते और  सफलता का मजा लेना चाहते हैं। समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं और ऐसा न कर पाने की स्थिति में एक सफल आदमी के समर्थन में खड़े हो जाते हैं। जैसे दर्शक जिस खेल मे उनकी रुचि होती है वे उस खेल के अच्छे खिलाड़ी नहीं बन पाते ,जो वह बनना चाहते थे, उस खेल के खिलाड़ी को समर्थन देते है। परंतु खुद मेहनत करके खिलाड़ी बनने की दिशा में कोई प्रयास नहीं करते।

दुर्बल व्यक्ति हमेशा से ही एक सफल व्यक्ति का सान्निध्‍य पाना चाहता है, वह उसका प्रशंसक बन जाता है, उसको फॉलो करता है। क्योंकि वह खुद वैसा नहीं कर पाता तो अप्रत्यक्ष रूप से ही वह अपने मन को संतुष्ट करता है। अपने आप को प्रत्यक्ष खुशियां देना है तो खुद मेहनत करके खिलाड़ी की तरह सफलता की ओर आगे बढ़ें, जिससे कि अन्य लोग आप की उपलब्धियों और सफलता के प्रशंसक और दर्शक बनें।(मध्यमत)
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