गिरीश उपाध्याय
यह तो बहुत दिनों से पता था कि मशहूर रंगकर्मी बंसी कौल की तबियत ठीक नहीं चल रही है। लेकिन कई बार हम सबकुछ जानते हुए भी, कुछ बुरा होने के भाव को, अपने से दूर करने की कोशिश करते रहते हैं। बंसी के मामले में भी ऐसा ही कुछ हो रहा था। सबको पता था कि वह खबर जिसके न आने की दुआ बंसी के चाहने वाले बड़ी शिद्दत से कर रहे हैं, वह खबर कभी भी आ सकती है… और आखिरकार 6 फरवरी की सुबह वह खबर आ ही गई।
बंसी से मेरा बहुत पुराना दोस्ताना रहा है। जब मैं पत्रकारिता के लिए भोपाल आया था तो उस समय मुझे जिस क्षेत्र की रिपोर्टिंग का जिम्मा मिला उसमें सबसे महत्वपूर्ण संस्कृति की बीट थी। 90 के दशक के शुरुआती सालों का वो समय भोपाल में सांस्कृतिक गतिविधियों के चरम का समय था। संगीत, रंगकर्म, साहित्य, शिल्प, चित्रकला चाहे जो क्षेत्र ले लीजिये, भोपाल में इन क्षेत्रों के दिग्गजों का जमघट सा लगा रहता था। उन्हीं दिनों बंसी कौल भी भोपाल आए। और एक बार आए तो फिर यहीं के होकर रह गए…
बंसी की अपनी संस्था ‘रंग विदूषक’ भोपाल में ही है और इस संस्था के बैनर तले बंसी कौल ने जो किया वह भारत के रंगकर्म के इतिहास में एक अद्वितीय अध्याय के रूप में हमेशा दर्ज रहेगा। पहले ग्वालियर के रंगश्री लिटिल बैले ट्रुप के साथ जुड़ने के बाद बंसी ने इस संस्था के भोपाल आ जाने पर अपना अलग थियेटर ग्रुप ‘रंग विदूषक’ तैयार किया और इसमें कई अनगढ़ बच्चों को जमीन से उठाकर रंगमंच पर हीरे की तरह स्थापित कर दिया।
यहां इस बात का खासतौर से जिक्र करना जरूरी है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में काम करने और वहां की अलग अलग शैलियों को बारीकी से जानने समझने के बावजूद बंसी कौल ने ‘रंग विदूषक’ में ऐसी कोई शैली थोपने की कोशिश नहीं की। मध्यप्रदेश का रंगमंच उनका इस बात के लिए आभारी रहेगा कि उन्होंने इस राज्य की कई परंपरागत लोक शैलियों को अपने रंगकर्म का माध्यम बनाया। उन्होंने मालवा और बुंदेलखंड के नटों के साथ कार्यशालाएं कीं, धार्मिक समारोहों में निकलने वाले अखाड़ों की शैलियों को अपनाया और अभिव्यक्ति के लिए अपने नाटकों में पूरी प्रामाणिकता के साथ उनका भरपूर इस्तेमाल भी किया।
एक तरह से कहा जाए तो बंसी कौल ने लोक को अपनाकर रंगमंच पर भाव के साथ देह की भाषा को भी गढ़ा और उसे अपना खास सिग्नेचर दिया। जैसे हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ी को अपनाया उसी तरह बंसी ने मालवा, बुंदेलखंड और बघेलखंड की लोकशैलियों के मिश्रण से अपने रंगमंच का रस तैयार किया। उनके रंगकर्म में मार्शल आर्ट की बहुत मुख्य भूमिका थी। लेकिन यह मार्शल आर्ट शारीरिक द्वंद्व के रूप में नहीं बल्कि बौद्धिक और वैचारिक अभिव्यक्ति के रूप में इस्तेमाल हुआ।
बंसी कौल ने अपने नाटकों में संस्कृत की विदूषक परंपरा को माध्यम बनाया। उनके रंगमंडल का नाम ‘रंग विदूषक’ रखा जाना इसी का परिचायक है। लेकिन बंसी का विदूषक पश्चिम के जोकर से बहुत अलग है। वह न तो मूर्ख है और न मसखरा है। वह ऐसा बौद्धिक है जो हास्य और व्यंग्य के जरिये विचार और तर्क को प्रेषित करने की अद्भुत क्षमता रखता है। इस मायने में देखें तो व्यंग्य के जरिये मार करने की जो धार हमें मध्यप्रदेश की ही माटी से उपजे देश के दो दिग्गज व्यंग्यकारों हरिशंकर परसाई और शरद जोशी में दिखती है, उसी धार को बंसी कौल ने रंगमंच पर रंगप्रस्तुतियों के जरिये आगे बढ़ाया। स्थानीय टूल्स को इस्तेमाल करने में बंसी को महारत हासिल थी। मेरे हिसाब से बंसी रंगमंच पर ‘कबाड़ से जुगाड़’ कर प्रस्तुति को क्लॉसिक बना देने वाले बिरले रंगकर्मी थे। और इस मायने में भी वे मध्यप्रदेश के ऐसे ही एक और कलाकर्मी विष्णु चिंचालकर की धारा को ही आगे बढ़ा रहे थे।
मंच पर प्रयोग करने और साधारण से साधारण चीज को इस्तेमाल कर उसे अप्रत्याशित रूप से प्रभावोत्पादक बना देने में बंसी का कोई सानी नहीं था। ‘आकारों की यात्रा’ में संगीत और छतरियों के माध्यम से सिर्फ मुद्राओं की प्रस्तुति के जरिये बात को कह देना उनके ही बस की बात थी। संगीत, मुखौटों और चेहरे को रंगने की कला को बंसी ने नाटकों में भाव को अभिव्यक्त करने का सशक्त माध्यम बनाया। उनके नाटकों में संगीत का महत्व दरअसल मंच पर जीवंत संगीत प्रस्तुत करने की ‘लिटिल बैले ट्रुप’ की ही परंपरा को आगे बढ़ाने वाला था।
बंसी के बहुत पुराने दोस्त और लेखक रामप्रकाश त्रिपाठी कहते भी हैं कि ‘’स्थानिकता को महत्व देना बंसी की सबसे बड़ी विशेषता थी। और यह स्थानिकता उनके पात्र चयन से लेकर रंग उपकरणों तक में सर्वत्र दिखाई देती है। उन्होंने झुग्गी बस्तियों से, सामान्य घरों से बच्चों को लिया और उन्हें तराश कर रंगविधा के आकाश पर स्थापित कर दिया। फरीद बजमी से लेकर हर्ष दौण्ड तक ऐसे रंगकर्मियों की लंबी सूची है जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने रंग-हस्ताक्षर दर्ज किए। रंग विदूषक संभवत: अकेली ऐसी संस्था है जहां सबसे ज्यादा नाट्य निर्देशक तैयार हुए…’’
अपने आसपास की चीजों, कलाओं, बोलियों को सहजता से नाटक में इस्तेमाल करना बंसी का शगल था। प्रसिद्ध कवि राजेश जोशी के साथ मिलकर रचा गया उनका नाटक ‘तुक्के पर तुक्का’ इसका बेहतरीन उदाहरण है जिसमें उन्होंने भोपाली बोली का बेमिसाल इस्तेमाल किया है। ‘तुक्के पर तुक्का’ एक सार्वकालिक रचना है जो सत्ता पर काबिज होने की तिकड़मों को व्यंग्य के माध्यम से तेजाब की धार की तरह प्रस्तुत करती है। बसी का मानना था कि स्थानिकता ही अंतत: संस्कृति की रचना करती है और अंतराष्ट्रीय स्तर पर उसका विकास होता है।
काम के दौरान बंसी को बूझना बहुत मुश्किल था। वो कब क्या कर बैठें और कौनसी योजना को कब कहां बदल दें कोई नहीं कह सकता था। रामप्रकाश याद करते हैं- तुक्के पे तुक्का में एक बार उन्होंने राजा की जगह मुख्य पात्र रानी को बना दिया था। यह इंदिरा गांधी का जमाना था और वे पात्र परिवर्तन के सहारे बहुत स्पेसिफिक संदेश देना चाहते थे। इसी तरह गैस त्रासदी के बाद एक नाटक ‘अतीत की स्मृतियां’ तैयार करते समय इतना ज्यादा बिखर गया था कि किसी के कुछ समझ नहीं आया कि इसे किस रूप में प्रस्तुत किया जाए। बंसी आए, दो दिन उन्होंने रिहर्सल देखी और परदे, धुंए, छाया, पतंगों आदि के माध्यम से बात को कहने ऐसा अंदाज ढाला कि नाटक पूरा ही बदल गया। बंसी के नाटकों में पात्रों की भूमिकाएं भी बदलती रहती थीं, जरूरी नहीं था कि किसी नाटक में किसी एक पात्र का अभिनय कर रहा कलाकार उसकी दूसरी प्रस्तुति में भी वही भूमिका निभाए।
बंसी ने वैसे तो एशियाड और भारत महोत्सव जैसे कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों की प्रस्तुति और कोरियोग्राफी को अंजाम दिया था लेकिन उनका मुख्य योगदान रंगमच को ही रहा। रंगकर्म बंसी का नशा था जिसे उन्होंने खुद पर से कभी उतरने नहीं दिया। जीवन के अंतिम दिनों में भी वे रंग विदूषक और उसके आर्थिक स्वास्थ्य को लेकर चिंतित रहे। कोरोना कॉल में ही एक दिन उनका मेरे पास फोन आया कि यार सरकार ने हमारे परिसर से मध्यप्रदेश स्कूल ऑफ ड्रामा को हटाने का फैसला किया है। इससे मिलने वाले किराये से हमारा कुछ काम चल जाता था, सरकार से कहो ना कि वह इस फैसले को टाल दे…
कोरोना काल के दौरान ही बंसी ने सितंबर माह में अपना एक मेजर ऑपरेशन होने से कुछ दिन पहले 30 अगस्त को फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी। उन्होंने लिखा था- ‘’रंग विदूषक के साथियों के नाम पर हम सब को एक दूसरे से प्यार करना चाहिए, जो नफरत से छुटकारा पाने पर ही हो सकता है। किसी पर नफरत का पत्थर फेंकने की हरकत का असर होता है। यह प्रतिघात करेगा। चोट अंततः खुद को ही आती है। और इसलिए, हमें दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाने के लिए अधिक से अधिक दोस्त बनाने चाहिए। हमें आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मजबूत, टिकाऊ लंबे समय तक चलने वाला रास्ता प्रशस्त करने की जरूरत है। चलो उन्हें एक बेहतर दुनिया देते हैं।… सामूहिक शक्ति की भावना होनी चाहिए। ताकत सिर्फ साथ में हो सकती है, और साथ में यादें हैं। मैं इन यादों को याद करते हुए मुस्कुराता हूँ। मेरी मुस्कान हँसी में बदल जाती है। हँसी जन्म और मृत्यु के बीच मिनिसक्यूल लौकिक अंतराल का जश्न मनाती है। हँसी में मैं जश्न और विरोध को तुरंत देखता हूँ। यह नकारात्मकता के हर रूप में काटने के लिए बल बन जाता है। इसलिए हँसी मनानी चाहिए!’’
बंसी चेन स्मोकर थे। कई बार सिगरेट के धुंए के कारण उनके पास बैठना मुश्किल हो जाता था। एक बार मैंने रंग विदूषक के दफ्तर में ही उनसे मुलाकात के दौरान कहा, बंसी जी, आपके कमरे में धुंए के सिवा और भी कुछ होता है क्या? उनका जवाब था- ‘‘इस धुंए में ही हमें जिंदगी को तलाशना है यार…’’ आज बंसी शायद उसी जिंदगी की तलाश करते हुए उस अनंत धुंध में चले गए हैं जहां उनका सशरीर दिखना अब संभव नहीं होगा। लेकिन बंसी यादों में हमेशा रहेंगे। धुंध में बजने वाली बंसी के संगीत की तरह…
हम आपको हमेशा याद रखेंगे बंसीजी यह हमारा भी कौल है…