अजय बोकिल
देश में सरकारी एजेंसियां किस ढंग से और किस भरोसे काम कर रही हैं, यह समझना है तो जरा इन दो खबरों पर गौर करें। पहली यह कि मोदी-मेहुल घोटाले से भीतर तक हिली पंजाब नेशनल बैंक अब कर्जदारों से वसूली के लिए जासूसों की मदद लेगी। दूसरी है बिहार में एक रेल कर्मचारी के यहां चोरी का पता लगाने के लिए शासकीय रेलवे पुलिस यानी जीआरपी तंत्र विद्या के भरोसे है। इसके लिए बाकायदा एक तांत्रिक रात दिन अनुष्ठान कर रहा है। पुलिस हाथ जोड़कर किसी चमत्कार की आस लगाए बैठी है।
सरकारी कामकाज अपने ढर्रे से होता है, यह ‘सुभाषित’ तो बचपन से सुनते आ रहे थे। लेकिन अब वो टोने-टोटके और ऐयारों के भरोसे भी होने लगा है, यह जानकारी जरा नई है। हो सकता है कि ‘बदलते भारत’ की असली तस्वीर यही हो, जो पुरानी व्यवस्था के अंधों को ठीक से दिखाई न दे रही हो। पंजाब नेशनल बैंक तो सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी बैंक है। इसकी स्थापना 1894 में स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपतराय जैसे लोगों ने की थी। हालांकि उन्होने नहीं सोचा होगा कि स्थापना के सवा सौ साल बाद बैंक को जासूसों के भरोसे जिंदा रहना पड़ेगा।
हाल में यह बैंक नीरव मोदी और मेहुल चोकसी द्वारा किए करीब 14 हजार करोड़ के महाघोटाले के कारण खासी चर्चा में रही है। आलम यह कि लोगों ने इस बैंक से जी भर के कर्जा लिया और अब बैंक उन कर्जदारों के आगे-पीछे घूम रही है कि भई लौटा दो। कर्ज वसूली का बैंकों का अपना एक सिस्टम होता है। लेकिन नई दिल्ली से आई एक खबर बताती है कि बैंक का अपना वसूली सिस्टम पूरी तरह टें बोल गया है।
लोन लेकर गायब होने वाले (मोदी मेहुल के अलावा भी) बैंक को ढूंढे नहीं मिल रहे। लिहाजा उसने कर्जदारों के पीछे जासूस लगाने का फैसला किया है। इसके लिए बैंक ने बाकायदा जासूस संस्थाओं से आवेदन मांगे हैं। बैंक ने कहा है कि उसने काबू से बाहर होते जा रहे फंसे कर्ज (एनपीए) की रिकवरी के लिए चौतरफा प्रयास शुरू किए हैं। उसे ऐसी सक्षम निजी जासूसी संस्थाओं की तलाश है, जो फंसे कर्जों की रिकवरी के लिए फील्ड ऑफिसर्स के प्रयासों में उल्लेखनीय मदद कर सकें।
बैंक ने सभी इच्छुक निजी डिटेक्टिव कंपनियों को पांच मई तक आवेदन पत्र जमा करने को कहा है। बैंक के मुताबिक पिछले वर्ष दिसंबर के अंत तक ही उसका एनपीए 57 हजार 519 करोड़ रुपए पर पहुंच चुका था। बैंक सब-स्टैंडर्ड, संदिग्ध और डूबत सहित सभी कैटेगरी के फंसे कर्जों की सूची चयनित डिटेक्टिव कंपनियों के साथ साझा करेगी। कंपनियों को कर्जदार, सह-कर्जदार, गारंटर तथा उनके कानूनी वारिसों की तलाश करने को कहा जाएगा।
बैंक के मुताबिक ये लोग चाहें देश में ही कहीं छिपे हों या विदेश भाग गए हों (नीरव मेहुल, माल्या इत्यादि), डिटेक्टिव कंपनियों का काम दो महीने के भीतर उनके मौजूदा पता-ठिकाने, उनका कारोबार और मौजूदा स्थिति के बारे में सभी जानकारियां इकट्ठा कर बैंक को देना होगा। विशेष परिस्थिति में कंपनियों को दिया गया वक्त एक महीने के लिए बढ़ाया जा सकता है।
दूसरा मामला बिहार के सीवान का है। वहां एक रेलवे इंजीनियर के क्वार्टर में चोरी हो गई। फरियादी के मुताबिक उसने दो चोरों को पकड़ भी लिया। लेकिन जीआरपी (गवर्नमेंट रेलवे पुलिस) ने उन्हें छोड़ दिया। बाद में पुलिस फरियादी को ही धमकाने लगी। जब पूरे मामले में बवाल मचा तो जीआरपी ने चोरों को पकड़ने की ‘अभिनव’ मुहिम शुरू की। इसके तहत जीआरपी थानेदार रेल कर्मी के क्वार्टर में रोज एक तांत्रिक को लेकर जा रहे हैं।
तांत्रिक घर के लोगों से कभी दीपक जलाने को कहता है तो कभी हल्दी, अक्षत, कुमकुम की मांग करता है। पहले दिन की तांत्रिक पूजा के बाद उसने चोरी का भंडाफोड़ होने का दावा भी किया। पुलिस पूरे समय तांत्रिक के पीछे मुस्तैदी से खड़ी रही। लेकिन चोर तो क्या चींटी भी हाथ नहीं लगी। दूसरे दिन तांत्रिक फिर घटनास्थल पर पहुंचा और घर के लोगों से अक्षत लेकर अपने गुरु के पास मैरवा चलने के लिए कहा। साथ ही यह भी कहा कि चोरों के नामों का खुलासा वहीं करेंगे।
पुलिस की इस कार्रवाई से हतप्रभ फरियादी ने मामले की शिकायत जब मुजफ्फरपुर के रेल एसपी से की तो उन्होंने तांत्रिक की मदद लेने को सही ठहराया। इसके पीछे उनका तर्क और लाजवाब था। एसपी साहब बोले कि क्या करें? आजकल पुलिस की मदद तो कोई करता नहीं है। अर्थात ऐसे में तांत्रिकों, ओझाओं पर भरोसा न करें तो क्या करें?
ये दो प्रतीकात्मक घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि हमारा देश, समाज और व्यवस्था किस दिशा में जा रही है। क्यों लोग बैंकों का हजारों करोड़ लूटकर बेखटके विदेश भाग रहे हैं? क्यों दसियों एनकाउंटर के बाद भी गुंडों के हौसले बुलंद रहते हैं? क्यों नेता बनने के बाद व्यक्ति हर बंधन और मर्यादाओं से स्वयं को ऊपर समझने लगता है? क्यों अब ईमानदारी मूर्खता का पर्याय बन गई है? क्यों सरकारी तंत्र भ्रष्टों का सेवक और आम आदमी के लिए लाचारी का परिचायक बन गया है? क्यों नेताओं के वादों से ठगे हुए लोग सरकार से आस लगाने के बजाए आसारामों पर आंख मूंद कर विश्वास कर रहे हैं?
लगता है हम उस लोक की तरफ बढ़ रहे हैं, जहां हर व्यक्ति की आंख पर पट्टी बंधी है। कानून-व्यवस्था से लेकर न्याय व्यवस्था तक हमे ऐसे अंधों की ही जरूरत है, जो अपना विवेक, संवेदना और समझदारी कहीं गिरवी रख आए हों। वरना क्या कारण है कि एक बड़ी भारी बैंक कर्ज वसूलने के लिए जासूसों के भरोसे है तो सरकारी पुलिस सरकारी कर्मचारी के यहां चोरी का पता लगाने के लिए तंत्र विद्या पर अंध श्रद्धा रखे हुए है। दुर्भाग्य से यह सच है और देश के मूर्खताओं और पाखंड के गर्त में गिरने की निशानी है। क्या हम इन्हीं ‘अच्छे दिनों’ के मुगालते में जी रहे हैं?
(सुबह सवेरे से साभार)