क्‍या आप तुलसी को बामन और प्रेमचंद को कायस्‍थ कहना चाहेंगे?

मैं समझ ही नहीं पाया कि आखिर लीलाधर मंडलोई ने उस कार्यक्रम में ‘राग दरबारी’ को लेकर ऐसी बात क्‍यों कही होगी? मंडलोई तो किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। वे इन दिनों भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक हैं। उससे पहले वे दूरदर्शन के महानिदेशक रह चुके हैं। एक कवि के रूप में उनकी पहचान है ही। उनके साथ अपना एक खेमा भी है या यूं कहें कि वे एक खेमे के साथ भी हैं।

तो कुल मिलाकर मंडलोई के साथ ‘कुलशील’ की पहचान का वह संकट भी नहीं है जिसके बारे में मान्‍यवर अशोक वाजपेयी अकसर दूसरों से पूछा करते हैं। फिर ऐसा क्‍या हुआ होगा कि भोपाल आकर मंडलोई को राग दरबारी के 50 साल पूरे होने पर इस रचना को विचारविहीन कहने की नौबत आई?

पहली बात तो मुझे यह लगती है कि भोपाल ऐसे मामलों के लिए बहुत उपयुक्‍त जगह है। यह उस राज्‍य की राजधानी है जहां से शरद जोशी भी आते हैं और हरिशंकर परसाई भी, दुष्‍यंत भी आते हैं और राजेश जोशी भी, अशोक वाजपेयी भी आते हैं और श्रीकांत वर्मा भी… (यह सूची बहुत लंबी और बहुत समृद्ध है) यानी यह हर विचार की पनाहगाह है।

भोपाल एक समय कला, साहित्‍य और संस्‍कृति की ‘तावभूमि’ (कृपया इसे भावभूमि न पढ़ें) रहा है। यहां होने वाली हर गतिविधि उस समय देश के सांस्‍कृतिक जगत की चर्चा का विषय होती थी। उसके कुछ अंश आज भी इस ‘विवाद उर्वरा’ भूमि पर मौजूद हैं। इसीलिए भोपाल आकर राग दरबारी और उनके बहाने श्रीलाल शुक्‍ल की ठुकाई के पीछे सुर्खी बटोरना भी एक कारण हो सकता है।

ऐसा मैं इसलिए भी कह रहा हूं क्‍योंकि कल के मेरे कॉलम को पढ़ने के बाद कुछ सुधी पाठकों ने ऐसी ही प्रतिक्रिया भेजी है। दरअसल साहित्‍य न तो राजनीति से कभी अछूता रहा है और न ही रह सकता है। तीन दिन पहले ही जिन राष्‍ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर की पुण्‍यतिथि गुजरी है उनका और तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का एक किस्‍सा इस संदर्भ में बहुत मौजूं है।

बताते हैं कि एक बार संसद के गलियारे से गुजरते हुये नेहरू फिसल गये और जमीन पर गिरने ही वाले थे कि पीछे-पीछे चल रहे राष्ट्रकवि दिनकर ने (जो उस समय राज्यसभा के सदस्य थे) उन्हें थाम लिया। नेहरू ने इस पर दिनकर का धन्‍यवाद किया तो दिनकर ने कहा-“जब-जब राजनीति नीचे गिरेगी, साहित्य उसे थाम लेगा”।

पर अब हालात बदल गए हैं। आज जिस तरह राजनीति को कांग्रेस मुक्‍त भारत चाहिए, उसी तरह साहित्‍य के सत्‍ताधीशों को भी विपक्ष मुक्‍त साहित्‍य चाहिए। साहित्‍य में बस एक ही मुख्‍यधारा है, और जो इस मुख्‍यधारा का अंश या उसके साथ नहीं उसके धारा तो छोडि़ए जल होने में भी संदेह है। विख्‍यात आलोचक विजयबहादुर सिंह मुझे बता रहे थे कि इसी भोपाल में स्‍वनामधन्‍यों ने तो दुष्‍यंत और नागार्जुन तक को कवि मानने से इनकार कर दिया था।

मुझे बताया गया कि जिस कार्यक्रम में ‘राग दरबारी’ को विचारहीन रचना कहा गया उसी में उसके ‘कालजयी’ होने पर भी सवाल उठे। जाहिर है जो दुकान साहित्‍य में गोरे होने की क्रीम से लेकर बालों को लंबा करने वाले तैल तक और दंत मंजन से लेकर कब्‍ज दूर करने वाला चूरन तक सिर्फ अपने ही ब्रांड का बेचती हो वह दूसरों के ब्रांड को ‘कालजयी’ कैसे कह सकती है।

दरअसल श्रीलाल शुक्‍ल के साथ समस्‍या यह है कि उन्‍हें किस खेमे में रखा जाए। वे न तो प्रगतिशील खेमे में फिट होते हैं और न ही जनवादी खेमे में। वे तो भारतीय समाज के खेमे में नजर आते हैं, और यह तो साहित्‍य की दृष्टि से अपराध है। ऐसे अज्ञात कुलशील वाले लोग स्‍पृश्‍य भी नहीं हैं।

पर ऐसे सोच का नतीजा क्‍या होता है? मेरे कॉलम को लेकर फेसबुक पर सुरेंद्रसिंह डांगी ने लिखा- ‘’मुझे माफी दी जाए तो कहना चाहूंगा कि श्रीलाल जी का ‘शुक्ल’ (ब्राह्मण) होना और लीलाधर मण्डलोई जी का आदिवासी विरासत से आना इस कृति और इसके माध्यम से लेखक को कमतर आंकने का एक कारण हो सकता है।‘’ ऐसी ही प्रतिक्रिया भोपाल आकाशवाणी में मंडलोई के सीनियर रह चुके एक अधिकारी की भी थी।

इन प्रतिक्रियाओं को यहां बताने का मकसद मंडलोई को कमतर करना नहीं है। लेकिन कलमकारों की तमाम जमात को सोचना चाहिए कि जब वे लोक धारणाओं के विपरीत कोई फतवा देने जैसी टिप्‍पणी करते हैं तो उनके स्‍वयं के और उनके रचना संसार के प्रति भी लोक का नजरिया क्‍या हो जाता है। मैं कतई नहीं चाहूंगा कि जिस तरह इस देश में गांधी को बनिया बताने वाली टिप्‍पणी हुई उसी तरह कोई तुलसी को ब्राह्मण, दिनकर को भूमिहार और धर्मवीर भारती को कायस्‍थ बताने लगे…

मेरी निजी राय में किसी भी लेखक को वर्ग या वर्ण के आधार पर मूल्‍यांकित नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन जिस लोक के लिए या जिस लोक के नाम पर हम अपना रचनासंसार सृजित करते हैं, यदि वही लोक ऐसी धारणा बनाने लगे तो हमें सोचना जरूर चाहिए कि क्‍या हम दूसरों के आकलन में वस्‍तुनिष्‍ठ रह पा रहे हैं?

नौंवी शताब्‍दी के कवि राजशेखर की मशहूर कृति काव्‍य मीमांसा में कहा गया है कि जो रचना जनता के निचले पायदान तक पहुंच जाती है वही महान होती है। कोई रचना यदि कम्‍युनिकेट ही न करे तो उसका फयदा ही क्‍या? इन दिनों ऐसा बहुत लिखा जा रहा है जो कम्‍युनिकेट ही नहीं करता।

वैचारिकता या बुद्धिजीविता का धर्म (इस शब्‍द से आपत्ति हो तो आप कर्म कह लीजिए) है समाज को विचार देना या राह सुझाना। लेकिन समाज के लिए कतई जरूरी नहीं है कि वह उस विचार को उसी प्रतिबद्धता के साथ ग्रहण करे या उस राह पर आंख मूंदकर चलने लगे। समाज यदि विचारों को स्‍वीकार करता है तो उन्‍हें खारिज भी करता है और यह स्‍वीकृति या अस्‍वीकृति उसके अपने अनुभवों पर अधिक आधारित होती है बनिस्‍बत किसी विचारपुंज के…

श्रीलाल शुक्‍ल या रागदरबारी का अंधभक्‍त होने की कतई जरूरत नहीं है, लेकिन उनकी तरफ से आंख मूंद लेने की दायित्‍व‍हीनता भी स्‍वीकार्य नहीं हो सकती। न ही उन्‍हें विचारशून्‍य कहकर खारिज करने की… किसी भी रचना का मूल्‍यांकन इस तरह के फतवों से नहीं किया जा सकता।

अदम गोंडवी का एक शेर है- मैंने अदब से हाथ उठाया सलाम को, समझा उन्होंने इससे है खतरा निजाम को

राग दरबारी को भी आप इसी अंदाज से देखेंगे तो बेहतर होगा…

(समाप्‍त)

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