कम से कम हम तो अपनी आंखों पर पट्टी न बांधें

बुधवार को मैंने पत्रकार प्रशांत कनौजिया को उत्‍तरप्रदेश पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने और बाद में प्रशांत की पत्‍नी की ओर से इस गिरफ्तारी के खिलाफ दायर की गई याचिका पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रशांत की रिहाई के आदेश दिए जाने की घटना को लेकर लिखा था। उस पर हमारे पाठकों ने व्‍यापक प्रतिक्रिया दी है, कई लोगों ने सोशल मीडिया के जरिये और कई ने व्‍यक्तिगत रूप से।

सबसे पहले तो आप सबकी प्रतिक्रियाओं के लिए धन्‍यवाद। दरअसल पाठकों की प्रतिक्रियाएं ही हमें न सिर्फ लिखते रहने की प्रेरणा देती हैं बल्कि वे इस मायने में हमारा मार्गदर्शन भी करती हैं कि हम कहां गलत हैं और कहां दिशा भटक रहे हैं। आप जो भी लिखते हैं वह किसी भी विषय पर स्‍वविवेक के आधार पर बना आपका विचार होता है और कतई जरूरी नहीं कि उससे आपके पाठक या समाज सहमत हो।

प्रशांत कनौजिया प्रकरण को लेकर कही गई बात पर सहमति या असहमति के विषय को परे रखते हुए मैं कहना चाहूंगा कि इस विषय को उठाने के पीछे मूल उद्देश्‍य ‘अभिव्‍यक्ति की आजादी’ के साथ अनिवार्य रूप से जुड़े विवेकपूर्ण व्‍यवहार और दायित्‍वबोध के बिंदु को रेखांकित करना था, और खुशी है कि पाठकों ने इस मामले में बहुत संजीदगी से अपनी राय दी।

दरअसल प्रशांत कनौजिया का केस तो एक माध्‍यम भर है। आज हम जिस समय में जी रहे हैं उसमें अभिव्‍यक्ति की आजादी पर खतरा भी है और अभिव्‍यक्ति की आजादी का खतरा भी है। हालांकि इन दोनों में अंतर करना बहुत बार मुश्किल हो जाता है और अकसर हमारी राय उसी कहावत के आधार पर बनती दिखाई देती है कि घुटना आखिरकार पेट की ओर ही मुड़ता है।

लेकिन मेरा मानना है कि समाज हमसे निष्‍पक्ष या ऑब्‍जेक्टिव होकर अपनी बात कहने की अपेक्षा रखता है। मीडिया पर भरोसे का आधार भरोसा ही है। भरोसा इस बात का कि आप पाठकों तक जो बात पहुंचा रहे हैं उस पर आपने न तो चासनी चढ़ाई है ना ही उस पर धतूरे का लेप लगाया है। पत्रकार होने के नाते हमारा काम ‍किसी भी सामग्री को पब्लिक डोमेन में पटक देना भर नहीं है। सूचनाओं और घटनाओं को पत्रकारीय ‍विवेक के छन्‍ने से छानकर लोगों के सामने प्रस्‍तुत करना ही पत्रकारिता है।

पिछले लंबे समय से मीडिया जगत में यह बहस चल रही है कि मीडिया को सवाल पूछने के अधिकार से भी वंचित किया जा रहा है। निश्चित रूप से सवाल पूछना मीडिया का अधिकार है, लेकिन स्थितियां अब ऐसी बन रही हैं कि मीडिया को यह अधिकार सिर्फ दूसरों के मामले में ही नहीं खुद पर भी लागू करना चाहिए। आप ऐसा क्‍यों चाहते हैं कि सिर्फ आप ही सवाल पूछें, कोई और आपसे सवाल न पूछे।

और चलिए किसी और को सवाल पूछने की इजाजत भले ही मत दीजिए पर कभी आप भी तो खुद से सवाल करिए। अपने आप से भी तो पूछिये कि आप जो कर रहे हैं क्‍या वह सही है, क्‍या वह पूरी तरह समाज या देशहित में है। आपको इस बात पर बहुत गुस्‍सा आता है, आना भी चाहिए, कि आपको सवाल पूछने से रोका जा रहा है। लेकिन आप खुद को प्रश्‍न-निरपेक्ष कैसे मान सकते हैं।

अभिव्‍यक्ति की आजादी की जब भी बात होती है हम अकसर एक पक्ष को, जो ‍कि बहुधा सत्‍ता, सरकार, नेता या राजनीति ही होता है, दोषी या गलत बताते हैं, लेकिन दूसरे पक्ष की भी गलती हो सकती है, चूक वहां भी हो सकती है, इस पर हम या तो बोलते ही नहीं या बहुत कम बोलते हैं। दूसरों पर उंगली उठाने की मुद्रा में स्‍वयं अपनी ओर कितनी उंगलियां उठ रही हैं यह हम या तो देखते नहीं या देखना चाहते नहीं।

सत्‍ता और सिंहासन तो हमेशा से ही सच से भयभीत रहते आए हैं। नाम लेने की जरूरत नहीं है, बस इतिहास उठाकर देख लीजिए कि अपने प्रति मीडिया का अनुकूलन किसने नहीं चाहा। और अनुकूलन तो बहुत कुलीन शब्‍द है, मीडिया को चारण या भाट बनाना किस सत्‍ता ने नहीं चाहा? हर सत्‍ता चाहती है कि मीडिया उसका चरण-चुंबन करता रहे।

राजनीति हमेशा से चाहती रही है कि सच ‍जितना छुपा रहे उतना अच्‍छा। और इसीलिए वह सच को उजागर करने वालों को चुप कराना या चुप रखना चाहती है। उसके लिए हर हथकंडा आजमाती है। लेकिन यह भी कोई देखेगा या नहीं, तौलेगा या नहीं, ‍कि जिसे सच कहा या बताया जा रहा है वह वास्‍तव में सच है भी या नहीं? और उससे भी बड़ी बात ‍कि उस सच का देश और समाज के हित से कोई लेनादेना है भी या नहीं।

मीडिया भेड़ों की वो बिरादरी क्‍यों बनता जा रहा है जिसे बाहर के भेडिये से तो खौफ है लेकिन उसके खुद के रेवड़ में ही भेड़ की खाल में मौजूद भेडिये को वह देख नहीं पा रहा या ‍फिर देख कर भी उसे अनदेखा कर रहा है। यदि हमें खा जाने वाला प्राणी ‘भेडि़या’ ही है तो वह एक न एक ‍दिन हमें खा ही जाएगा, भले ही वह रेवड़ के बाहर मौजूद हो या रेवड़ के भीतर। भले ही उसने मुखौटा लगाया हो या कोई खाल ओढ़ी हो।

आज जिस तरह से संचार का परिदृश्‍य बदला है, टूल्‍स बदले हैं, उसमें यह कहना बहुत मुश्किल होता जा रहा है कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं। सोशल मीडिया ने पत्रकारों की परिभाषा और दायरा दोनों ही बदल दिए हैं। ऐसे में हम किसके कहे या लिखे की जिम्‍मेदारी लें और किसके कहे या लिखे को गलत कहें यह निर्णय बहुत ही सोच समझकर करना होगा।

मुझे लगता है, हमें यह बीड़ा अब उठाना ही होगा कि सफाई का, जिम्‍मेदारी का और जवाबदेही का एक अभियान अपने भीतर भी चलाएं… भेडि़यों के खेल को समझें… क्‍योंकि यह भी संभव है कि बाहर वाले भेडिये ने ही भेड़ की खाल ओढ़ा कर कुछ भेडिये हमारे रेवड़ में शामिल कर दिए हों… ऐसे में हम तो अपनी आंखों पर पट्टी न बांधें!

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