छांटो-बीनो फिर रिएक्‍ट करो वाली पॉलिसी बदलना होगी

सबसे बड़ा सवाल इन दिनों यह है कि आखिर पत्रकार कौन? एक समय था जब ज्‍यादातर मामलों में संस्‍थानिक रूप से तय होता था कि फलां व्‍यक्ति पत्रकार है। इतना ही नहीं बाकी लोगों को यह भेद भले ही पता न चल पाता हो, लेकिन बिरादरी के लोगों को जरूर पता होता था कि फलां व्‍यक्ति पत्रकार तो है लेकिन पत्रकारिता में भी वह रिपोर्टिंग करता है या फिर डेस्‍क पर खबरों का संपादन। अब कौन क्‍या करता है, किसके लिए करता है, किसलिए करता है किसी को पता नहीं होता।

इन दिनों पत्रकार होने के लिए सिर्फ इतना चाहिए कि आप स्‍वयं को पत्रकार कह दें। रही बात योग्‍यता की तो उस लिहाज से मैं कहूंगा कि आज जिसके पास भी फकत दो अंगूठे हैं वो पत्रकार है। पत्रकार होने के लिए आपको पढ़ा-लिखा, विचारवान, विवेकशील, तर्क या बुद्धि से वास्‍ता रखने वाला होना जरूरी नहीं है, बस आपके पास एक डिजिटल पट्टी (स्‍लेट) होना चाहिए और उस पर अंगूठे चला सकने का हुनर आपको आना चाहिए।

अरे अरे, रुकिए, पत्रकार होने के लिए दो अंगूठे भर होने की बात करके शायद मैं खुद को ही पिछड़ा बता रहा हूं। अब तो बात और आगे बढ़ चली है। कलम का जमाना तो कभी का बीत गया लेकिन अब तो उंगलियां या अंगूठा चलाने की भी जरूरत नहीं है। आपको बस जबान चलाना आना चाहिए, बाकी सारा काम आपका डिजिटल टूल खुद ही कर लेगा। तो जो जितनी ज्‍यादा जबान चला सके, जो जितना बड़ा मुंहजोर, वह उतना ही बड़ा पत्रकार…

मुझे याद है प्रिंट पत्रकारिता के दौर में ही ‘सिटिजन जर्नलिस्‍ट’ की अवधारणा आ गई थी। उसे उस समय बहुत क्रांतिकारी बदलाव माना गया था। पर किसे पता था कि संचार और तकनीक के आधुनिक टूल्‍स उस अवधारणा को इस हद तक ले आएंगे कि आपके आसपास का हर इंसान ही नहीं हर चलता फिरता प्राणी भी खुद को पत्रकार कहने लगेगा।

लेकिन चलिए, बदलाव तो जमाने के हिसाब से होता ही है, होना भी चाहिए, वैसे भी यह वक्‍त है बदलाव का… पर मुसीबत यह है कि जब अभिव्‍यक्ति की आजादी की बात होती है तब हम क्‍या करें? हमारे संविधान ने यह आजादी देते समय कोई भेद नहीं किया, उसमें यह आजादी भारत के प्रत्‍येक नागरिक को दी गई है। लेकिन अभी तक होता यह आया था कि इस आजादी के वाहक और संरक्षक दोनों का ठेका पत्रकारिता ने ले रखा था। मीडिया ही अभिव्‍यक्ति की आजादी का झंडाबरदार था।

पर आज जब मुंह में जबान और हाथ में अंगूठा रखने वाला हर व्‍यक्ति कमोबेश पत्रकार बन चला है और सोशल मीडिया ने उसे जायज/नाजायज हर तरीके से खुद को अभिव्‍यक्‍त करने की आजादी दे दी है तब यह तय कैसे हो कि सही क्‍या है और गलत क्‍या? कौन तय करे कि यह होना तो ठीक है पर यह नहीं होना चाहिए था। कौन किसको टोके और कौन किसको रोके। यह कोई पेशे की ठेकेदारी तो है नहीं कि अखबार या चैनल में काम करने वाले ही पत्रकार कहलाएंगे, न ही जरूरी है कि अभिव्‍यक्ति की आजादी का परमिट या लायसेंस इन्‍हीं के पास रहे। तो फिर इस आजादी के दुरुपयोग की स्थिति में कौन हो जो सही या गलत का निर्णय करे?

आज हर व्‍यक्ति के हाथ में खुद को अभिव्‍यक्‍त करने या अपनी भड़ास निकालने का टूल मौजूद है। ऐसा करने वाला कौन है, वह किस उद्देश्‍य से ऐसा कर रहा है, उसकी पृष्‍ठभूमि और प्रामाणिकता क्‍या है, क्‍या हम इन सब बातों को जज कर पा रहे हैं। प्रशांत कनौजिया वाले मामले में ही मेरे पूछने पर कई वरिष्‍ठ बौद्धिकों ने माना कि उन्‍होंने उसका मूल ट्वीट देखा ही नहीं है। तो क्‍या हम बगैर आधार को जाने सिर्फ देखा-देखी ही प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते जा रहे हैं?

ऐसे कई सवाल है जो न सिर्फ पत्रकार जगत से बल्कि ‘अभिव्‍यक्ति की आजादी’ से लेना देना रखने वाले हर शख्‍स से वास्‍ता रखते हैं। अभी पिछले दिनों मीडिया पर नियमित कॉलम लिखने वाले स्‍तंभकार आरिफ मिर्जा ने ऐसे ही लोगों पर सवाल उठाते हुए लिखा था- ‘’न वो पत्रकार होते हैं और न पत्रकारिता से उनका दूर दूर से कोई वास्ता होता है। …कुल मिला के असली जर्नलिज्म के लिए दर्दे सिर बन गए हैं… एक स्मार्ट मोबाइल लिया, उसमें अपनी आईडी फंसाई और किसी कोने में खड़े हो गए। खबर कहीं चलेगी या नहीं इसकी कोई परवा भी इन्हें नहीं।…’’

मैं यह नहीं कहता कि पत्रकारिता सिर्फ संस्‍थानों की या बड़े घरानों की ही बपौती है। होनी भी नहीं चाहिए। लेकिन ऐसा कोई मैकेनिज्‍म जरूर बनाया जाना चाहिए जिसमें सूचनाएं देने वालों की जवाबदेही भी तय हो। इस बात से कौन सहमत होगा कि किसी भी पत्रकार को पुलिस उठाकर ले जाए और उसे सीखचों के पीछे डाल दे। भारतीय मीडिया हमेशा ऐसी ताकतों से पूरी ताकत से लड़ा है और आगे भी लड़ता रहेगा। लेकिन बदले हुए समय में इस लड़ाई के पात्रों और हथियारों दोनों की समीक्षा जरूरी है।

और ‘अभिव्‍यक्ति की आजादी’ के इस कवच का इस्‍तेमाल और उसकी व्‍याख्‍या भी क्‍या हम अपनी सुविधा के अनुसार नहीं कर रहे? वरना क्‍या वजह है कि दिल्‍ली में बैठा कोई व्‍यक्ति सोशल मीडिया पर कुछ भी लिख दे और उस पर कार्रवाई हो तो प्रतिनिधि संस्‍थाओं से लेकर तमाम लोग उसके समर्थन में संपादकीय पेज रंगने लगें और शामली जैसी छोटी जगह में वास्‍तविक पत्रकारिता कर रहे किसी व्‍यक्ति को पुलिस पीटे, थाने में बंद कर दे, बकौल पीडि़त उसके मुंह पर पेशाब की जाए तो सारी प्रतिनिधि संस्‍थाओं के मुंह सिल जाएं, आंखें बंद हो जाएं, कलम को लकवा मार जाए।

यह सवाल क्‍यों नहीं उठना चाहिए कि, क्‍या ऐसा इसलिए है कि दिल्‍ली वाले पत्रकार के मामले में एक ‘पॉलिटिकल एंगल’ है जो हमें ज्‍यादा सूट करता है, जबकि शामली वाला मामला ‘रूटीन’ है। उस पर लिखकर या हल्‍ला मचाकर कोई ‘पॉलिटिकल माइलेज’ नहीं मिलने वाला। वरना कायदे से तो दोनों ही मामलों में दोषी उसी राज्‍य की पुलिस है। ‘अभिव्‍यक्ति की आजादी’ के मामले में हमने यह जो छांटो-बीनो और फिर रिएक्‍ट करो वाली पॉलिसी अपना ली है, वह हमें और हमारी बात दोनों के उद्देश्‍य को संदिग्‍ध बनाती है। सरकारों और सत्‍ता से तो हम लड़ते ही आए हैं, आगे भी लड़ेंगे, पर अब तो सवाल यह है कि क्‍या हममें अपने ही बीच बन रहे इन हालात का सामना करने, उनसे लड़ने का साहस है?

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