अजय बोकिल
एक तरफ मोदी सरकार का दलित प्रेम उफना जा रहा है, दूसरी तरफ उन्हीं की सरकार, सरकारी कामकाज में ‘दलित’ शब्द इस्तेमाल न करने की सख्त हिदायत मुलाजिमों को दे रही है। केन्द्र सरकार द्वारा 15 मार्च 2018 को जारी परिपत्र में साफ कहा गया है कि शासकीय कार्य में ‘दलित’ प्रयोग से बचें। यह परिपत्र मंत्री थावरचंद गेहलोत के सामाजिक न्याय मंत्रालय ने जारी किया है।
इसमें केन्द्र और सभी राज्य प्रशासन को पूर्व में 10 फरवरी 1982 को जारी गृह मंत्रालय के एक निर्देश का हवाला दिया गया है। इसमे कहा गया था कि सरकारी कामकाज में ‘हरिजन’ शब्द का इस्तेमाल कतई न किया जाए। सरकारी दस्तावेजों में केवल उस जाति का उल्लेख करें , जिससे वह व्यक्ति ताल्लुक रखता है और जिसे राष्ट्रपति के आदेशों के तहत अनुसूचित जाति के रूप में जिसे मान्यता दी गई थी। सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को लिखे गए पत्र में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा विगत 15 जनवरी को दिए गए आदेश का भी उल्लेख किया गया है।
आदेश में केंद्र सरकार/राज्य सरकारों और उनके विभागों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल करने से बचने को कहा गया है, क्योंकि भारत के संविधान या किसी विधान में इसका कोई उल्लेख नहीं है। सभी राज्य सरकार/केंद्र शासित प्रशासन से आग्रह है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत जारी राष्ट्रपति के आदेशों में अधिसूचित अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले लोगों के लिए सभी सरकारी कामकाज, मामलों, लेनदेन, प्रमाणपत्रों आदि में संवैधानिक शब्द अंग्रेजी में ‘शिड्यूल्ड कास्ट’ (अनुसूचित जाति) और इसका अन्य राष्ट्रीय भाषाओं में उचित अनुवाद का ही इस्तेमाल होना चाहिए।’
यहां सवाल उठता है कि जो शब्द संविधान में नहीं है, वही शब्द राजनीतिक और सामाजिक शब्दावली में अधिमान्य क्यों है? क्यों नेता रात-दिन ‘दलित’ शब्द की दुहाई देते नहीं थकते? क्यों वे स्वयं को ज्यादा से ज्यादा दलित हित चिंतक साबित करने की होड़ में अव्वल दिखना चाहते हैं, लेकिन कागजों में इसी शब्द से परहेज रखना चाहते हैं? यह विरोधाभास क्यों? यह सही है कि संविधान में, जिसका ड्राफ्टभ स्वयं महान दलित नेता बाबा साहब आंबेडकर ने तैयार किया, उसमें भी पूर्व में अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों को अनुसूचित जाति कहा गया न कि दलित जाति। लेकिन स्वयं उन्हें दलितों का पुरोधा ही माना जाता है।
यहां तर्क दिया जा सकता है कि ‘अनुसूचित जाति’ एक संवैधानिक शब्द है। इसलिए सरकारी कामकाज में यही शब्द इस्तेमाल होना चाहिए। ठीक है। लेकिन स्वयं राजनेता और राजनीतिक दल इस संवैधानिक शब्द के इस्तेमाल से क्यों बचते हैं? क्यों उन्हें दलित कहना और खुद दलितों को दलित कहलवाना ज्यादा भाता है बजाए अनुसूचित जाति का कहलवाने के? इसी संदर्भ में दोनो शब्दों पर गौर जरूरी है।
दलित मूलत: संस्कृत का शब्द है। जिसका अर्थ है कुचला दबा या रौंदा हुआ। अर्थात हिंदू समाज का वह तबका जो सदियों से ऊंची जातियों की हिकारत का शिकार हुआ। संत ज्ञानेश्वर ने तेरहवीं सदी में ‘ज्ञानेश्वरी’ के पसायदान में ‘दुरित’ शब्द का प्रयोग किया। जिसका अर्थ पापी से भी है और दुत्कारे हुए लोगों से भी है। उन्होंने कहा था कि ऐसे लोगों के जीवन का अंधेरा छंटना चाहिए।
आधुनिक इतिहास में महात्मा ज्योतिबा फुले ने अछूत समझी जाने वाली जातियों के लिए दलित शब्द का प्रयोग किया। ब्रिटिश राज में भी अस्पृश्य जातियों के लिए जनगणना में दलित सम्बोधन का उल्लेख है। बाद में बाबा साहब आम्बेडकर ने भी दलित शब्द को ही उचित माना। हालांकि महात्मा गांधी ने हिंदुओं में गैर दलित और दलितों का भेद मिटाने के लिए 1933 में पीडि़त जातियों को ‘हरिजन’ शब्द चलाया। यह बात अलग है कि आंबेडकर उसे सही नहीं मानते थे, बावजूद इसके यह लोकप्रचलन में आया और कुछ विशिष्ट जातियों से आईडेंटीफाई होने लगा।
सत्तर के दशक में सबसे पहले महाराष्ट्र में ‘दलित पैंथर’ ने ‘दलित’ शब्द को एक नई आभा और तेवर दिए। इसी शब्द ने ‘हरिजन’ शब्द की मर्यादाओं को भी खत्म किया। आज ऐसी तमाम वंचित जातियां स्वयं को दलित कहलाना पसंद करती हैं। कुछ हद तक इसमें आदिवासियों को भी समाविष्ट कर लिया गया है।
प्रश्न यह भी है कि जब दलित शब्द लोकमान्य है तो राजमान्य क्यों नहीं है? क्योंकि सरकार और कानून नियमों और कागद की लेखी से चलता है। उसका अपना कोई चश्मा नहीं होता। इसीलिए वह सरकारी कामकाज से ‘दलित’ शब्द को खारिज करने का परिपत्र जारी करता है। वैसे भी ‘अनुसूचित जाति’ अपने आप में एक निर्जीव और किसी सामाजिक क्षेत्रफल के डायमेंशन सा शब्द प्रतीत होता है। इससे कोई चेहरा सामने नहीं आता।
इसके विपरीत ‘दलित’ कहते ही समाज में भेदभाव की दरारें सुस्पष्ट होने लगती हैं। इसमें जो पॉलिटिकल पोटेंशियल है, वह किसी ‘अनुसूचित’ शब्द में कभी भी नहीं आ सकता। क्योंकि ‘अनुसूचित जाति’ विभक्त समाज की एक शोचनीय अवस्था है। वह ऐसा चक्रव्यूह है, जिसमें अभिमन्यु के लिए कोई जगह नहीं है।
वह सामाजिक विषमता को यथास्थितिवादी मानने का सूचक है। वह जातियों को महज जीवित समुदायों का समुच्चय ही मानता है। उनके उत्पीड़न अथवा उस उत्पीड़न से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं सुझाता। यही कारण है कि हमारी राजनीतिक और सामाजिक शब्दावली और है तथा प्रशासनिक शब्दावली और। सामाजिक सत्य से हम सरकारी तंत्र को बाधित नहीं होने देना चाहते। इसीलिए देश का हर नेता, हर राजनीतिक दल स्वयं को सबसे बड़ा दलित हितैषी तो सिद्ध करना चाहता है, लेकिन उन्हीं सदभावनाओं का क्रियान्वयन वह ‘अनुसूचित’ भाव से होते ही देखना चाहता है। क्योंकि उसमें चाहत है, लेकिन वैसा करने की तड़प नहीं है।
दलितों का एका ‘अनुसूचित जाति’ में टूटता सा लगता है। अब तो इसके और महीन विभाजन की राजनीतिक रेखाएं महादलित के रूप में खींची जा रही हैं। सबसे बड़ी विसंगति यह है कि राजनीति वोट दलितों से मांगती है और कल्याण ‘अनुसूचित जातियों’ का करना चाहती है। इस कल्याणकारी तंत्र में दलित शब्द बहिष्कृत है, क्योंकि वह असंवैधानिक है। यह पहेली अजब है कि ‘दलित’ का संविधान हमे मान्य है लेकिन वही ‘दलित’ संविधान में अमान्य है। क्या दलितों को रात दिन रिझाने में लगे लोग इस पहेली को सुलझाने पर भी ध्यान देंगे?
(सुबह सवेरे से साभार)