सोशल मीडिया पर दो दिन से एक चुटकुला चल रहा है। ‘’भारत में वो आदमी जो शराब बेचता था, वो देश छोड़कर भाग गया, वो आदमी जो कॉफी बेचता था उसने आत्महत्या कर ली, लेकिन जो चाय बेचता था, वह देश पर राज कर रहा है। अब आप खुद तय करें कि आपको क्या पीना है।‘’
बात को भले ही मजाक में लिया जा रहा हो, लेकिन असलियत में यह मामला मजाक का नहीं बल्कि बहुत गंभीरता से विचार करने का है। मुझे मालूम है कि कुछ लोग इस मामले को ‘अमीर-गरीब’ के सदियों पुराने चश्मे से देखेंगे, जिन लोगों की ऐसे विषयों को बौद्धिक गली में मोड़ देने की आदत है, वे इसे पूंजीवाद बनाम समाजवाद के नजरिये से तौलेंगे और कुछ लोग ऐसे भी मिल जाएंगे जो न देखेंगे न तौलेंगे, बस मनमाने अर्थ निकालते हुए सिर्फ बोलेंगे और घटना के मजे लेंगे।
यह मामला देश के चर्चित उद्यमी और ‘कैफे कॉफी डे’ यानी सीसीडी के संस्थापक वी.जी. सिद्धार्थ का है। देश के पूर्व विदेश मंत्री और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस.एम. कृष्णा के दामाद सिद्धार्थ का परिवार पारंपरिक रूप से कॉफी के कारोबार से जुड़ा है। सिद्धार्थ भी पढ़ाई के बाद इस कारोबार से जुड़े और 1993 में कॉफी-डे ग्लोबल (अमलगेमेटेड बीन कॉफी ट्रेडिंग कंपनी) की शुरुआत की। उस समय कंपनी का कारोबार सिर्फ 6 करोड़ रुपए का था। 1996 में उन्होंने कैफे कॉफी डे यानी सीसीडी के नाम से पहला कॉफी कैफे खोला था।
पिछले 23 साल के दौरान सीसीडी दुनिया भर के 200 शहरों में फैल गया। आज इसके 1752 कैफे संचालित हो रहे हैं। बेंगलुरु में ब्रिगेड रोड से शुरुआत करके सिद्धार्थ ने अपनी कॉफी कैफे की चेन को भारत के बाहर भी फैलाया और 2005 में ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में उन्होंने पहला सीसीडी खोला। आज ऑस्ट्रिया, चेक रिपब्लिक और मलेशिया तक उनका कारोबार फैला हुआ है।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सिद्धार्थ की कंपनी हर साल 28 हजार टन कॉफी एक्सपोर्ट करती है। 2 हजार टन कॉफी देश में बेचती है। भारत में ही कंपनी के करीब 30 हजार कर्मचारी हैं। सीसीडी के अलावा सिद्धार्थ ने हॉस्पिटेलिटी चेन भी शुरू की थी, जिसके तहत 7-स्टार रिसॉर्ट का संचालन किया जाता है। बताया जाता है कि उनकी सभी कंपनियों में कुल मिलाकर लगभग 50 हजार लोग काम करते हैं। कॉफी का कारोबार 1993 में 6 करोड़ रुपए से शुरू हुआ था जो वित्त वर्ष 2018-19 में 1,814 करोड़ रुपए पहुंच गया।
ये ही सिद्धार्थ 29 जुलाई को बेंगलुरू से मेंगलुरू के लिए कार से निकले थे। मेंगलुरू के पास नेत्रवती नदी के पुल पर उन्होंने गाड़ी रुकवाई और गाड़ी से उतरकर टहलने निकल गए। काफी देर तक उनके न लौटने पर ड्राइवर ने परिवारवालों को सूचित किया और फिर चले सघन खोज अभियान के दौरान सिद्धार्थ का शव 31 जुलाई को नेत्रवती नदी से बरामद किया गया।
बताया जा रहा है कि सिद्धार्थ कंपनी के कारोबार की बिगड़ती हालत और चढ़ते कर्ज से परेशान थे और इसी कारण उन्होंने आत्महत्या की। पड़ताल के दौरान सिद्धार्थ का एक पत्र भी सामने आया है जिसमें उन्होंने कर्ज से परेशानी के चलते भारी तनाव होने का जिक्र किया था। इसी पत्र में उन्होंने इस बात की ओर भी संकेत किया कि आयकर विभाग के एक पूर्व महानिदेशक के रवैये से वे बहुत प्रताडि़त हो रहे थे।
इस कहानी की असलियत और सिद्धार्थ की मौत के वास्तविक कारण क्या हैं यह तो पूरी जांच पड़ताल के बाद ही पता चल सकेगा। लेकिन एक बड़े कारोबारी की इस तरह हुई मौत पर कई तरह से विचार करने की जरूरत है। दरअसल कर्ज, कारोबारी परेशानियों और सरकारी तंत्र के उत्पीड़न में लिपटी हुई यह कहानी भारत की वर्तमान अर्थव्यवस्था और कारोबारी ढांचे के भयावह स्वरूप को उजागर करने वाली घटना भी है।
यहां मैं कोई तुलना नहीं कर रहा, लेकिन मेरा मानना है कि हम आमतौर पर किसानों की आत्महत्या पर तो बात कर लेते हैं, उनकी पीड़ा और परेशानियों का जिक्र भी मीडिया के साथ-साथ राजनीतिक व सामाजिक हलकों में होता रहता है, लेकिन कारोबारियों की परेशानियों पर उस तरह से बात बहुत ही कम होती है। हम शायद यह मानकर चल लेते हैं कि हर कारोबारी चोर है और उसने गरीबों, कमजोर लोगों और वंचितों का खून चूसकर अपना साम्राज्य खड़ा किया है। और इसी मानसिकता के चलते इस तरह की घटनाओं पर हमारी बहुत सतही टिप्पणी होती है- ‘दूसरों का खून पीने वालों का अंजाम ऐसा ही होता है…’
लेकिन हर मामला एक जैसा नहीं होता। मैं फिर इस बात को दोहरा रहा हूं कि सीसीडी के मालिक सिद्धार्थ की मौत क्यों व किन कारणों से हुई उनकी तफसील आना अभी बाकी है, हमें किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले उस तमाम ब्योरे का इंतजार करना होगा। पर एक काम है जो हमें उस ब्योरे का इंतजार करते हुए भी करना चाहिए। वो ये कि हम खुद उन परिस्थितियों के बारे में पता लगाएं, उन पर गंभीरता से बात करें कि आखिर देश की खेती-किसानी के साथ-साथ देश का कारोबारी या उद्यमी भी क्यों मौत को गले लगाने पर मजबूर हो रहा है?
क्या ये स्थितियां इस बात की ओर इंगित नहीं करतीं कि हमारी आर्थिक नीतियों में कोई तो खोट जरूर है, जो न तो खेती को जिंदा रहने दे पा रही हैं और न ही उद्योग और कारोबार को। हम कागजों पर बहुत सुनहरी आर्थिक इबारतें लिखकर इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाने की होड़ में लगे हैं, लेकिन उस इबारत के सुनहरे रंग के नीचे जो काला रंग छिपा है, उस पर बात नहीं करना चाहते।
यह कहते हुए बहुत बुरा लग रहा है, लेकिन वी.जी. सिद्धार्थ की मौत वास्तव में ‘अलार्मिंग बेल’ है जिसने देश के एक बड़े कारोबारी को खोने के साथ ही हमें अपनी समूची अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा पर सोचने का अवसर भी दिया है। कायदे से सरकार को इस मौत की उच्च स्तरीय और बहुआयामी जांच करवानी चाहिए। इस जांच में सीबीआई जैसी एजेंसियों के लोग तो हों ही, साथ ही आर्थिक, औद्योगिक और नीति जगत से जुड़े विशेषज्ञ भी हों, जो सिद्धार्थ की मौत से जुड़े समूचे परिदृश्य का आकलन कर यह बताएं कि आखिर हम से चूक कहां हो रही है। आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों में वे कौन से कारण हैं जो हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद को घुन की तरह खा रहे हैं। वे कौनसी परिस्थितियां हैं जो लोगों को कारोबार से विमुख करते हुए आत्महत्या तक के लिए मजबूर कर रही हैं।
ध्यान रखें, हमने 2024 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा है। पर क्या मरती खेती और मरते कारोबार के साथ हम यह लक्ष्य पूरा कर पाएंगे?