भारतीय संसद ने 30 जुलाई को तीन तलाक बिल के नाम से चर्चित जिस ‘मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2019′ को बहुमत से पारित किया है, उसे लेकर विपक्षी दलों की राय और इसके कुछ प्रावधानों पर सरकार से उनके मतभेद होने के बावजूद, इस बिल को किसी भी सूरत में प्रतिगामी कदम नहीं माना जा सकता। यह बिल समय की मांग था और संसद ने इसे पारित करके महिला अधिकारों के संरक्षण की दिशा में बड़ा कदम उठाया है।
इस बिल को लेकर दो तरह की बातें हो रही हैं। पहली इसके कुछ ऐसे प्रावधानों के बारे में है जिन्हें विपक्ष लगातार उठा रहा है। उसकी सबसे बडी आपत्ति तलाक देने वाले पति को जेल भेजने के मामले पर है और विपक्षी सांसदों का कहना है कि यदि पति को जेल भेज दिया जाएगा तो पत्नी को गुजारा भत्ता कौन व कैसे देगा? इससे तो राहत मिलने के बजाय पत्नी की और दुर्गति होगी। विपक्ष की इस आपत्ति का सरकार के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं है और हो सकता है कि आने वाले दिनों में सरकार इसके लिए कोई सामधान लाए और इस बिल में संशोधन किया जाए।
लेकिन इस बिल को लेकर महिलाओं की क्या प्रतिक्रिया है, मैं वह आपसे शेयर करना चाहता हूं। मैंने बिल पास होने के बाद इसके बारे में कुछ महिलाओं के बीच हो रहा संवाद सुना (टीवी पर नहीं) उनके बीच भी चर्चा के दौरान किसी ने यह सवाल उठाया कि जब पति को जेल हो जाएगी तो पत्नी का गुजारा कैसे होगा? उसी समूह में से इस सवाल का जवाब आया- तो अभी कौनसा गुजारा मिल जाता है, अभी भी तो धक्के ही खाना पड़ते हैं ना…।
बात यहीं खत्म नहीं हुई। इसके बाद उन महिलाओं की बातचीत में जो कहा गया उसे बहुत गहराई से समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा- ‘’जिंदगी तो पहले भी हराम होती थी, और हो सकता है अब भी वैसी ही रहे, लेकिन तीन तलाक देने वाले शौहर को कम से कम उसके किए की सजा तो मिलेगी। वरना पहले तो वह छोड़ भी देता था और सीना तानकर छुट्टा घूमता रहता था।‘’ यानी महिलाओं में सबसे ज्यादा संतोष इस बात का है कि अब कम से कम उस शौहर को सजा तो मिलेगी जो उनके साथ अन्याय करेगा।
इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार जो बिल लेकर आई है वह महिलाओं को कोई अधिकार दे या न दे, उनके जीवन के कष्ट कम हों या न हों, लेकिन वे इस बात से खुश हैं कि उन पर अत्याचार करने वाले को अब सजा होगी। अब इससे आप अंदाज लगाइए कि पीड़ा और खुद पर होने वाले अत्याचार को लेकर महिलाओं के भीतर कैसा लावा खदबदा रहा है। उन्हें अपने भविष्य की चिंता से ज्यादा इस बात का संतोष है कि उनके साथ अन्याय करने वाले को अब कम से कम उसके किए का अंजाम तो भुगतना पड़ेगा।
मामले का दूसरा पहलू राजनीतिक है। ऐसा नहीं है कि विपक्षी दलों को मुसलिम महिलाओं के साथ हो रहे इस अन्याय और अत्याचार की जानकारी नहीं है। उन्हें भी सब पता है और वे भी सारी बातें समझ रहे हैं। लेकिन उनकी दुविधा अपनी राजनीतिक जमीन को लेकर है। विडंबना यह है कि चाहे कोई भी पक्ष हो उसने इस मामले को अन्याय, अत्याचार के अलावा स्त्री-पुरुष के दृष्टिकोण से ज्यादा देखा है। मोटे तौर पर इसमें सत्तारूढ़ भाजपा जहां स्त्री पक्ष के साथ खड़ी नजर आई, वहीं विपक्षी दल पुरुष पक्ष के साथ।
तीन तलाक बिल के पास हो जाने के बाद, उसे लेकर तमाम सराहनाओं और आलोचनाओं के बीच इस गंभीर संकेत को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक तौर पर होने वाले किसी अन्याय को भी जेंडर के चश्मे से देख रही है। यह ट्रेंड बहुत खतरनाक है। भारतीय समाज वैसे भी पहले से ही बहुत विभाजित है। ऐसे में यदि जेंडर आधारित विभाजन हुआ तो बहुत मुश्किल होगी। क्योंकि जाति, धर्म, वर्ग आदि के आधार पर विभाजन को तो एक बार समाज झेल भी सकता है, लेकिन स्त्री–पुरुष जैसे विभाजन को कतई नहीं।
रही बात विपक्षी दलों के रवैये और राज्यसभा में उनकी रणनीति की, तो ऐसा लगता है कि गैर भाजपा दल अब ‘पॉलिटिकल पैरालिसिस’ का शिकार होते जा रहे हैं। भाजपा ने उन्हें ऐसी दशा में ला खड़ा किया है कि उन्हें सूझ ही नहीं रहा कि क्या करें और क्या न करें। तीन तलाक बिल विपक्षी दलों के सामने एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई की तरह था। यही कारण रहा कि सदन में बिल पर बहस के समय और सदन के बाहर भी, उसका विरोध करने वाले ज्यादातर दल, मतदान के दौरान अनुपस्थित रहे।
राज्यसभा में संख्याबल की जो स्थिति है उसे देखते हुए सरकार के लिए इस बिल को पास करवाना बहुत मुश्किल होना चाहिए था। लेकिन सरकार इसे आसानी से पास करवा ले गई। वो इसलिए कि विपक्ष तय ही नहीं कर पाया कि मौखिक विरोध के साथ साथ क्या उसे मतदान के दौरान भी इसका विरोध करना है या नहीं। ऐसा लगा कि वह दोनों हाथ में लड्डू रखना चाहता था। बहस के समय विरोध करके उसने मुसलिम समाज के पुरुषों को बताया कि वो उनके साथ खड़ा है और मतदान से अनुपस्थित रहकर उसने यह दिखाने की भी कोशिश की कि वह महिलाओं के विरोध में भी नहीं है।
शायद इसी दुविधा के चलते संसद में बिल पास होने के अगले दिन यानी 31 जुलाई को राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद और तृणमूल कांग्रेस नेता डेरेक ओ ब्रायन सहित कुछ विपक्षी नेताओं ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सरकार पर यह आरोप लगाया कि उसने छल-कपट के जरिये यह बिल पास करवा लिया। आजाद का कहना है कि सरकार ने पहले इस बिल को सिलेक्ट कमेटी में भेजने पर हामी भरी थी, लेकिन विपक्ष को बगैर विश्वास में लिए वह सदन में यह बिल लेकर आ गई।
यदि ऐसा हुआ है तो यह मामला वैसे गंभीर है, लेकिन दूसरी तरफ यह विपक्षी दलों की उसी स्थिति का परिचायक भी है जिसे मैंने ‘पॉलिटिकल पैरालिसिस’ कहा है। आखिर विपक्ष इतने बड़े मुद्दे पर इतना लापरवाह कैसे हो सकता है कि सरकार बिल लेकर आ जाए और उसे पता ही न चले। देश अब बच्चा नहीं रहा जो यह मान ले कि सरकार चुपके से संसद में बिल ले आई, वह सदन में आपके जुबानी विरोध को भी मंजूर कर ले और मतदान के समय आपके सदन से गैर हाजिर हो जाने को भी…
दरअसल भाजपा ने भारतीय राजनीति को जिस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है वहां अब विपक्ष के पास दो नावों में सवार रहने की गुंजाइश नहीं बची है। यह राजनीति का वह दौर है जब आपको एक नाव तय करना होगी। और हां, यह भी देख लेना होगा कि जो नाव आप अपने लिए तय कर रहे हैं उसमें कोई छेद तो नहीं है?