जब भी किसी सरकारी या सार्वजनिक उपक्रम के निजीकरण अथवा उसमें निजी भागीदारी की बात आती है, इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका जमीन की होती है। अमूमन सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के पास काफी बड़ी जमीन होती है, कई बार ऐसी कई एकड़ जमीन यूं ही पड़ी रहती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब इन सार्वजनिक उपक्रमों का गठन किया गया था तब उन्हें यह सोचते हुए बहुत सारी जमीन दी गई थी कि भविष्य में यदि वे अपनी गतिविधियों का विस्तार करना चाहें तो उसके लिए उनके पास पर्याप्त जमीन हो।
जिस समय यह जमीन इन उपक्रमों को दी गई थी उस समय इसकी कीमत भले ही नाममात्र की रही हो लेकिन आज यह अरबों रुपए की जमीन है। मुझे ठीक ठीक आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं हो सका लेकिन 30 अक्टूबर 2017 को हिन्दुस्तान टाइम्स ने एक रिपोर्ट छापी थी जिसके मुताबिक भारत सरकार के पास उस समय तक हो सकी गणना के अनुसार 13505.44 वर्ग किमी जमीन थी। जमीनों का यह आंकड़ा भी अधूरा था क्योंकि इसमें तत्कालीन 51 सरकारी विभागों में से सिर्फ 41 और 300 सार्वजनिक उपक्रमों में से सिर्फ 22 के बारे में ही जानकारी उपलब्ध हो पाई थी।
यानी जमीन के रूप में सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों के पास अरबों रुपए का खजाना उपलब्ध है। सरकार जब भी किसी उपक्रम के निजीकरण की बात करती है, सबसे ज्यादा निशाने पर यह जमीन ही होती है। कथित ‘विशेषज्ञ’ कमेटियां भी ज्यादातर मामलों में यही सुझाव देती हैं कि अनुपयोगी पड़ी जमीन को बेचकर या लीज पर देकर उपक्रम के घाटे की भरपाई की जा सकती है।
मुझे समझ में नहीं आता कि जिस सुझाव में टके भर का भी दिमाग लगाना जरूरी न हो उसके लिए ‘विशेषज्ञों’ की मदद लेने की क्या जरूरत है। कर्जा चुकाने के लिए घर के गहने या बर्तन-भांडे बेचने जैसा सुझाव तो कोई साधारण आदमी भी दे सकता है। ज्यादातर मामलों में बहुत ही ‘प्राइम लोकेशन’ वाली ऐसी जमीनें या संपत्तियां निजी क्षेत्र को या तो लीज पर दे दी जाती है या बेच दी जाती है। बीएसएनएल को लेकर गठित सैम पित्रोदा कमेटी ने भी जो सुझाव दिए थे उनमें एक ‘महान’ सुझाव यह भी था कि कंपनी अपनी जमीन और रियल एस्टेट संपत्ति को लेकर एक अलग सहायक उपक्रम की स्थापना करे।
ऐसे में मुझे आश्चर्य हुआ जब यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मंगलवार को संसद में सरकार पर आरोप लगाया कि वह रेलवे की बहुमूल्य संपत्तियां ‘कौड़ियों के दाम’ बेचने जा रही है। उनका कहना था कि सरकार ने निगमीकरण के प्रयोग के लिए रायबरेली के माडर्न कोच कारखाने जैसी बेहद कामायाब परियोजना को चुना है। बकौल सोनिया निगमीकरण की यह पहल दरअसल निजीकरण की शुरुआत है।
लेकिन सोनिया गांधी शायद भूल गईं कि रेलवे की जमीन और अन्य अनुपयोगी संपत्तियों को लीज पर देने या उन्हें बेच कर पैसा जुटाने का विचार तो संप्रग सरकार के दौरान लालू यादव के रेल मंत्री रहते भी आया था और ममता बैनर्जी के मंत्री रहते भी। लालू यादव ने 2008-09 के रेल बजट में कहा भी था कि रेल भूमि विकास अधिकरण ने रेलवे की सरप्लस जमीन के व्यावसायिक उपयोग से 4000 करोड़ रुपए अर्जित करने का लक्ष्य रखा है।
सोनिया गांधी के भाषण के कुछ और बिंदु ध्यान देने लायक हैं। उन्होंने संसद में कहा- ‘’इस कारखाने में बुनियादी क्षमता से ज्यादा उत्पादन होता है। यह भारतीय रेलवे का सबसे आधुनिक कारखाना है। सबसे अच्छी इकाइयों में से एक है। सबसे बेहतर और सस्ते कोच बनाने के लिए मशहूर है। दुख की बात है कि इस कारखाने में काम करने वाले 2000 से अधिक मजदूरों और कर्मचारियों और उनके परिवारों का भविष्य संकट में है। समझना मुश्किल है कि सरकार क्यों ऐसी औद्योगिक इकाई का निगमीकरण करना चाहती है।‘’
लेकिन यहां पर फिर याद कीजिए बीएसएनएल को लेकर सैम पित्रोदा कमेटी का वो अंश जिसमें उन्होंने कंपनी के करीब एक लाख कर्मचारियों को रिटायर करने अथवा उनका तबादला करने का सुझाव दिया था। दरअसल निजीकरण से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या ऐसे उपक्रमों में काम करने वालों की छंटनी की है। जब भी निजीकरण होता है बड़े पैमाने पर लोग निकाले जाते हैं या ‘स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति’ के विकल्प के जरिये हलाल कर दिए जाते हैं।
कांग्रेस आज संसद में कह रही है- ‘’सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (पीएसयू) का बुनियादी उद्देश्य लोक कल्याण है, निजी पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना नहीं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पीएसयू को आधुनिक भारत का मंदिर कहा था। आज यह देखकर अफसोस होता है कि इस तरह के ज्यादातर ‘मंदिर’ खतरे में हैं। मुनाफे के बावजूद कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दिया जा रहा और कुछ खास पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए उन्हें संकट में डाल दिया गया है।‘’
यहां 30 अक्टूबर 2017 में हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी रिपोर्ट को याद करना जरूरी है जिसमें कहा गया था कि 2012 में पूर्व वित्त सचिव विजय केलकर की कमेटी ने सिफारिश की थी कि सरकार की अनुपयोगी या अल्प उपयोगी जमीन के जरिये पूंजी खड़ी की जाए। इस पूंजी से शहरी क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं का संचालन हो। रिपोर्ट में उस समय बताया गया था कि महाराष्ट्र और गुजरात जैसे कुछ राज्यों ने तो ऐसी जमीनें निजी क्षेत्र को लीज पर देकर फंड जुटाना शुरू भी कर दिया है।
मतलब यही कि सरकारें चाहे जो रही हों, उदारीकरण या वैश्वीकरण को बढ़ावा देने का दौर शुरू होने के बाद से ही सार्वजनिक उपक्रमों और उनकी परिसंपत्तियों को खुर्दबुर्द करने में लगी हैं। इकॉनामिक टाइम्स की 31 जुलाई 2018 की रिपोर्ट खुलासा करती है कि सरकार ने घाटे में चल रही ऐसी सभी इकाइयों के पास पड़ी जमीन को लेकर एक लैंड पूल बनाने और उसका व्यावसायिक उपयोग करने की प्रक्रिया शुरू की है।
इसी रिपोर्ट में बताया गया था कि मोदी सरकार ने घाटे में चल रहे ऐसे 30 केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम चिह्नित किए हैं। जून 2018 में इनमें से आधा दर्जन को बंद करने की केबिनेट से मंजूरी भी मिल चुकी है। ऐसे उपक्रमों में हिन्दुस्तान केबल, टायर कॉरपोरेशन, एचएमटी वॉच, बर्ड्स जूट एंड एक्सपोर्ट और सेंट्रल इंडिया वाटर ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन शामिल हैं। अमेरिका से आए अरविंद पनगडि़या के बयान पर विश्वास करें तो पिछले एक साल में ही ऐसे उपक्रमों की संख्या चौगुनी (24) हो गई है।