कहीं यह अमेरिकी घुसपैठ कराने की चाल तो नहीं?

पिछले कई सालों से सरकारें सार्वजनिक उपक्रमों से हटकर निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने संबंधी नीतियों की ओर जा जरूर रही हैं, लेकिन निजी क्षेत्र की हालत भी कोई अच्‍छी नहीं है। हजारों करोड़ रुपए के टर्नओवर वाली कंपनियां तक अपने कारोबार का दायरा कम करने पर मजबूर हुई हैं और इस प्रक्रिया के दौरान लाखों लोगों को बेरोजगार होना पड़ा है। फिर चाहे वो नरेश गोयल की जेट एयरवेज का मामला हो या अनिल अंबानी की आर-कॉम का।

ऐसे में सवाल उठना स्‍वाभाविक है कि सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र को खत्‍म कर निजी क्षेत्र को स्‍थापित करने के दौरान क्‍या सचमुच हम देश के आर्थिक ढांचे की मजबूती की ओर बढ़ रहे हैं या फिर किसी ऐसे ‘ब्‍लैक होल’ की तरफ जिसमें जाने का परिणाम क्‍या होगा, यह हमें खुद ही मालूम नहीं है। यह सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश से रकम जुटाने भर का ही मामला नहीं है, सवाल यह भी है कि उस विनिवेश से आने वाली राशि का आगे उपयोग क्‍या हो रहा है। क्‍या उससे रोजगार देने वाले नए उद्यम खड़े किए जा रहे हैं या फिर उस राशि का इस्‍तेमाल सरकार अपना घाटा कम दिखाने के लिए कर रही है।

यदि विनिवेश का उद्देश्‍य राजकोषीय घाटे को कम दिखाना है तो यह खेल बहुत खतरनाक है। क्‍योंकि दुधारी तलवार की तरह एक तो यह हमारी सार्वजनिक पूंजी और परिसंपत्तियों को खत्‍म कर रहा है और दूसरी तरफ नए उद्यमों एवं रोजगार का सृजन भी नहीं कर पा रहा है। इसका असर फौरी तौर पर सिर्फ सेंसेक्‍स में दिख जाने को ही हम देश के आर्थिक रूप से मजबूत हो जाने का पैमाना न मानें।

‘बिजनेस लाइन’ ने 20 जनवरी 2019 को एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि केंद्र सरकार के अधीन 444 सार्वजनिक उपक्रम हैं जिनमें करीब 15 लाख करोड़ रुपए की पूंजी लगी है। इसी तरह राज्‍यों ने अपने स्‍तर पर जो सार्वजनिक उपक्रम बना रखे हैं उनमें लगभग 14.6 लाख रुपए का निवेश कर रखा है। राज्‍यों के इन उपक्रमों में से 1136 क्रियाशील हैं जबकि 319 बंद पड़े हैं।

इस रिपोर्ट के मुताबिक केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों ने वर्ष 2016-17 में 1.3 लाख रुपए का मुनाफा कमाया था और 11.31 लाख लोगों को रोजगार देने के साथ साथ करों, शुल्‍कों और डिविडेंड के रूप में 3.86 लाख रुपए की राशि का भुगातन किया था। जहां तक राज्‍यों के उपक्रमों का सवाल है ऐसी 1136 क्रियाशील इकाइयों ने 2016-17 में 84000 करोड़ रुपए का घाटा दिखाया था। 17.3 लाख कर्मचारियों वाले इन उपक्रमों का समग्र घाटा 4.65 लाख करोड़ था। राज्‍यों की ऐसी कई इकाइयां तो 25 साल से भी अधिक समय से बंद पड़ी हैं।

दरअसल सार्वजनिक उपक्रम हों या निजी उद्यम दोनों अपनी-अपनी जगह अलग-अलग कारणों से कुप्रबंधन का शिकार हैं। सार्वजनिक उपक्रमों को जहां राजनीतिक दलों ने दोहन का साधन मान कर, उनका हर तरह से दुरुपयोग करते हुए उन्‍हें बरबाद कर दिया, वहीं निजी उद्यमों ने भी दोहन और शोषण तो सरकारी तंत्र और सार्वजनिक धन का ही किया है। आज बैंकों का जो लाखों करोड़ रुपया एनपीए हो गया है, उसमें मुख्‍य भूमिका सरकारी माल से मलाई खाने की नीयत रखने वाले ऐसे ही निजी उद्यमियों की है। बिजनेस स्‍टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार बैंकों का जो एनपीए 2017 की अंतिम तिमाही में 8.86 ट्रिलियन था वो 2018 की पहली तिमाही में बढ़कर 10.25 ट्रिलियन रुपए हो गया।

हालांकि मोदी सरकार ने बढ़ते एनपीए पर काबू करने के लिए अपने पहले कार्यकाल में कई उपाय किए, जिनमें दिवालिया कानून में संशोधन करने से लेकर फर्जी कंपनियों पर लगाम कसने और उनका रजिस्‍ट्रेशन रद्द करने जैसे कदम शामिल हैं। लेकिन इसके बावजूद बैंकों की मुसीबतें कम नहीं हुई हैं। उनका हजारों करोड़ रुपया अभी तक या तो डूबत खाते में है या फिर कानूनी पेचों में उलझा हुआ है।

ऐसे में निजीकरण को आंख मूंदकर बढ़ावा देने संबंधी नीति अपनाना भी कोई समझदारी नहीं है। पर जमीनी हकीकत यह है कि यूपीए के सलाहकार भी निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे थे और एनडीए के सलाहकार भी वैसा ही कर रहे हैं। यानी सरकार कोई भी हो बाजार का शिकंजा और ज्‍यादा कसता जा रहा है। ऐसे में जब निर्मला सीतारमन जाकर मनमोहनसिंह से मुलाकात करती हैं, तो सहज ही सवाल उठता है कि वे वहां नाश्‍ता करने या चाय पीने भर के लिए तो नहीं ही गई होंगी। निश्चित रूप से यह मुलाकात बजट के सिलसिले में हुई होगी और इसमें अमेरिका के साथ व्‍यापार को लेकर आ रही उलझनें भी एक विषय रही होंगी।

मैं किसी की निष्‍ठा पर सवाल नहीं उठा रहा और न ही किसी पर कोई आरोप लगा रहा हूं, लेकिन एक बात जरूर मन में आती है कि ये ‘अमेरिकन भारतीय’, प्रवासी पक्षियों की तरह हमारे यहां आते हैं, कुछ दिन तो गुजारिये भारत में की तर्ज पर यहां चंद दिन रहते हैं और फिर से अपनी ‘अकादमिक’ दुनिया में लौट जाते हैं। हो सकता है यह सिर्फ संयोग भर हो लेकिन अजीब संयोग है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन भी अकादमिक दुनिया में लौटने की बात करते हैं तो अरविंद पनगडि़या भी और अरविंद सुब्रमण्‍यन भी। और यह ‘अकादमिक दुनिया’ भी भारत की नहीं होती, वह अमेरिका या किसी पश्चिमी अथवा यूरोपीय देश की होती है।

ऐसे में यह क्‍यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्‍या ये लोग भारत या भारतीय हितों को ध्‍यान में रखकर किसी असाइनमेंट पर यहां आते हैं, या किसी देश के ‘थिंक टैंक’ की ओर से यहां भिजवाए जाते हैं। या फिर हम इन्‍हें किसी अन्‍य कारण या दबाव के चलते इन्‍हें इस तरह के असाइनमेंट पर बुलाते हैं। भारत में आर्थिकी से जुड़े अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण पद पर रहने से इनके पास देश के आर्थिक परिदृश्‍य की हर बारीक जानकारी होती है और जब ये लौटकर निजीकरण या भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में आमूल परिवर्तन की बात करते हैं, तो पूछने का मन करता है कि कहीं इस निजीकरण का असली अर्थ भारत के सार्वजनिक उपक्रमों को पिछले दरवाजे से अमेरिकी कंपनियों के हाथों अधिग्रहीत करवा देने का तो नहीं है?

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