रमेशरंजन त्रिपाठी

ट्रेन के अनारक्षित डिब्बे में बैठे सुदेव के बगल में बाप-बेटे लगने वाले दो लोग आकर बैठ गए। सुदेव ने यूं ही पूछ लिया- ‘कहां जा रहे हैं?’

‘हम अपने गांव लौट रहे हैं।’ उम्र में बड़े व्यक्ति ने जवाब दिया- ‘इस शहर में बेटे का इलाज कराने आए थे।’

सुदेव का अनुमान सही निकला। दोनों पिता-पुत्र थे।

‘क्या तकलीफ थी?’ सुदेव ने औपचारिकतावश पूछा।

‘कैंसर था।’ पिता बोला- ‘तीन महीने लगे। मर्ज की पहली स्टेज थी, इसलिए बेटा बच गया।’

सुदेव ने देखा, पिता के चेहरे पर संतोष और उम्मीद के भाव थे। कैंसर का इलाज कराने के बाद जनरल बोगी में सफर करनेवाले पिता के चेहरे पर चिंता और पीड़ा की लकीरें न देख सुदेव की उत्सुकता जागी। उसने पूछना जारी रखा- ‘कितना खर्च आया होगा?’

पिता ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया तो बेटे से नहीं रहा गया- ‘अंकल, हम सड़क पर आ गए हैं। मेरे इलाज में गांव की खेती, मकान, मां के जेवर सब बिक गए।’

‘अब क्या करेंगे?’ सुदेव के मुंह से निकल गया।

‘घर में पंद्रह दिन रहने की इजाजत मिली है।’ बेटे ने बताया-‘इतने समय में कहीं झोपड़ी बना लेंगे और मजदूरी शुरू करेंगे।’

‘आप तो सब कुछ गंवा कर जा रहे हैं।’ सुदेव के स्वर में हमदर्दी टपक रही थी।

पिता ने थोड़ा आश्चर्य से सुदेव को निहारा, फिर गंभीर स्वर में बोला- ‘हम आप जैसे होशियार नहीं हैं, इसलिए हिसाब लगाने में कमजोर हैं। परंतु इतना तो कहेंगे कि आपकी दृष्टि में कुछ कमी अवश्य है।’ इस बात पर सुदेव के चेहरे पर नापसंदगी के भाव देख पिता ने समझाया- ‘आप हमारे साथ घटे घटनाक्रम का एक ही पहलू देख रहे हैं।’

‘मैं समझा नहीं।’ सुदेव की उलझन कम नहीं हो रही थी।

‘आप यह नहीं देख पा रहे कि हम अपने साथ क्या ले जा रहे हैं?’ पिता के चेहरे पर गंभीरता का साथ देने मुस्कुराहट भी आ गई थी- ‘हमने यदि प्रॉपर्टी गंवाई है तो बेटे को पाया भी है। बेटा न रहता तो दौलत को सहेजकर, मकान निहारकर या फसल उगाकर क्या करते? पैसे का क्या है? फिर कमा लेंगे।’

सुदेव से कुछ कहते नहीं बन रहा था। उसे अपने मनोभावों को स्वयं समझ पाना कठिन हो रहा था।

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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