पराजित पिता
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जब तक तुम समर्थ थे
परिवार के लिए थे
सर्दियों में स्वेटर
गर्मियों में अंगोछा
भूख में बटलोई की खिचड़ी।
अपने छोटी गुंजाइशो में
शांत,अडोल और
कठोर अनुशासित।
कोई पारदर्शी चीज़
साफ चमकती थी
तुम्हारी आँखों में,
तुम्हारे आखिरी समय तक
शायद अच्छाई,साहस या ईमानदारी।
जीवन भर
चट्टान की तरह रहे तुम
अबूझ और कठिन
मगर भीतर ही भीतर
बहा जिसमें
मीठे पानी का ठंडा सोता।
तुमने कहा,
“सर्वे भवन्तु सुखिनः।”
और परिवार में
सब दुखी रहे तुमसे।
तुमने कहा,
“सन्तोषस्य सुखम”
और असंतोषी परिवार ने
तुम्हें टांग दिया
पुराने फ्रेम में जड़कर खूंटी पर।
तुमने कहा,
“सह ना ववतु, सह नौ भुनक्तु”
और सब तुम्हे छोड़
बढ़ लिए आगे।
तुम्हें स्वीकार नहीं थी संधि
पर तुम
कोई राजा महान तो थे नहीं,
न ही था तुम्हारे पास
चक्रवर्ती घोड़ा
या षडयंत्रो के अस्त्र शस्त्र
इसलिए तुम बुरी तरह हारे
अपने ही सिपाहियों से।
सबने बहुत जल्दी पहचान ली
तुम्हारे पंखों की
चुकी ताक़त,
चोंच का भोथरापन,
तुम्हारा निर्बल क्रोध।
झूठ के इस मेले में
अपने सच को लिए
तुम ठगे से खड़े रह गए।
अपनी बनाई दुनिया मे
अपनों से ही आतंकित
और बुरी तरह पराजित
मेरे पिता ।
– रक्षा दुबे चौबे की फेसबुक वॉल से