राकेश दुबे
उत्तराखंड के जोशीमठ में जमीन दरकने से सैकड़ों घरों, होटलों व अन्य प्रतिष्ठानों में बड़ी दरारें पड़ गई हैं। इस स्थिति के उपरांत वहां हालात चिंताजनक बने हुए हैं। इस गंभीर विषय पर प्रधानमंत्री कार्यालय में रविवार को एक महत्वपूर्ण बैठक हुई। प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव डॉ. पी. के. मिश्रा ने पीएमओ में कैबिनेट सचिव और भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों तथा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के सदस्यों के साथ जोशीमठ के हालात को लेकर एक उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक भी की। पर्यावरण पर आश्रित इस राज्य में पर्यावरण कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। शायद इसकी वजह यह रही कि नेताओं ने पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं।
तेजी से होते शहरीकरण और अंधाधुंध विकास गतिविधियों ने पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील हिमालयी राज्य उत्तराखंड में खतरे की घंटा बजा दी है। गंगा और अन्य नदियों में प्रदूषण के कारण हिमालय की झीलें सूख रही हैं। मौसम में बदलाव की वजह से पक्षियों, तितलियों की तमाम प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं। दरकते पहाड़ के भूस्खलन के रूप में भरभरा कर नीचे गिरने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं और जंगल की आग तो जैसे आम बात हो गई है। खतरे के संकेत हर ओर से मिल रहे हैं। फिर भी अलग राज्य के तौर पर दो दशक का अंतराल बीतने के बाद देखें तो सियासत और पर्यावरण के बीच का रिश्ता आज भी टूटा हुआ ही है।
कुमाऊं क्षेत्र में सरकार की विकास योजनाओं के खिलाफ स्थानीय लोगों का विरोध-प्रदर्शन रोजमर्रा की बात हो गई है। सत्तल में स्थानीय लोग चिल्ड्रेन्स पार्क, पक्षी उद्यान, व्यूप्वाइंट वगैरह बनाने का विरोध कर रहे हैं। रियल एस्टेट विकास से जुड़ी गतिविधियों में धड़ल्ले से इस्तेमाल हुई जेसीबी मशीनों के कारण क्षेत्र की पारंपरिक वनस्पति और वन्य जीव के नष्ट हो जाने के तमाम मामलों के सामने आने के बाद चटोला के लोग विरोध प्रदर्शन के लिए कमर कस रहे हैं।
सर्वज्ञात तथ्य है कि पारंपरिक तरीके से जीवन-यापन कर रहे लोगों का जंगल के साथ अलग ही रिश्ता होता है। दोनों एक दूसरे को सहारा देते हैं, लेकिन यहाँ रियल एस्टेट डेवलपर ऊंची-ऊंची दीवारों और उस पर बिजली के तार लगाकर फाटक लगी रिहायशी कॉलोनी बनाने में मशगूल हैं। दिल्ली के लोग यहां प्रॉपर्टी खरीद रहे हैं। वे इसलिए पहाड़ों में नहीं आ रहे हैं कि उन्हें यहां का रहन-सहन पसंद है, पहाड़ों से लगाव है बल्कि इसलिए कि वे शहर के प्रदूषण से जान बचाकर भागना चाहते हैं।
उत्तराखंड में विकास हमेशा ही पर्यावरण पर भारी पड़ा है। भारतीय पैमाना बन गया है “जब भी विकास की कोई परियोजना चलेगी, सभी दल के हाथ में पैसे आएंगे।“ केंद्र के सामने दलील रखी गई है कि गंगोत्री क्षेत्र में और विकास परियोजनाएं चलनी चाहिए। आज गिनती के गैरसरकारी संगठन और चंद एक्टिविस्ट हैं जो पर्यावरण को वापस विमर्श में लाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन नेताओं की इन तर्कसंगत बातों को सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं। नेता तीन वजहों की आड़ में पर्यावरण से पल्ला झाड़ लेते हैं- धार्मिक भावना, सामरिक महत्व और विकास।
तथाकथित सामरिक कारणों से चार-लेन हाईवे बनाकर गढ़वाल क्षेत्र के संवेदनशील पर्यावरण को खतरे में डाला जा रहा है। कौन कहता है कि इस इलाके में चीन हम पर हमला करने वाला है? दूसरी ओर, चारधाम यात्रा को धार्मिक पर्यटन के रूप में पेश किया जा रहा है… यह और कुछ नहीं, बस धार्मिक भावनाओं को भुनाने का उपक्रम है।
मजेदार बात तो यह भी है कि इस यात्रा की स्थानीय अर्थव्यवस्था में कोई खास भूमिका भी नहीं है। लगातार दो साल आई आपदाओं ने बता दिया है कि नदियों के रास्ते में अवैध निर्माण कितना खतरनाक हो सकता है। उत्तराखंड को रियल एस्टेट डेवलपरों ने जैसे अगवा कर लिया है और रोजगार के मौके पैदा करने के और किसी भी तरीके पर विचार ही नहीं किया जा रहा है।
(मध्यमत)
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