हरीश पाठक
यह कैसी त्रास-कथा है कि हिंदी का एक मशहूर लेखक राजधानी दिल्ली के एक वृद्धाश्रम में जीवन के अंतिम क्षणों में निपट अकेला होता है। वह हर तरह की तकलीफों का सामना करता है पर पहचान बने अपने स्वाभिमान से अंत तक समझौता नहीं करता। तकलीफ, उपेक्षा, अकेलेपन, आर्थिक जर्जरता और अपनों की बेरुखी के बीच उसकी मृत्यु हो जाती है। वृद्धाश्रम का प्रबंधन उसका अंतिम संस्कार भी कर देता है, क्योंकि उसे वहाँ पुलिस लावारिस के तौर पर भर्ती करा कर गयी थी।
इस त्रास-कथा का अंतिम सिरा यह है कि जब सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र रवि उनका हाल लेने उस बृद्धाश्रम पहुँचे तो उन्हें बताया गया कि उनका तो निधन हो गया है। आज गयारह बजे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया है। यह तारीख 14 दिसम्बर थी। यह भी की 13 दिसम्बर को ही उस लेखक ने अपनी उम्र के 72 साल पूरे किए थे।
वृद्धाश्रम के प्रबंधन की बात पर रवि को यकीन ही नहीं हुआ। उन्होंने उनके पास से मिले कागजात देखे। आधार कार्ड पर लिखा था-जुगनू शारदेय। वे सन्न रह गए। फिर वे श्मशान पहुँचे। अंतिम प्रणाम किया और देर तक सन्नाटे में ही रहे। राजेन्द्र रवि की सूचना पर ही पूरे देश ने जाना कि हिंदी के एक मशहूर लेखक जुगनू शारदेय को नियति के क्रूर पंजे ने अपनी गिरफ्त में लिया और वह दक्ष लेखक, प्रतिबद्ध समाजवादी और निर्भीक पत्रकार बेबसी, लाचारी और निर्धनता के चलते उस खतरनाक पंजे से मुक्त न हो सका। हिंदी समाज सदैव की तरह तटस्थ ही रहा और वैचारिक प्रतिबद्धता से लैस वह रचनाकार धीरे-धीरे खत्म हो गया, कुछ सवालों की हम पर बौछार करते हुए।
जुगनू शारदेय हिंदी पत्रकारिता का वह जरूरी कालखण्ड है जहाँ विचार, विचारधारा, अक्खड़पन, निर्भीकता, तटस्थता और हर हाल में अपनी बात कहने की बेबाकी धड़कती है। आप उनसे असहमत हो सकते हैं, उनसे बहस कर सकते हैं, पर दबाव या तनाव से उन्हें झुका नहीं सकते। वे तर्कों से, तथ्यों से अपनी बात आपके सामने रखेंगे, रखते थे। आप उन बातों से इत्तफाक न रखें इसकी ताउम्र उन्होंने कभी चिंता की ही नहीं। स्पष्टवादिता और तनी रीढ़ उनकी पहचान थी। उनका यही गुण मुझ सहित तमाम हिंदी पत्रकारों को रिझाता था। वे कभी यह चिंता करते ही नहीं थे कि कौन उन्हें पसंद कर रहा है, कौन नहीं।
शायद यही वजह थी कि वे फणीश्वरनाथ रेणु के भी बहुत करीब थे और शिखर संपादक रघुवीर सहाय हों, डॉ. धर्मवीर भारती, गणेश मंत्री, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, विश्वनाथ सचदेव या उदयन शर्मा सभी उन्हें पसंद करते थे। वे सभी के पसंदीदा लेखक थे। लेखन ही उनकी आजीविका का साधन था। फिल्म और वन्य जीव उनके पसंदीदा विषय थे। वन्य जीवन पर उनकी किताब ‘मोहन प्यारे का सफेद दस्तावेज’ (2004) उनकी चर्चित और मेदिनी पुरस्कार से सम्मानित कृति है। ‘सोते रहो’ फिल्म का उन्होंने निर्माण किया पर वह पूरी न हो सकी। जंगल उनकी पहली पसंद थे। बांधवगढ़ व कान्हा नेशनल पार्क वे अक्सर जाते।
राजनीति में समाजवादी विचारधारा उनके करीब थी। वे किशन पटनायक के भी करीब थे, मधु लिमये के भी और मृणाल गोरे से भी उनके रिश्ते थे। झुकना, गिड़गिड़ाना, मांगना, याचक मुद्रा में खड़े रहना उनकी फितरत में नहीं था। बिहार की राजनीति के वे ज्ञाता थे। लालूप्रसाद यादव, नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी, शिवानंद तिवारी, हरिवंश से उनके याराना सम्बन्ध थे, पर इन रिश्तों को कभी उन्होंने भुनाया नहीं, जबकि चाहते तो वे ऐसा कर सकते थे।
उनकी बेबाकी मुझे बहुत पसंद आती थी। उनकी ‘दिनमान’ की रपटें मुझे बहुत प्रिय थीं। 1986 में मैं वाया दिल्ली-मुम्बई ‘धर्मयुग’ में आ गया। वे जब भी टाइम्स भवन आते सीधे सम्पादक से मिलते फिर वे डॉ. धर्मवीर भारती हों या गणेश मंत्री या विनोद तिवारी। बीच की कोई धारा नहीं।
वह साल 1987 था। मैं पहली बार प्रेस क्लब चुनाव जीता। अरसे बाद अंग्रेजी की बाहुल्यता वाले उस क्लब में हिंदी की आहट थी। लगभग रोज मैं वहां जाता। एक दिन क्लब में वे मेरे पास आये और बोले,”मेरा नाम जुगनू शारदेय है। मैं क्लब का मेम्बर नहीं हूँ। आप गेस्ट के तौर पर मेरी एंट्री करवा दें। पैसों की चिंता न करें। यह व्यवस्था हो सके तो आगे भी जारी करवा दें, क्योंकि मैं लगभग रोज यहाँ आता हूँ। आप पदाधिकारी हैं, यह करवा सकते हैं।”
यह मेरी उनसे पहली मुलाकात थी जो बाद में गहरी आत्मीयता में तब्दील हो गयी। उनसे लगभग रोज क्लब में मुलाकात होती। कभी सुदीप जी साथ होते, कभी कोई और। उनकी बातें साफ सुथरी। विचारों में स्पष्ट और ज्यादातर राजनीतिक। मैंने उन्हें हिंदी पत्रकार संघ का सदस्य भी बनाया। तब मैं उसका महासचिव था। वे सक्रिय भी रहे। चुनाव से ले कर कार्यक्रमों तक में। एक बार वे मेरे पास आ कर बोले, “क्या क्लब में सत्तू रखवाया जा सकता है ताकि बिहार के लोग यहां सत्तू खा सकें?” पर कार्यकारिणी ने इसकी इजाजत नहीं दी।
2008 में मैं पटना में ‘राष्ट्रीय सहारा’ का स्थानीय संपादक बन कर पहुँचा। उनका फोन आया। वे बोले, “आप एक्रेडिटेशन कमेटी के सदस्य हैं। वे बार बार मेरा फॉर्म रिजेक्ट कर देते हैं कुछ करवा दीजिए।” मीटिंग में जब उनका फार्म आया तो सूचना अधिकारी ने कहा,”ये बार बार मांगने पर भी कोई प्रमाण नहीं दे रहे।” मैं खड़ा हो गया। मैंने कहा,”जुगनू शारदेय वरिष्ठ पत्रकार हैं। हम सब उन्हें जानते हैं। आप क्या प्रमाण उनसे चाहते हैं?” मेरे समर्थन में अरुण कुमार पांडेय ओर प्रवीण बागी भी खड़े हो गये।
उनका एक्रेडिटेशन हो गया। दफ्तर आ कर मैंने उन्हें यह सूचना दी। वे कुछ देर चुप रहे फिर अचानक जोर से बोले,”क्या करूं? नीतीश कुमार के हाथ जोड़कर उन्हें धन्यवाद दूं?” मैं सन्नाटे में आ गया। मैंने कहा,”वे बीच में कहाँ हैं? आपने कहा, हो गया। सूचित कर रहा हूं।” मेरी समझ में यह बात अब तक नहीं आयी कि अचानक नीतीश कुमार पर वे क्यों चिल्ला रहे थे?
पर वे जुगनू शारदेय थे। अलग कर देना उनकी पहचान थी। अब खत्म हो रही है पत्रकारों की यह पीढ़ी। देर तक और दिनों तक याद आते रहेंगे जुगनू शारदेय। उनकी चमक कभी कमजोर नहीं पड़ेगी। आखिर जुगनू की चमक कमजोर कैसे पड़ सकती है?
(हरीश पाठक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार)