सुरेंद्रसिंह दांगी
“टाइगर है तभी तो जंगल है और जंगल है तभी तो बारिश है, बारिश है तो पानी है और पानी है तो इंसान है”
फ़िल्म का यह डायलॉग ‘शेरनी’ फ़िल्म की तासीर समझने में सहायक हो सकता है। जन, जंगल, जमीन, जानवर के सह-सम्बन्धों को दर्शाती यह फ़िल्म दरअसल फ़िल्म की परिभाषा में फ़िल्म है ही नहीं। देश-दुनिया में विकास के नाम पर जिस तरह जंगलों का सफ़ाया किया जा रहा है उसका दुष्प्रभाव जंगल पर आश्रित ‘जन’, ‘जानवर’ और स्वयं जंगल पर किस तरह से पड़ रहा है उसे यह फ़िल्म बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत करती है। निरन्तर कटते-घटते जंगलों के कारण इन पर आश्रित मनुष्यों और जानवरों की जान पर बन आई है। और वे ही इसकी कीमत भी चुकाते हैं। भ्रष्ट अधिकारी और राजनेता यह कीमत प्राप्त करते हैं।
फ़िल्म में देश की वस्त्रविहीन राजनीति को बख़ूबी प्रस्तुत किया गया है। राजनेताओं के लिये हर मुद्दा उनकी घृणित राजनीति को कायम रखने का अवसर मात्र है। वे लाशों पर भी राजनीति करते हैं। विद्या बालन, विजयराज, बृजेन्द्र काला सहित क्षणभर के लिये प्रस्तुत पात्र भी अपनी छाप छोड़ते हैं। फ़िल्म में जंगल स्वयं किरदार के रूप में प्रस्तुत हुआ है। फ़िल्म के लेखक, निर्देशक एवं फ़िल्म से किसी भी तरह से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति का हृदय से आभार एवं बधाई।
यदि आपकी रुचि देश-समाज, जन, जंगल, जमीन, जानवर में है तो यह फ़िल्म आपके लिये है। यदि सिर्फ मनोरंजन में ही रुचि है तो फिर अपना समय और धन बर्बाद न करें। हालाँकि एक बात यह भी है कि बगैर ऑक्सीजन के आप भी कितने रुपये गिन सकते हैं और कब तक??