राकेश अचल
मध्यप्रदेश भाजपा के एक कद्दावर और लोकप्रिय नेता (जो पूर्व मंत्री थे) श्री लक्ष्मीकांत शर्मा से मेरी गहन सहानुभूति है। लोगों को पुनर्जन्म का सुख हासिल होता है लेकिन लक्ष्मीकांत को पुनर्मृत्यु की पीड़ा हासिल हुई। वे कोरोना के कारण दिवंगत हुए लेकिन उनकी अपनी पार्टी तो उन्हें बहुत पहले ही मार चुकी थी। लक्ष्मीकांत शर्मा यदि दो बार न मरते तो वे आज शायद प्रदेश के मुख्यमंत्री होते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
भाजपा के पास लक्ष्मीकांत शर्मा जैसे सहज और लोकप्रिय नेता कम थे, लेकिन भाजपा ने उन्हें आगे बढ़ने से न सिर्फ रोका बल्कि उनकी असमय राजनीतिक और चारित्रिक ह्त्या भी कर-करा दी। शर्मा के प्रति कोई विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए सौ बार सोचेगा, क्योंकि लक्ष्मीकांत के दामन पर एक-दो नहीं अनेक दाग लगाए गए और दुर्भाग्य ये कि वे इन्हें साफ़ करने से पहले ही चल बसे। एक तरह से उन्हें कोरोना ने मोक्ष प्रदान कर दिया क्योंकि बीते छह साल से वे बेहद मानसिक यंत्रणाओं के बीच जी रहे थे।
मैं लक्ष्मीकांत शर्मा से अपनी निकटता का कोई दावा नहीं करता पर यकीनन ये हकीकत है कि वे दूसरे पत्रकारों की तरह मेरा बेहद सम्मान करते थे और एक अनुज की तरह मेरे चरण स्पर्श करने में भी संकोच नहीं करते थे। वे जब मंत्री थे और जब मंत्री नहीं थे तब भी उनके आचरण में कोई तबदीली नहीं आयी। आरक्षक भर्ती घोटाले के बाद व्यापमं घोटाले में उन्हें जेल यात्रा भी करना पड़ी, लेकिन उन्होंने कभी अपना मुंह नहीं खोला। यदि वे मुंह खोल देते तो पता नहीं कितने लोग बेनकाब होते। वे एक मामले में निर्दोष भी निकले लेकिन एक अन्य मामले में उन्हें न्याय की प्रतीक्षा थी। वे बदकिस्मत थे कि उनका नाम इंदौर के हनी ट्रेप काण्ड में भी उछाला गया।
हकीकत है या नहीं लेकिन मध्यप्रदेश में ये चर्चा हमेशा गर्म रही कि लक्ष्मीकांत को जानबूझकर विवादों की आग में जलाया गया क्योंकि वे तेजी से प्रदेश के एक ब्राह्मण नेता के साथ ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विकल्प के रूप में उभर रहे थे। भाजपा के जितने भी ब्राह्मण नेता हैं उनमें से एक डॉ. नरोत्तम मिश्रा को छोड़ सभी को एक-एक कर निपटाया गया। फिर चाहे वे अनूप मिश्रा हों या फिर गोपाल भार्गव। ये सूची लम्बी भी हो सकती है। बात लक्ष्मीकांत शर्मा की चल रही है। वे संघ दक्ष थे, 2015 से पहले अविवादित थे, लोकप्रिय इतने थे कि जीते ज्यादा हारे कम। हारे तो अपनी ही पार्टी के षड्यंत्रों से हारे, जनता ने उन्हें हमेशा सिर पर बैठाया।
भाजपा में कौन आगे रहे और कौन पीछे इसका कोई ख़ास पैमाना नहीं है। शर्मा जी ये हकीकत समझ नहीं पाए और फंसते चले गए। भाजपा जिसे बचाना चाहती है उसे ढाल बनकर बचा लेती है और जिसे निपटाना चाहती है उसे नितांत अकेला छोड़ देती है। लक्ष्मीकांत से पहले राघव जी भी इसी तरह एक आपराधिक मामले में फंसे और हमेशा के लिए दफन हो गए। अनूप मिश्रा भी हत्या के एक मामले में फंसकर समाप्त होते-होते बचे, उनका नसीब शायद अच्छा था। डॉ. नरोत्तम मिश्र तो अयोग्य घोषित होने के बावजूद पार्टी के संरक्षण की वजह से ऊपर तक से बचकर आ गए। उनका भी अपना नसीब था। लेकिन लक्ष्मीकांत शर्मा का नसीब खोटा निकला। उन्हें जीते हुए भी बार-बार मरना पड़ा।
बहरहाल लक्ष्मीकांत का कोरोना से निधन उन लोगों का दिल दुखा गया जो उन्हें चाहते थे। वे दोषी थे या निर्दोष इसका फैसला अदालत को करना था, जिसका मौक़ा नीयति ने उन्हें दिया नहीं। वे निर्दोष घोषित होने के पहले ही चले गए। अभी उनके जाने की उम्र नहीं थी। यदि वे साजिशन सक्रिय राजनीति से बाहर न किये जाते, उनका पिछले चुनाव में टिकिट न कटता तो मुमकिन है कि लक्ष्मीकांत शर्मा कुछ नया रचते। अब वे नहीं हैं। उनकी सदाशयता की खबरें हैं, उनका सरल व्यक्तित्व नजरों के सामने है। तय है कि पार्टी अब कभी भी उनकी, उनके योगदान की चर्चा नहीं करेगी, लेकिन मुझे लगता है कि उनकी आत्मा तब तक भटकती रहेगी जब तक कि उन्हें न्याय नहीं मिल जाता या उनकी चरित्र ह्त्या करने वालों को सजा नहीं मिल जातीं।
लक्ष्मीकांत शर्मा के साथ निजी प्रसंगों की चर्चा मैं जान-बूझकर नहीं कर रहा क्योंकि उनके करने या न करने से अब लक्ष्मीकांत वापस लौटने वाले नहीं हैं। मेरी उनके प्रति विनम्र श्रृद्धांजलि, मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा कि वो लक्ष्मीकांत जैसे नेताओं को दो-दो बार मरने की सजा न दे। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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