हिन्दी पत्रकारिता की आदि प्रतिज्ञा- ‘हिन्दुस्तानियों के हित के हेत’

-हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष-

विजयदत्त श्रीधर

आज 30 मई है। हिन्दी पत्रकारिता दिवस। सन 1826 की 30 मई को भारतीय पत्रकारिता की गंगोत्री कोलकाता से युगल किशोर शुक्ल ने हिन्दी के साप्ताहिक समाचारपत्र ‘उदन्त मार्त्तण्ड’ का प्रकाशन किया था। इसी से हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत हुई। युगल किशोर शुक्ल हिन्दी के प्रथम पत्रकार हैं। तब तक कोलकाता से ‘द बेंगाल गजट ऑर केलकटा जनरल एडवरटाइजर’ (अँगरेजी, 1780), ‘समाचार दर्पण’, ‘बंगाल गजट’ (बांग्ला, 1818), ‘जाम-ए-जहाँनुमा’ (उर्दू, 1822), ‘मिरात-उल अखबार’ (फारसी, 1822) का प्रकाशन होने लगा था। परन्तु हिन्दी का कोई पत्र नहीं निकला था। इस अभाव की पूर्ति कानपुर से कोलकाता पहुँचे युगल किशोर शुक्ल ने की।

‘उदन्त मार्त्तण्ड’ के प्रवेशांक में पत्र-प्रकाशन का उद्देश्य घोषित करते हुए, संपादक ने लिखा-‘‘यह उदन्त मार्त्तण्ड अब पहिले पहले हिन्दुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अँगरेजी ओ फारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओ पढ़ने वालों को ही होता है… देश के सत्य समाचार हिन्दुस्तानी लोग देख कर आप पढ़ ओ समझ लेंय ओ पराइ अपेक्षा जो अपने भावों के उपज न छोड़ें, इसलिये बड़े दयावान करुणा ओ गुणनि के निधान सबके कल्याण के विषय श्रीमान गवरनर जनेरेल बहादुर की आयस से अैसे साहस में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाठ ठाठा।’’ यह उद्देशिका बताती है कि ‘हिन्दुस्तानियों के हित के हेत’ और समाचारों के माध्यम से ‘अज्ञ जन को जानकार’ बनाना हिन्दी पत्रकारिता की आदि प्रतिज्ञा है।

विद्रूपों और विडम्बनाओं पर उँगली उठाना पत्रकारिता का काम है। इसके लिए भाँति भाँति की शैलियों का प्रयोग किया जाता है। ‘उदन्त मार्त्तण्ड’ ने एक वर्ष सात माह के जीवन में बारम्बार व्यवस्था की खोट पर चोट करते हुए पत्रकारी धर्म का निर्वाह किया है। ब्रिटिश हुकूमत की न्यायप्रणाली पर करारा कटाक्ष करते हुए पत्र ने लिखा- ‘‘एक यशी वकील वकालत का काम करते करते बुड्ढा होकर अपने दामाद को वह काम सौंप के आप सुचित हुआ। दामाद कई दिन वह काम करके एक दिन आया ओ प्रसन्न होकर बोला हे महराज आपने जो फलाने का पुराना ओ संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था सो आज फैसला हुआ। यह सुनकर वकील पछता करके बोला तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से हमारे बाप बढ़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठा के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा ओ अब तक भली भाँति अपना दिन काटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंप के समझा था तुम भी अपने बेटे पोते परोतों तक पलोगे पर तुम थोड़े से दिनों से उसको खो बैठे।’’ 195 साल बाद आज भी हालात कहाँ बहुत बदले हैं!

अब आएँ समकालीन पत्रकारिता पर। याद रहे कि पत्रकारिता न तो पक्ष है और न विपक्ष, वह सिर्फ और सिर्फ जनपक्ष है। उसका हेतु भी मनुष्य है, बेहतर मनुष्य। इसमें प्राणी और प्रकृति को शामिल कर लें तो फलक विहंगम हो जाता है। फिलहाल मिशन और प्रोफेशन का द्वन्द्व परे रखें। मूर्धन्य संपादक रामानन्द चटर्जी, बाबूराव विष्णु पराडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी की दूरदर्शी नसीहतों को भी भूल जाएँ। परन्तु कलम के पुरखे माखनलाल चतुर्वेदी की चेतावनी का क्या करें? ‘एक भारतीय आत्मा’ ने कहा था- ‘‘तुम्हारी कलम की कीमत लगेगी। बार-बार लगेगी। लेकिन जिस पल वह कीमत स्वीकार कर लोगे, हमेशा के लिए कलम की कीमत खो बैठोगे।’’

यह भी याद रखने की जरूरत है कि संविधान ने खबरपालिका को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की कोई मान्यता नहीं दी है। वस्तुतः यह लोकमान्यता है। लोकमान्यता अर्जित करना जितना कठिन होता है, उसे बरकरार रखना उससे भी ज्यादा कठिन होता है। पेड न्यूज के कलंक और बाजारवाद की गिरफ्त में आई पत्रकारिता के सामने विश्वसनीयता का संकट इसीलिए पैदा हो गया है।

पत्रकारिता में शहरी टापुओं के लिए ज्यादा चिंता, स्थान, समय और संसाधन लुटाए जा रहे हैं। राजनीति, सिनेमा, टेलीविजन, फैशन को वरीयता दी जाती है। समाज हित की दृष्टि से यह निरर्थक है, अनर्गल है। सब कुछ ‘इण्डिया’ पर न्योछावर और ‘भारत’ प्रायः उपेक्षित। जबकि पिछले आर्थिक संकट और हालिया कोरोना महामारी में ग्रामीण तथा कृषि अर्थव्यवस्था समाज का सहारा साबित हुई। परन्तु पत्रकारिता के फलक पर किसान और किसानी के लिए कितनी गुंजाइश है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएँ स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती दे सकती हैं। नगरों को ग्रामीण पलायन का नरक बनने से रोक सकती हैं।

ध्यान रहे, पत्रकारिता अपने आप में कोई स्वतंत्र विषयवस्तु नहीं। समाज में, दुनिया में चतुर्दिक जो घट रहा है, उसकी खबर लेना और खबर देना पत्रकारिता है। यह समाज को सूचित या खबरदार करने का कर्तव्य है। फिर व्याख्या-विश्लेषण हैं, जो शिक्षित करने वाली भूमिका है। स्वीकार्य और अस्वीकार्य की परख करने का विवेक जगाती है। तीसरा गुण लोकरंजन है, मनोरंजन नहीं; जो मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाने में भूमिका निभाता है। आज कोरोना और उससे उपजी समस्याओं तथा प्राप्त अनुभवों ने पत्रकारिता के सामने भी चुनौतियाँ खड़ी की हैं। हाँ, एक बात और, बाजार बुरी चीज नहीं है। बाजार हमेशा से रहा है और आगे भी रहेगा। परंतु सहायक और सेवक बनकर, स्वामी बनकर नहीं। बुरा है बाजारू होना अर्थात हवस और लालच का बढ़ना और मानवता का मरना।

महात्मा गांधी ने पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता को राक्षसी सभ्यता कहा है। कुछ गलत नहीं कहा है। वह सभ्यता वृत्ति और प्रवृत्ति में जंगल के न्याय को मानती है। बलवान को निर्बल को निगल जाने का हक देती है। इसीलिए पश्चिम की नकल में अपनाया गया हमारा विकास का मॉडल भी दूषित है। विनाशकारी है। इस मॉडल का नियोजक, नियंता बाजार है। बाजार का एकमात्र प्रयोजन मुनाफा है। नैतिकता को भी मुनाफे के आड़े आने की इजाजत नहीं। इस विकास मॉडल में सम्पन्न वर्ग उपभोक्ता है और निर्धन साधन है। समस्त प्रकृति कच्चा माल है। नदी, तालाब, झील, समुद्र, वन, वनस्पति, मिट्टी, पहाड़- सब कच्चा माल है। गांधीजी यह भी कहते थे-‘‘पृथ्वी सबकी जरूरत पूरी कर सकती है, पर किसी के लालच की नहीं।‘’

क्या पत्रकारिता इस सीख सिखावन पर ध्यान देगी कि सोने के ढेर सारे अंडों को एक ही बार में पाने के लालच में मुर्गी का पेट मत चीरो। वरना अंडे तो नहीं ही मिलेंगे, मुर्गी भी जान से चली जाएगी। क्या पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों और प्रकृति संरक्षण का संकल्प लेगी? जियो और जीने दो का वातावरण बनाएगी? क्या हिन्दी की आदि प्रतिज्ञा-‘हिन्दुस्तानियों के हित के हेत’- की प्राण-प्रतिष्ठा करेगी।
(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार और सप्रे संग्रहालय भोपाल के संस्थापक-संयोजक हैं। यह आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार)
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