राकेश अचल
कोरोना संकट से निबटने के लिए लॉकडाउन-1 की अपार कामयाबी के बाद लॉकडाउन-2 देश के सामने है, लेकिन इसमें पहले जैसा रहस्य और रोमांच नहीं है, हालांकि इस नए संस्करण में एक गाइड लाइन भी है ठीक आपातकाल में बनाये गए बीस सूत्रीय कार्यक्रम की तरह। लॉकडाउन-2 के लागू होते ही देश के अनेक हिस्सों में एक बार फिर प्रवासी श्रमिकों के सड़क पर आने से तैयारियों पर प्रश्नचिन्ह जरूर लगता है।
लॉकडाउन के समय पूरी निष्ठा के साथ घर में कैद रहने के कारण मैं यह लिखने का हकदार हूँ कि एक जरूरी इंतजाम करते समय भी कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाती है और फिर हर दोष सियासत की भेंट चढ़ जाता है। कमजोरियों को दूर किये बिना लक्ष्य हासिल कर पाना कितना कठिन है ये जनता शायद नहीं जानती। देश की जनता को समझना होगा कि बीते सत्तर साल में जिस देश में कुछ न हुआ हो (?) उस देश में बीते छह साल में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में क्या कुछ हुआ होगा। इसलिए कोरोना से हमें सीमित साधनों से या कहिये निहत्थे ही लड़ना है और हमने बीते 21 दिन ये लड़ाई लड़कर दिखाई भी है।
कोरोना संकट के दौरान लागू किये गए लॉकडाउन को लेकर संयोग से भारत में अमेरिका जैसे अशोभनीय दृश्य नहीं बने। किसी राज्य सरकार ने प्रधानमंत्री के फैसले पर उंगली नहीं उठाई, किसी ने उन्हें राजा नहीं कहा, किसी ने उनके निर्णय पर अमल करने से इंकार नहीं किया जैसा कि न्यूयार्क के मेयर ने राष्ट्रपति ट्रम्प के मास्क पहनने के आदेश को लेकर किया और कहा। जाहिर है कि हम अमेरिका से आज भी भिन्न हैं। हमारा राष्ट्रवाद भले ही सियासत की गिरफ्त में हो लेकिन हमने कभी दुनिया के सामने राष्ट्रवाद को कोसा नहीं और न ही राष्ट्रवाद की आड़ में होने वाली सियासत को लेकर कोई नाटक किया।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य के मुद्दे पर ऐसी अभूतपूर्व एकजुटता के बावजूद मुम्बई, सूरत के अलावा देश के अनेक शहरों में 21 दिन बाद भी यदि लोग सड़क पर उतर रहे हैं तो हमें नए सिरे से अपनी तैयारियों के बारे में सोचना होगा। मुझे लगता है कि लॉकडाउन लागू करने में हुई देरी को छिपाने के लिए पहले ही दिन से हड़बड़ी होती गयी जो अभी भी दुःख दे रही है। लॉकडाउन में जहाँ-तहाँ फंसे लोगों के लिए यदि बीते 21 दिन में माकूल इंतजाम कर लिए गए होते तो शायद ये अप्रिय दृश्य देश के सामने उपस्थित नहीं होते। इस बदइंतजामी के लिए कौन जिम्मेदार है, कौन नहीं ये तय करने का समय नहीं है, अभी हमें इंतजाम सुधारने चाहिए।
लॉकडाउन-2 लागू करने के साथ जारी की गयी गाइड लाइन शायद इस बदइंतजामी को दूर करने में सरकार की मदद करे। लॉकडाउन-2 में अनेक व्यावहारिक समस्याओं को चिन्हित किया गया है और इसका लाभ आम जनता को मिलेगा। लॉकडाउन-2 के पहले दिन मैं 22 दिन बाद कुछ जरूरी खरीददारी के लिए सड़क पर निकला तो मैंने पाया कि हमारे शहर में कतिपय अपवादों को छोड़कर सभी जगह लोग दिशानिर्देशों का पालन कर रहे थे। नए प्रबंधों के बावजूद राज्य सरकार द्वारा किये जा रहे इंतजामों में कहीं न कहीं झोल है इसलिए लोगों को जरूरी सामान आसानी से नहीं मिल रहा। जरूरी सामान के भाव डेढ़ से दो गुना बढ़े हैं, जमाखोरी बढ़ी है, काला बाजारी बढ़ी है लेकिन किसी का कोई नियंत्रण नहीं है।
मैंने देखा कि शहरी क्षेत्र में बैंक सेवाएं सुचारू रूप से चल रही हैं किन्तु सामान्य चिकित्सा सेवाएं ठप्प थीं, जरूरी दवाएं गायब हैं। सरकार द्वारा बनाई गई हैल्प लाइनें असहाय हैं। हैल्प लाइनों पर समुचित जवाब देने वाला कोई नहीं है। ये सब दुरुस्त करना ही होगा। जनता को दूसरे लॉकडाउन में सहयोगी बनाकर कामयाबी हासिल की जा सकती है लेकिन पुलिस और सेना के बल पर ये काम नामुमकिन है। लॉकडाउन के दौरान मुद्रा का प्रचलन जारी रहना जरूरी है अन्यथा सारा ढांचा चरमरा जाएगा और इसे सुधरने में बहुत समय तथा शक्ति लगेगी। बेहतर हो कि आने वाले दिनों में सरकार गाइडलाइनों को और तरल बनाये। कुछ गैरेज खोले, कुछ निजी चिकित्सालय खोले तो प्रशासन का काम और सर दर्द भी कम होगा।
प्रधानमंत्री जी ने जान के साथ जहान की भी चिंता करने की बात कहकर एक व्यावहारिक नजरिया प्रकट किया है लेकिन जैसे एक जमात की आड़ में कुछ लोग कोरोना जंग में बाधक हैं ठीक वैसे ही प्रवासी श्रमिकों को आंदोलित करने वालों की भी कोई अदृश्य जमात है। इनसे सख्ती से निबटा जाना जरूरी है, इसमें न राजनीति देखी जाना चाहिए और न ही किसी ध्रुवीकरण का प्रयास किया जाना चाहिए। हमने अपना काम कर दिया, सरकार अपना काम कर रही है और जनता को भी अपना काम करना चाहिए।
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