अजय बोकिल
मुंबई के बांद्रा और ठाणे के मुंब्रा में लॉक डाउन के दौरान हजारों मजदूरों के सड़क पर उतरने से कई सवाल उठ रहे हैं। इस मुद्दे पर राजनीति शुरू हो गई है तो इसी मामले में एक टीवी पत्रकार की गिरफ्तारी से प्रकरण और जटिल हो गया है। इससे सत्ताधीशों की नीयत और सरकार में आपसी तालमेल पर भी सवालिया निशान लग गए हैं। प्रश्न यह भी है कि यह सब क्या चैनल की गलत खबर की वजह से हुआ या स्थानीय प्रशासन और रेलवे की गफलत के कारण हुआ? जो भीड़ स्टेशन पर उमड़ी क्या वह स्वत:स्फूर्त थी या फिर लॉक डाउन में सब कुछ खो चुके मजदूरों को ऐसा करने के लिए उकसाया गया था?
जैसी कि इसी कॉलम में तीन दिन पहले आशंका व्यक्त की गई थी कि गुजरात के सूरत की आग दूसरे राज्यों में भी फैल सकती है, मंगलवार को वही हुआ। मुंबई के बांद्रा व मुंब्रा उपनगरों में हजारों मजदूर घर वापसी की आस में लॉक डाउन में भी सड़क पर उमड़ पड़े। क्योंकि उन्हें बताया गया था कि रेलवे स्पेशल ‘जन साधारण’ ट्रेनें 14 अप्रैल से चलने वाली हैं। मजदूरों की इस भीड़ को पुलिस को लाठी चार्ज कर खदेड़ना पड़ा। लेकिन इससे देश में संदेश यही गया कि 21 दिन के लॉक डाउन में पेट हाथ पर लेकर किसी तरह जी रहे प्रवासी मजदूर अब हर हाल में वो शहर छोड़कर घर जाना चाह रहे हैं, जहां वो दो जून की तलाश में आए थे। यह मात्र संयोग नहीं था कि सुबह इधर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लॉक डाउन बढ़ाने का ऐलान किया और उधर प्रवासी मजदूर उमड उमड़ पडे, जिससे सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ गईं।
लेकिन ये मजदूर जिस तरह अचानक आ जुटे उससे कई सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि ये भीड़ केवल बांद्रा और मुंब्रा स्टेशन पर ही क्यों उमड़ी? मुंबई के बाकी हिस्सों में ऐसा क्यों नहीं हुआ? जो लोग घर जाना चाहते थे, उनके पास सफर का कोई सामान नहीं था, जो कि हमें दिल्ली में दिखाई दिया था। बांद्रा प्रकरण में बेकाबू भीड़ तो दिख रही थी, लेकिन वह क्यों और किसके आव्हान पर आई है, यह समझना कठिन था।
इस मामले में राज्य सरकार कुछ समझ पाती, इसके पहले ही देश और महाराष्ट्र की राजनीति में भी उबाल आ गया। विपक्ष ने इसको लेकर पीएम मोदी पर निशाना साधा कि बगैर किसी ठोस योजना के देश में लॉक डाउन अवधि बढ़ाने का यह नतीजा है तो केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को फोन कर कहा कि ऐसी घटनाएं कोरोना के खिलाफ देश की लड़ाई को कमजोर करती हैं। उधर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने सवाल किया कि आखिर हर विपत्ति गरीबों और मजदूरों पर ही क्यों टूटती है? उनकी स्थिति को ध्यान में रखकर फैसले क्यों नहीं लिए जाते? लॉकडाउन के दौरान रेलवे टिकटों की बुकिंग क्यों जारी थी? स्पेशल ट्रेनों का इंतजाम क्यों नहीं किया गया?
सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मुंबई में हजारों मजदूरों के वापस लौटने की मांग पर ट्वीट किया कि यूपी सरकार तुरंत नोडल अधिकारी नियुक्त करे और केंद्र के साथ मिलकर महाराष्ट्र व अन्य राज्यों में फंसे प्रदेश के लोगों को निकाले। इस पर यूपी भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने कहा कि ये नेता अनपढ़ों की तरह बात न करें। खुद महाराष्ट्र में भी नेताओं में घमासान शुरू हो गया। राज्य के लोक निर्माण मंत्री अशोक चव्हाण ने एक चिट्ठी का हवाला देते हुए कहा कि रेलवे की इसी चिट्ठी के कारण असमंजस की स्थिति पैदा हुई। चव्हाण ने कहा कि वे इसके लिए वे रेल मंत्री या मंत्रालय को जिम्मेदार नहीं ठहरा रहे हैं, लेकिन इसमें लापरवाही जरूर दिख रही है। उन्होंने परोक्ष रूप से भाजपा पर निशाना साधते हुए सवाल किया कि ‘सोशल मीडिया में चर्चा कि महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगेगा। इसके पीछे कौन है?’
इसी तरह महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष एवं राज्य के राजस्व मंत्री बालासाहब थोरात ने कहा कि स्टेशन पर जो भीड़ जमा हुई थी उसमें सभी समुदाय के लोग शामिल थे। प्रदेश के गृहमंत्री अनिल देखमुख ने कहा कि इन प्रवासी मजदूरों को संभवत: आस रही होगी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य की सीमाओं को खोलने का आदेश देंगे। लेकिन वैसा नहीं हुआ। उधर भाजपा विधायक आशीष शेलार ने इसी संदर्भ में राज्य के पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे को लिखा कि प्रवासी मजदूरों की समस्या खाने और जीवनावश्यक वस्तुओं की है। ज्यादातर प्रवासी मजदूर ‘प्रीपेड मोबाइल’ इस्तेमाल करते हैं और उनके मोबाइल का रिचार्ज अब खत्म हो चुका है। ऐसे में इन मजदूरों का अपने परिजनों से भी संपर्क टूट गया है। उनका धैर्य जवाब देने लगा है। इसलिए सरकार कुछ करे।
जो जानकारी अब तक सामने आई है, उसके मुताबिक परेशान प्रवासी मजदूरों को यह उम्मीद बंध गई थी कि लॉक डाउन का पहला दौर खत्म होते ही वो अपने गांव लौट सकते हैं। एक मराठी रीजनल टीवी चैनल पर खबर भी चल गई कि 14 अप्रैल से देश के सभी हिस्सों में ट्रेंने शुरू होने वाली हैं। तो क्या सचमुच ट्रेने लॉक डाउन में भी चलने वाली थीं? अगर ऐसा नहीं था तो यह खबर किस तरह फैली कि ट्रेनें चलने वाली हैं। इसी संदर्भ में मंत्री अशोक चव्हाण ने बताया कि 13 अप्रैल को दक्षिण मध्य रेलवे के एक अधिकारी के हस्ताक्षर से पत्र जारी हुआ था कि 14 अप्रैल से प्रवासी मजदूरों के लिए ट्रेन चलेगी। यह रेलवे की लापरवाही का ज्वलंत उदाहरण है।
लेकिन यह अफवाह फैली कैसे? इस बारे में दो व्यक्तियों के नाम सामने आए हैं। इनमें घंटी बजवाने वाले एक नेशनल चैनल के मराठी रीजनल चैनल का पत्रकार राहुल कुलकर्णी है तथा दूसरा कथित समाजसेवी विनय दुबे है, जो महाराष्ट्र के नेता राज ठाकरे का करीबी बताया जाता है तथा मुंबई में उत्तर भारतीयों के किसी संगठन से जुड़ा है। हालांकि राज ठाकरे ने दुबे को जानने से इंकार कर दिया है। उधर मराठी चैनल ने रेलवे अधिकारी की चिट्ठी की बिना पर खबर चला दी और विनय दुबे ने लोगों तक सोशल मीडिया के माध्यम से इसको फैला दिया। लोग दौड़ पड़े कि कहीं ट्रेन छूट न जाए।
यहां मुद्दा यह कि जब लॉक डाउन 20 दिन बढ़ना था तो रेलवे अधिकारी ने वो चिट्ठी जारी क्यों की? क्या भारत सरकार के विभागों में ही कोई आपसी तालमेल नहीं है? जिससे असमंजस फैला। यहां पत्रकार की भूमिका पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि उसने रेलवे की उस चिट्ठी, जिसे अब ‘आंतरिक नोट’ बताया जा रहा है, के आधार पर खबर कैसे चला दी? और अगर यह गलती हुई भी तो रेल प्रशासन ने तत्काल इसका खंडन या स्पष्टीकरण क्यों जारी नहीं किया? इतनी सतर्कता बरती गई होती तो शायद इतना बवाल नहीं होता।
बताया जाता है कि पत्रकार के खिलाफ दर्ज मामले में रेलवे के उस ‘आंतरिक नोट’ का जिक्र नहीं है, जबकि रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि नोट में ‘जन साधारण ट्रेन’ चलाने का प्रस्ताव था कि लेकिन लॉक डाउन जारी रखने के फैसले के बाद वह वापस ले लिया गया था। उधर विनय दुबे पर आरोप है कि उसने प्रवासी मजदूरों से ‘चलो घर की ओर’ का आह्वान कर प्रवासियों को घर से बाहर निकलने के लिए उकसाया। वायरल हुए एक वीडियो में दुबे कहता है, ‘‘14 अप्रैल को लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद राज्य सरकार उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल जाने वाले लोगों के लिये ट्रेनों की व्यवस्था करे। गंतव्य तक पहुंचने के बाद उन्हें क्वारेंटाइन कर लिया जाए।‘’
दुबे ने यह भी चेताया कि ‘‘हम 14 या 15 अप्रैल तक का इंतजार करेंगे और अगर सरकार कुछ नहीं करती है तो मैं खुद प्रवासियों के साथ पैदल यात्रा शुरू करूंगा।‘’ वास्तव में क्या हुआ है, यह जांच के बाद ही पता चलेगा। लेकिन यह तो सामने आना ही चाहिये कि इसका असल जिम्मेदार कौन है? इस प्रकरण का बड़ा सबक यही है कि अन्य राज्यों में भी प्रवासी मजदूरों की सुध ली जाए, उनके लिए अन्न और धन की व्यवस्था किसी तरह की जाए। वरना स्थिति और खराब होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। इससे वेबसाइट का सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह सामग्री अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत विभिन्न विचारों को स्थान देने के लिए लेखक की फेसबुक पोस्ट से साभार ली गई है।)