नतीजे चाहे जो भी हों लेकिन ऐसा लगता है कि इस चुनाव ने अदावत और नफरत को भारत में चुनाव का स्थायी भाव बना दिया है। फिलहाल तो यह कहना मुश्किल है कि राजनीति से दुश्मनी का यह वायरस कब जाएगा और जाएगा भी कि नहीं, लेकिन आसार ऐसे दिख रहे हैं कि बहुत जल्दी तो यह विदा लेने वाला नहीं है। इस अदावत और नफरत की लहरें चुनाव के बाद भी जारी रहेंगी और आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि वे कितनी दूर तक जाएंगी।
एक्जिट पोल और ईवीएम के हल्ले के बीच पिछले दो दिनों में मीडिया में ‘आने वाली सरकार की चुनौतियां’ जैसे स्कूली निबंध टाइप विषय पर भी कुछ लिखा गया है लेकिन स्थितियां कह रही हैं कि चुनौतियां तो होंगी पर वे नहीं जिनहें अब तक चुनौती माना जाता रहा है, मसलन बुनियादी सुविधाएं, रोजगार, भ्रष्टाचार, महंगाई आदि। अब चुनौती यह होगी कि अपने राजनीतिक दुश्मनों को किस तरह और कितनी जल्दी निपटाया जाए। और यकीन मानिए चाहे जो सत्ता में आए इस मामले में वह कतई पीछे नहीं रहेगा। चाहे अ की सरकार बने या ब की अथवा स या द के टेके वाली।
मतगणना शुरू भी नहीं हुई है और सड़कों पर खून बहा देने वाले बयान आ रहे हैं। यानी सत्ता अब बैलेट से नहीं बुलेट से हासिल की जाएगी। लोकतांत्रिक तरीके से नहीं बल्कि हर तरह के छल प्रपंच और तिकड़मों से। हां, इस चुनाव ने भारत में चुनावों का ट्रेंड ही बदल दिया है। अब चुनाव लड़े नहीं बल्कि लड़वाए जाएंगे। और यह लड़ाई राजनीतिक दलों के बीच नहीं बल्कि उनके जरिये जनता के बीच होगी। चुनाव देश की सरकार को चुनने का नहीं लोगों को आपस में लड़ाने का जरिया बनेंगे। जो जितना ज्यादा लड़वा सकेगा वह उतने ही ज्यादा वोट पाएगा।
मैं जब स्वामी विवेकानंद पर किताब लिख रहा था तब मेरी जाने माने साहित्यकार और आलोचक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय से लंबी बात हुई थी। उस दौरान बातों ही बातों में महाभारत का प्रसंग निकल आया और श्रोत्रिय जी ने कहा कि हम लोगों ने महाभारत को युद्ध का काव्य मान लिया है जबकि वह मूलत: शांति का काव्य है। महाभारत के प्रसंगों का गहराई से अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि उनमें युद्ध का नहीं बल्कि कहीं न कहीं शांति के महत्व का संदेश छुपा है। महाभारत वह ग्रंथ है जो बताता है कि क्या क्या करने या न करने से युद्ध को और युद्धजनित विनाश को टाला जा सकता है।
पर शायद नए भारत ने महाभारत को युद्धकाव्य के रूप में ही अंगीकार कर लिया है। हम अब युद्ध चाहते हैं…सिर्फ युद्ध। हमारी रुचि शांति के कपोतों में नहीं बल्कि लोकतंत्र के रक्तपिपासु गिद्धों में है। आप 17 वीं लोकसभा का पूरा चुनाव उठाकर देख लीजिए, किसी ने भी इस लोकतांत्रिक अनुष्ठान को रक्तरंजित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। रक्त केवल मनुष्य के शरीर पर घाव लगने से ही नहीं रिसता, देश की आत्मा से भी रिसता है। देश की आत्मा से रिसने वाला यह रक्त भले ही हमें दिखाई न दे, या कि हम देखते हुए भी उसकी अनदेखी करें लेकिन अंतत: यह रिसाव राष्ट्र की आत्मा को आहत करता है।
कहने को देश के लोगों ने अपने नुमाइंदे चुनने के लिए वोट डाला। लेकिन दृश्य यह था कि जो लोग नुमाइंदगी के लिए अपना दावा पेश कर रहे थे उनके हाथ में तलवारें थीं और लोगों के हाथ में पत्थर थमा दिए गए थे। और चुने जाने की कतार खड़े लोगों में कई ऐसे भी शामिल हैं जो सरकारों और संवैधानिक पदों पर रह चुकने के बावजूद अब देश को तोड़ने वाले या सरेआम हिंसा फैलाने वाले बयान दे रहे हैं।
याद कीजिए जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री रह चुकीं पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती का वह बयान जो उन्होंने भाजपा का चुनाव घोषणा पत्र जारी होने के बाद दिया था। भाजपा ने अपने दृष्टि पत्र में धारा 370 और 35 ए खत्म करने की बात की थी, जिस पर महबूबा ने शायराना अंदाज में चेतावनी देते हुए कहा था- ‘’ना समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तां वालो, तुम्हारी दास्तां तक भी ना होगी दास्तानों में।‘’ इसी तर्ज पर नैशनल कान्फ्रेंस के नेता और पूर्व मुख्यामंत्री फारूक अब्दुल्ला भी बोले थे कि ‘’हम इसके खिलाफ खड़े हो जाएंगे।… अल्लाह को शायद यही मंजूर होगा कि हम इनसे आजाद हो जाएं। मैं भी देखता हूं फिर कौन इनका झंडा खड़ा करने के लिए तैयार होता है?’’
और अब जब मतदान हो चुका है, मतगणना से दो दिन पहले बिहार में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के प्रमुख और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाह ने ईवीएम मामले को लेकर सड़कों पर खून बहने की धमकी दे डाली है। उन्होंने लोगों को हथियार उठाने के लिए उकसाया है। आरजेडी के बागी नेता रामचंद्र सिंह यादव तो कई कदम और आगे निकल गए। बुधवार को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में सचमुच हथियार लहराते हुए कहा कि लोकतंत्र खतरे में है और इसे बचाने के लिए हम गोली चलाने के लिए तैयार हैं।
मुझे याद नहीं आता कि भारत के चुनावी परिदृश्य में ऐसी भाषा कभी बोली गई होगी कि यदि मतगणना में परिणाम हमारे अनुकूल नहीं आए तो हम खून की नदियां बहा देंगे या हथियार उठाकर फैसला करेंगे। और दुर्भाग्य देखिये कि देश के राजनीतिक दल ईवीएम में गड़बड़ी की आशंका पर तो जमीन आसमान एक किए दे रहे हैं लेकिन चुनाव प्रक्रिया में हिंसा का यह जो जहर इंजेक्ट किया जा रहा है उसके खिलाफ सामूहिक रूप से कोई विरोध नहीं हो रहा।
अभी पिछले दिनों चुनाव के दौरान महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताए जाने वाले बयान भारी बवाल मचा था लेकिन ये जो जिंदा लोकतंत्र की हत्या करने वाले बयान आ रहे हैं उस पर वैसी कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं देती। तो क्या यह समझा जाए कि कमोबेश सारे राजनीतिक दल अंदर ही अंदर इस बात से सहमति जता रहे हैं कि इच्छित फैसला नहीं हुआ तो फैसला सड़कों पर किया जाएगा।
मुझे हिन्दी के सुपरिचित कवि धूमिल के प्रसिद्ध कविता संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ की एक कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं-
उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं
आदत बन चुकी है
वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े–लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी