हमारी जीवन शैली में जिस तरह के बदलाव हो रहे हैं और विज्ञान, तकनीक एवं संचार के संसाधनों का जिस तरह से विस्तार हो रहा है उसके चलते स्वाभाविक है कि शहरों का स्वरूप और उनकी तासीर भी बदले। भोपाल को जानने वाले पुराने लोगों से यदि आप बात करें तो वे लंबी सांस लेकर आपसे कहेंगे कि भोपाल अब वैसा नहीं रहा। और यह बात केवल भोपाल के साथ ही हो ऐसा नहीं है, हर शहर.. और शहर ही क्यों हर कस्बा, हर गांव अब वैसा नहीं रहा जैसा वह दस, पंद्रह, बीस या पचीस साल पहले था।
आज यदि हम शहरों के उन पुराने स्वरूपों और तासीर को तलाशें तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी। ऐसा करना भी नहीं चाहिए क्योंकि बदलाव प्रकृति का नियम है और समय के साथ सारी चीजें बदलती जाती हैं। यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह वर्तमान के बजाय अतीत को ज्यादा याद करता है, उसका गुणगान अधिक करता है। पर आज जो वर्तमान है कल वही अतीत होगा और हम आज जिस वर्तमान को कोस रहे हैं हो सकता है भविष्य में उसे अपेक्षाकृत अच्छे दिनों के रूप में याद करें।
इसमें कोई दो राय ही नहीं है कि हमारा भोपाल भी पिछले दो तीन दशकों में बहुत बदला है। जो कुछ चीजें नहीं बदली हैं उनमें से एक अहम मुद्दा यहां के संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधित्व का है। 1989 से यानी पिछले 30 सालों से यहां भारतीय जनता पार्टी का सांसद ही चुना जाता रहा है। इस अवधि में 6 चुनाव हो चुके हैं और इन सभी में मिली जीत के कारण भोपाल को भाजपा का गढ़ माना जाने लगा है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस शहर की राजनीतिक तासीर भाजपामय हो चुकी है।
भाजपा के रंग में रंगे इस संसदीय क्षेत्र में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही रहता आया है और कांग्रेस यहां हर तरह के प्रयोग करके देख चुकी है। प्रयोगों की उसी श्रृंखला में उसने एक बार भोपाल के नवाब खानदान से जुड़े, मशहूर क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी तक को मैदान में उतार दिया था,लेकिन नवाब पटौदी को भी हार का सामना करना पड़ा। इस बार भोपाल की चुनौती पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह ने स्वीकार की है इसलिए देखना दिलचस्प होगा कि वे किस तरह इस चुनाव को लड़ते हैं और 17वीं लोकसभा में भोपाल के बाशिंदे किसे चुनकर लोकसभा में भेजते हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने नारा दिया था- वक्त है बदलाव का- और बहुत मामूली अंतर रखते हुए प्रदेश की जनता ने बदलाव का फैसला कांग्रेस के पलड़े में डाल दिया। लोकसभा में भी यदि बदलाव का यह सिलसिला जारी रहा तो मध्यप्रदेश के नतीजे चौंकाने वाले होंगे। क्या भोपाल भी इस बार पिछले तीस साल से चली आ रही परंपरा को बदलकर चौंकाएगा या फिर वह इतिहास के पुराने पन्नों के सिलसिले को ही आगे बढ़ाएगा।
वैसे तो आमतौर पर यह माना जाता है कि किसी भी लोकसभा क्षेत्र में सांसद की भूमिका रोजमर्रा के मसलों पर उतनी नहीं होती जितनी कि पार्षद या विधायक की होती है। लेकिन दिग्विजयसिंह यदि भोपाल की केसरिया तासीर को बदलना चाहते हैं तो उन्हें उन मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा जो यहां की जनता की रोजमर्रा जिंदगी से जुड़े हैं। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि लोगों से जुड़ाव तभी बनेगा जब आप उनके उन घावों पर भी मरहम रखें जो रोज होते हैं। भले ही सांसद के तौर पर सीधे सीधे जिम्मेदारी न बनती हो, लेकिन नीतिगत तौर पर तो कई ऐसी बातें करवाई जा सकती हैं जो लोगों की जिंदगी से मुश्किलों और चिंताओं को दूर करे।
जैसे एक अप्रैल के ही अंक में पत्रिका ने एक खबर छापी है जिसमें शहर के प्रबुद्धजनों से बातचीत के आधार पर निकली इस मांग को प्रमुखता से उठाया गया है कि शहर को मास्टर प्लान मिलना चाहिए। लोगों का कहना था कि शहर का विकास तो स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देने से ही संभव हो सकता है। और इन स्थानीय मुद्दों में स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, सड़क, परिवहन जैसे मुद्दे बरसों से शामिल होते आए हैं।
मास्टर प्लान की जब भी बात चलती है, हमेशा कोई न कोई विवाद खड़ा कर दिया जाता है और मामला टल जाता है। और बात सिर्फ मास्टर प्लान के बना लेने की ही नहीं है, उसे उसकी मूल भावना के अनुरूप लागू करने की भी है। अव्वल तो कई सारे दबाव समूह अपने अपने आर्थिक और व्यावसायिक हितों को देखते हुए उसी हिसाब से मास्टर प्लान का खाका तैयार करवाना चाहते हैं और यदि मास्टर प्लान बन भी जाए तो उसे लागू भी मनमाने ढंग से ही किया जाता है। इस तरह वह विकास का मास्टर प्लान न होकर दोहन का मास्टर प्लान बन जाता है।
एक और बात जो कही तो बहुत बार जाती है पर उसका हल कभी नहीं निकलता। यह बात है योजनाओं के समय पर पूरा होने की। सड़क बनाने से लेकर नाला सफाई तक और फ्लाय ओवर से लेकर पेयजल सुविधाओं तक चाहे कोई भी योजना हो, अधिकारियों और योजनाकारों की रुचि उसे समय पर पूरा करने में नहीं बल्कि लटकाने में होती है। बरसों बरस लटकती ये योजनाएं अंतत: अपने मूल बजट से कई गुना भारी हो जाती हैं और यह सारा भार अंतत: जनता को ही उठाना पड़ता है, आर्थिक दृष्टि से भी और अधूरी योजनाओं के चलते होने वाली रोजमर्रा की मुसीबतों के लिहाज से भी। तभी अखबारों में हेडलाइन बनती है- ‘’पाइपलाइन बिछाई, लोगों के फार्म भी भर लिए, पर नहीं दिए नल कनेक्शन’’ (नवदुनिया 1 अप्रैल 2019)
भोपाल में बढ़ते अपराधों का मामला भी बहुत गंभीर है। महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के साथ होने वाले अपराध यहां लगातार बढ़ रहे हैं। यह शहर हर तरह के नशे के माफिया के चंगुल में फंसता जा रहा है। कुछ साल पहले तक रात को सुनसान हो जाने वाली भोपाल की सड़कें अब रात को नशे की बाहों में पसरी होती हैं। चिंता की बात यह है कि इसका सबसे ज्यादा शिकार युवा पीढ़ी हो रही है। हम पंजाब के ड्रग माफिया की बात करते हैं पर कभी भोपाल के ड्रग माफिया पर भी नजर डालें। बच्चों के लापता होने के मामले में भोपाल पहले से ही कुख्यात है और हाल ही में यहां उजागर हुआ चाइल्ड पोर्नोग्राफी के अंतर्राष्ट्रीय रैकेट से जुड़ा मामला बताता है कि हालात क्या मोड़ ले रहे हैं।