मध्यप्रदेश की राजधानी होने के बावजूद भोपाल का जो हाल है उसे देखते हुए समझ ही नहीं आता कि किसी भी बढ़ते हुए शहर में ऐन चौराहों के आसपास व्यावसायिक निर्माणों या गतिविधियों को इजाजत कैसे दी जा सकती है। जिसे प्लानिंग कहते हैं वह राजधानी जैसे शहर के लिए आने वाले पचास या सौ सालों के लिहाज से की जाती है, लेकिन भोपाल ऐसा शहर है जहां साल तो क्या पचास या सौ दिन के लिहाज से भी प्लानिंग नहीं हो रही।
देश में यह अपने किस्म का अनूठा किस्सा होगा जहां नगर निगम क्षेत्र में ही एक नगर पालिका भी हो। बेतरतीब विकास (?) का मॉडल बन चुका कोलार क्षेत्र एक समय भोपाल नगर निगम से अलग, पंचायतों का क्षेत्र था। लेकिन बाद में क्षेत्र के ‘सुनियोजित विकास’ का हवाला देते हुए उसे नगर पालिका बना दिया गया। फिर नगरीय सुविधाओं के विस्तार और प्रबंधन के नाम पर उस नगर पालिका को खत्म कर भोपाल नगर निगम में मिला दिया गया। अब फिर नेताओं का दिमाग चला तो उसे दोबारा नगर पालिका बनाया जा रहा है। नगर पालिका क्षेत्र से नगर निगम क्षेत्र बनते हुए तो आपने सुना होगा लेकिन इसकी उलटबांसी भी हो सकती है यह आपको भोपाल में ही देखने को मिल सकता है।
राजधानी मे ऐसे अनेक बेदिमागी तमाशे चलते रहते हैं। कल मैंने सड़कों की बात की थी। भ्रष्टाचार और कूड़े जैसी प्लानिंग का जीवंत नमूना देखना हो तो मैं देश के तमाम गैर सरकारी संगठनों और योजनाकारों को न्योता दे सकता हूं कि एक बार आएं और यहां गोविंदपुरा इलाके की जेके रोड सड़क को जरूर देखें। पिछले करीब 12 साल से तो मैं खुद इसका तमाशा देख रहा हूं। इस कालखंड में इस सड़क को बनाने पर करोड़ों रुपए खर्च हो चुके होंगे, कई नेता इसे ‘आदर्श सड़क’ बनाने का ऐलान कर चुके होंगे, लेकिन असलियत यह है कि यह सड़क आज तक ठीक से बन ही नहीं पाई है। हां, इसे बनवाने वाले लोग जरूर कुछ न कुछ ‘बन’ गए। करोड़ों रुपए फूंक दिए जाने के बावजूद यह सड़क आज भी गड्ढों का पर्याय है और जाने कितने लोग यहां अपने हाथ पैर तुड़वाने के साथ ही जान तक गंवा चुके हैं।
जब भी अपने शहर का जिक्र आता है भोपालवासी यहां के तालाब का बड़ी शान से जिक्र करते हैं। लेकिन एक तरफ इसके रखरखाव या इसे बचाए रखने के राजनीतिक और प्रशासनिक दिखावे और तमाशे चल रहे हैं तो दूसरी ओर इसका दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। यह तालाब शहर की कई बस्तियों का जलस्रोत भी है, लेकिन आपको दाद देनी पड़ेगी उन लोगों की शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता की, कि वे इसका मलमूत्र युक्त पानी पीने के बावजूद जिंदा हैं। वैसे पिछले कुछ सालों से यह तालाब जलस्रोत के रूप में नहीं, भूमाफिया के लिए सोने की खान के रूप में ज्यादा चर्चित रहा है।
जिस तरह फिल्मों में कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं उसी तरह भोपाल में भू-माफिया और झुग्गी-माफिया के हाथ बहुत लंबे हैं। कहने को भोपाल में राष्ट्रीय स्तर के अनेक संस्थान हैं जिनमें आईआईएफएम, मैनिट, एम्स, नैशनल ज्यूडिशियल अकादमी और नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान हैं लेकिन इनमें से कोई संस्थान ऐसा नहीं है जो झुग्गियों से घिरा न हो। मौलाना आजाद इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (मैनिट) के मुख्य द्वार पर ही झुग्गी बस्ती है तो ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट (आईआईएफएम) के ठीक सामने। और तो और प्रदेश की विधानसभा, देश के सचिवालय से लेकर राज्यपाल एवं मुख्यामंत्री निवास तक झुग्गियों से घिरे पड़े हैं।
वोट बैंक का असर इतना तगड़ा है कि किसी ‘माई के लाल’ में हिम्मत नहीं कि इन्हें हटा सके या इनका पुनर्व्यवस्थापन कर सके। राजनीति के ज्यादातर ‘माई के लाल’ आपको यही कहते मिलेंगे कि जिसने भी, जहां भी सरकारी जमीन पर कब्जा कर लिया है (और जो सौ फीसदी अवैध होता है) उसे मेरे जीते जी कोई नहीं हटा सकता। और शायद ऐसी ही सैकड़ों अवैध बस्तियों की ‘दुआओं’ के चलते कई नेताओं की राजनीतिक सांसें चल भी रही हैं।
चाहे मास्टर प्लान की बात हो या भोपाल के सुनियोजित विकास की। चाहे यातायात को दुरुस्त करने के लिए बीआरटीएस के निर्माण का मामला हो या फिर फ्लाई ओवर के निर्माण का,वैकल्कि यातायात व्यवस्था के लिए मेट्रो रेल का मुद्दा हो या राजधानी के लिए हवाई सुविधाओं का, सालों साल से मामले उलझे पड़े हैं। कभी धूमधाम से बीआरटीएस बनाया जाता है और कभी उसे तोड़ डालने का धमाकेदार विचार खबरों में तैरने लगता है। भोपाल के बाद काम शुरू करने वाले देश के कई शहरों में मेट्रो चलने भी लगी है पर हम अभी इसी बात में उलझे पड़े हैं कि मोनो रेल चलाएं या मेट्रो।
एक समय था जब भोपाल का नाम देश के सबसे हरेभरे शहरों में शामिल था। दूसरे शहरों से आने वाले लोग यहां की हरियाली और हवा की ताजगी को महसूस कर इस शहर से रश्क करते थे। लेकिन पूरी दुनिया को ‘स्मार्ट’ बनाने चले कुछ शेखचिल्लियों की शहर को ऐसी नजर लगी कि ‘स्मार्टनेस का कंक्रीटी ढांचा’ बनने के फेर में यह खूबसूरत शहर अपनी ‘गंवारू हरियाली’ खो बैठा। वो तो भला हो शहर के जागरूक नागरिकों का जिन्होंने दबाव बनाकर शिवाजी नगर जैसे हरेभरे इलाके को इस स्मार्टनेस की भेंट चढ़ने से बचा लिया, वरना भूमाफिया की खूनी आंखें तो सबसे पहले उसी इलाके पर लगी थी।
भोपाल एक और मामले में कुख्यात है। वो है यहां होने वाले कामों की गति। वैसे उसे गति के बजाय दुर्गति कहना ज्यादा बेहतर होगा। अव्वल तो यहां योजनाओं के बनने में ही सालों साल लग जाते हैं और योजनाएं बन भी जाएं तो उनके पूरा होने में फिर सालों साल इंतजार करना पड़ता है। एम्स जैसे संस्थानों के पूर्ण होने का मामला हो या शहर में बनने वाले फ्लाय ओवर्स का। शहर के योजनाकारों और प्रशासकों को धीमी गति से काम करने का रेकार्ड बनाने का इतना शौक है कि पूछिये मत। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि काम को लटकाने, अटकाने और भटकाने के लिए कोई राष्ट्रीय अवार्ड घोषित किया जाए तो आने वाले कई सालों तक यह अवार्ड भोपाल से छीनने की कोई सोच भी नहीं सकता।