जब युद्ध सामने हो तो कोई राजा अपना सेनापति आमतौर पर नहीं बदलता और यदि वह ऐसा करता है तो माना जाना चाहिए कि युद्ध के परिणामों को लेकर वह आश्वस्त नहीं है। मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी में अध्यक्ष पद पर बुधवार को हुए बदलाव को इस लिहाज से गौर से देखा और पढ़ा जाना चाहिए। यह बात अलग है कि निवर्तमान प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमारसिंह चौहान को बदले जाने की चर्चा लंबे समय से हवाओं में तैर रही थी।
अगस्त 2014 में नंदकुमार सिंह चौहान को इस पद पर लाया गया था। उनके पहले तक नरेंद्रसिंह तोमर प्रदेश अध्यक्ष पद पर काम कर रहे थे और चूंकि तोमर को मोदी मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया था इसलिए उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था। दिलचस्प बात यह है कि तोमर को दिसंबर 2012 में प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था और उस समय भी राज्य विधानसभा चुनाव को एक साल से भी कम समय बचा था।
अब जब नंदकुमारसिंह चौहान को हटाकर जबलपुर के सांसद राकेशसिंह को प्रदेश भाजपा का नया मुखिया बनाया गया है तब भी राज्य में विधानसभा चुनाव को सिर्फ सात महीने बचे हैं। वैसे राज्य में दिसंबर 2003 से भाजपा की सरकार है और इस बात को समझना मुश्किल है कि जिस पार्टी को राज करते हुए करीब 15 साल होने को आए वह हर चुनाव से पहले अपने अध्यक्ष को लेकर इतनी ‘अविश्वासी’ क्यों हो जाती है?
पिछले करीब 13 सालों से प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का ही सिक्का चल रहा है। और बीच में प्रभात झा का नाम छोड़ दें तो माना जाता रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष उनकी मनमर्जी का ही रहा है। फिर चाहे वे नरेंद्रसिंह तोमर हों या नंदकुमारसिंह चौहान। हां, इतना जरूर है कि तोमर को जहां उनका यार माना जाता रहा है वहीं नंदकुमार को उनका रबर स्टैम्प।
ऐसे में ऐन चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष को बदलने का फैसला एक संकेत तो यही देता है कि क्या पार्टी इस बार एंटी इन्कम्बेंसी फैक्टर को लेकर कुछ ज्यादा ही डरी हुई है? और क्या नंदकुमारसिंह चौहान को हटाना उसी एंटी इन्कम्बैंसी के असर को कम करने की कवायद का हिस्सा है? पर पार्टी यदि ऐसा सोचती है कि नंदकुमार को हटाकर चुनाव में सफलता के लिहाज से उसने कोई बड़ा तीर मार लिया है तो वह गलत है।
अब जरा नए निजाम की बात कर लें। दरअसल जब से नंदकुमारसिंह को हटाने की चर्चाएं चली थीं, तभी से स्वाभाविक ‘चुनाव सखा’ के रूप में प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर एक बार फिर नरेंद्र तोमर का ही नाम सामने आया था। बीच में यह भी पता चला था कि हाईकमान ने भी इस पर अपनी रजामंदी दे दी थी। लेकिन तोमर ही इस जिम्मेदारी को संभालने के प्रति अनिच्छुक दिखे।
उनके बाद दूसरा नाम शिवराज केबिनेट में जल संसाधन और जनसंपर्क मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा का चर्चा में आया, लेकिन खुद पार्टी के अंदरूनी सूत्रों से ही ऐसी खबरें मीडिया तक छनकर आईं कि मुख्यमंत्री ने उनके नाम पर सहमति नहीं दी।
प्रदेश अध्यक्ष को लेकर कोर कमेटी की बैठक दो बार हुई। खींचतान इतनी थी कि पहली बैठक में कोई फैसला नहीं हो पाया। दूसरी बैठक में भी भारी गहमागहमी रही। संभवत: शिवराजसिंह चाहते थे कि यदि नरेंद्र तोमर नहीं बनते तो कोई ऐसा व्यक्ति बने जो चुनाव के कठिन समय में उनके माफिक हो। और माफिक न भी हो तो कम से कम ऐसा तो हो जो उनके लिए परेशानी पैदा न करे।
हाईकमान के सामने मुश्किल यह थी कि वह वर्तमान अध्यक्ष को बदलना तो चाहता था लेकिन शिवराज को अभी इस वक्त नाराज भी नहीं करना चाहता था। ऐसा इसलिए कि जिस तरह केंद्र में भाजपा के पास चुनाव जिताऊ चेहरा नरेंद्र मोदी हैं उसी तरह मध्यप्रदेश में पार्टी का चुनाव जिताऊ चेहरा शिवराजसिंह चौहान हैं। इसीलिए बीच का फार्मूला निकालते हुए राकेशसिंह को यह जिम्मेदारी सौंपी गई।
अब प्रदेश भाजपा के नए निजाम की तसवीर देखें तो उसमें कई सारे रंग नए हैं तो कई रंग नदारद नजर आते हैं। राकेशसिंह के रूप में अध्यक्ष के पद पर महाकोशल क्षेत्र को संभवत: पहली बार प्रतिनिधित्व मिला है। लेकिन पार्टी ने लगे हाथ चुनाव प्रबंधन समिति का गठन कर यह भी संकेत दे दिया है कि राकेशसिंह से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी एक बार फिर नरेंद्र तोमर के कंधों पर होगी जिन्हें इस समिति का संयोजक बनाया गया है।
चुनाव प्रबंधन समिति में जातीय समीकरणों को भी बहुत चतुराई से साधा गया है। वहां संयोजक अगर ठाकुर हैं तो सह संयोजक डॉ. नरोत्तम मिश्रा (ब्राह्मण) लालसिंह आर्य (अनुसूचित जाति) और फग्गनसिंह कुलस्ते (अनुसूचित जनजाति) को बनाया गया है। ये सारे नाम वे हैं जो या तो प्रदेश अध्यक्ष पद की दौड़ में थे या उनके नाम चर्चा में चल रहे थे।
प्रदेश भाजपा की नई तसवीर में ग्वालियर चंबल अंचल का अच्छा खासा दबदबा है। चुनाव संचालन समिति की ही बात करें तो नरेंद्र तोमर के अलावा डॉ. नरोत्तम मिश्रा और लालसिंह आर्य यहीं से आते हैं। इनके अलावा समिति के आठ अन्य सदस्यों में से प्रभात झा और मायासिंह भी इसी अंचल का प्रतिनिधित्व करते हैं। ताज्जुब की बात है कि जिस मालवा क्षेत्र को भाजपा का गढ़ माना जाता है और जिसकी सरकार बनाने में सबसे अहम भूमिका होती है, वहां से चुनाव प्रबंधन समिति में सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय और थावरचंद गेहलोत को ही जगह मिली है।
ऐसा लगता है कि प्रदेश के बाकी अंचलों की तुलना में ग्वालियर चंबल अंचल को लेकर भाजपा जरूरत से ज्यादा चिंतित है। पिछले दिनों हुए भारत बंद के दौरान सबसे अधिक जातीय हिंसा वहीं हुई थी जिसमें आठ लोग मारे गए थे। शायद सारे संतुलन साधने के लिए ही पार्टी ने न सिर्फ जातियों के लिहाज से बल्कि संख्या के लिहाज से भी, सर्वाधिक नेताओं को प्रतिनिधित्व वहीं से दिया है।
पर सबसे बड़ा सवाल अब भी वहीं खड़ा है कि क्या मोहरों का रंग बदल देने से शतरंज की बाजी भी जीती जा सकती है?