गिरीश उपाध्याय
चीन में ‘गैंग ऑफ फोर’ की तथाकथित ‘सांस्कृतिक क्रांति’ निरस्त होने और भारत पर चीनी आक्रमण को 16 साल हो चुकने के बाद पहली बार दोनों देशों का अनबोला खत्म हुआ था, और 1978 में चीन की संवाद समिति शिन्हुआ के बुलावे पर भारत सरकार के एक प्रतिनिधिमंडल ने चीन की यात्रा की थी। उस दल में प्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार धर्मवीर भारती भी शामिल थे। मैंने कहीं पढ़ा था कि वहां से आने के बाद भारती जी ने लिखा कि- ‘चीन में वैसे तो बहुत कुछ है, बस वहां के आकाश में चिड़िया दिखाई नहीं देती।’
धर्मवीर भारती का यह एक वाक्य ही चीन के तत्कालीन हालात पर लिखी जाने वाली सैकडों पृष्ठों की किसी किताब के बराबर था। दरअसल, चिड़िया सिर्फ एक प्राणी ही नहीं है। वह प्रतीक है हमारे हौसलों को लगने वाले पंखों का, परिचायक है अनंत तक हमारी पहुंच का और सबसे बड़ा प्रतीक है हमारी आजादी का। खुले आकाश में स्वतंत्र और स्वच्छंद उड़ती, विचरती चिड़िया संदेश देती है कि यदि हमारे पास हौसलों के पंख हैं तो हम अनंत आकाश को भी छू सकते हैं। चिड़िया का आकाश में होना प्राणिमात्र के तन और मन की आजादी का होना है।
आज चिड़िया की बात इसलिए, क्योंकि मध्यप्रदेश में एक चिड़िया अपनी लड़ाई हार गई है। यह लड़ाई करीब चालीस सालों से चल रही थी, लेकिन आखिरकार चिड़िया को ही हारना पड़ा। इस धरती के सबसे चतुर प्राणी ने एक बार फिर उसे मात दे दी। उसकी जरूरतें चिड़िया के अस्तित्व पर भारी पड़ीं और व्यवस्था ने अंतत: चिड़िया को खारिज कर दिया।
मामला मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में स्थित ‘सोनचिरैया अभयारण्य’ के खत्म हो जाने का है। इस अभयारण्य को लेकर स्थानीय निवासी चार दशकों से अपना विरोध जताते आ रहे थे। उनका कहना था कि एक चिड़िया को बचाने के लिए सरकार ने जिस अभयारण्य की स्थापना की है, उसमें उनके गांव और वह इलाका भी आ गया है जहां वे रहते हैं और जो भूभाग उनकी रोजी रोटी का साधन है। इसके लिए सड़क से लेकर संसदीय सदनों तक बात उठाई गई। धरने, प्रदर्शन हुए और 22 जुलाई को मध्यप्रदेश सरकार ने ‘सोनचिरैया अभयारण्य ’ को लेकर जारी अपनी अधिसूचना को निरस्त कर दिया।
सोनचिरैया, दरअसल, एक बहुत खूबसूरत पक्षी है। उत्तरप्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई इलाकों में बड़े-बूढ़े अपने घर की बेटियों को प्यार से ‘सोनचिरैया’ कहकर बुलाते रहे हैं। सोनचिड़िया का नाम करीब चार साल पहले भी चर्चा में आया था जब इसी नाम से 2019 में अभिषेक चौबे की एक फिल्म रिलीज हुई थी। विडंबना देखिये कि वह फिल्म डाकुओं के जीवन पर थी जिसमें सुशांतसिंह राजपूत, मनोज वाजपेयी, आशुतोष राणा और भूमि पेडणेकर जैसे कलाकारों ने अभिनय किया था। फिल्म का नाम सोनचिड़िया संभवत: इसलिए रखा गया था कि उसमें कुछ डाकुओं द्वारा एक छोटी बच्ची को बचाने की कोशिश, कहानी के केंद्र में थी।
सोनचिरैया पक्षी कई सालों से विलुप्त होने की कगार पर है। एक समय यह पक्षी भारत का राष्ट्रीय पक्षी बनने की दौड़ में था, लेकिन वह बाजी भी अपनी अधिक खूबसूरती के चलते मोर ने इससे छीन ली। वर्तमान में यह राजस्थान का राज्य-पक्षी है। सोन चिरैया को ‘द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’, ‘बस्टर्ड’ और ‘गोडावण’ भी कहते हैं। इसका वैज्ञानिक नाम Ardeotis Nigriceps है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ( IUCN) की रेड लिस्ट के मुताबिक़, इस पक्षी की संख्या साल 1969 में 1260 थी और यह देश के कई इलाकों में पाया जाता था। लेकिन, वर्तमान में इसकी संख्या का आकलन 50 से 250 के बीच ही रह गया है। घास के मैदानों में पाया जाने वाला यह पक्षी बहुत शर्मीला होता है। इसकी अधिकतम ऊंचाई एक मीटर और वजन 15 किलो तक हो सकता है। इस मायने में यह दुनिया के सबसे वजनी पक्षियों में से एक है। भारत में इसका इलाका राजस्थान के रेगिस्तानों से लेकर पंजाब, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के मैदानी इलाकों तक फैला हुआ है।
लेकिन इसे बचाने के तमाम प्रयासों के बावजूद यह पक्षी तेजी से विलुप्त हो रहा है। मध्यप्रदेश के ‘करैरा सोनचिरैया अभयारण्य’ की कहानी बहुत पुरानी है। करीब चालीस साल पहले एक योजना बनी थी कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जूझ रही सोनचिरैया को बचाने और उसकी वंशवृद्धि के लिए एक अभयारण्य स्थापित किया जाए। एक ऐसी जगह जहां यह लुप्तप्राय चिड़िया चैन से रह सके और अपने आप को बचा सके। इसके लिए अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले की करैरा तहसील को उपयुक्त पाकर वहां 1981 में सोनचिरैया को संरक्षित और संवर्धित करने के लिए 200 वर्गकिमी से अधिक क्षेत्र में एक अभयारण्य की स्थापना की गई थी। लेकिन इतने सालों में वहां इस चिडिया को लुप्त होने से बचाने के कोई भी प्रयास कारगर साबित नहीं हो पाए।
आंकडे़ कहते हैं कि इस इलाके में जिस समय अभयारण्य बनाया गया था तब वहां इन पक्षियों की संख्या कथित तौर पर 15 के आसपास थी। लेकिन 1993 के बाद से इस क्षेत्र में एक भी सोनचिरैया नहीं देखी गई। अभयारण्य के लिए जिस भूभाग का चयन किया गया था उसमें कई रहवासी गांव भी थे और इसी कारण यह अभयारण्य अपनी स्थापना के समय से ही विवादों में घिरा रहा। अभयारण्य घोषित होने के कारण यहां के लोग अपनी जमीन किसी को नहीं बेच सकते थे। बीच में कई खबरें ऐसी भी आईं कि अभयारण्यों से पैदा दुश्वारियों के चलते उसके दायरे में आने वाले युवाओं का विवाह नहीं हो पा रहा है। स्थानीय निवासी अपनी समस्याओं को लेकर लगातार आंदोलन करते आ रहे थे।
अभयारण्य को लेकर एक मुश्किल यह भी थी कि भले ही इसके अंतर्गत आने वाला इलाका संरक्षित घोषित किया गया था, पर उस इलाके में बांध व सडक निर्माण और खनन से लेकर कई तरह की गतिविधियां बदस्तूर जारी थीं। आबादी वाले गांव होने के कारण पूरे इलाके में लोगों की आवाजाही भी लगातार बनी रहती थी। ऐसे में अत्यंत शर्मीले स्वभाव वाली सोनचिरैया का वंशवृद्धि करना तो दूर वहां रहना भी मुश्किल था। और आखिरकार वही हुआ जो अब तक होता आया है। इंसान की बस्ती के दबाव में पशु-पक्षी की बस्तियां लगातार कुरबान हो रही हैं। उसी कडी में एक सुंदर और दुर्लभ पक्षी को बचाने के लिए तैयार की गई एक और बस्ती कुरबान हो गई।
मध्यप्रदेश सरकार की ओर से करैरा सोनचिरैया अभयारण्य को डिनोटिफाई करने की अधिसूचना जारी किए जाने पर अखबारों ने हेडलाइन बनाई- ‘करैरा सोनचिरैया अभयारण्य से मिली 32 गांव को मुक्ति’, ‘अभयारण्यक खत्म झूम उठे ग्रामीण’… कहा जा सकता है कि एक चिड़िया को बचाने के लिए 30-40 गांवों के लोगों का भविष्य दांव पर लगा देना कहां तक उचित है। इस बात को भी गले उतरवाने की कोशिश हो सकती है कि जब वहां चिड़िया है ही नहीं तो कहां का अभयारण्य… ठीक बात है। फैसला जब इंसान को ही करना है तो वह इंसानों के हक में ही जाएगा, लेकिन इंसानों की बस्ती की चिंता के साथ साथ क्या पशु-पक्षियों की बस्ती की चिंता भी नहीं होनी चाहिए? धर्मवीर भारती ने यह कहकर चीन के हालात को बहुत संवेदनशीलता और पैनेपन के साथ उजागर किया था कि वहां के आकाश में चिड़िया दिखाई नहीं देती… पता नहीं, आने वाले समय में, जब कभी कोई यह लिखेगा कि भारत के मैदानों में अब सोनचिरैया दिखाई नहीं देती, तो उसे किस रूप में लिया जाएगा…
(मध्यमत)
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