सतना। विधानसभा चुनावों में सतना जिले के कई विधानसभा क्षेत्रों में चुनावी जंग में कूदे प्रत्याशियों की हालत मशहूर फिल्म ‘जब-जब फूल खिले’ के उस चर्चित गीत ‘ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे’ जैसी हो गई है। बात चाहे नागौद क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी नागेंद्र सिंह जू-देव की हो या फिर सतना विधानसभा से बहुजन समाज पार्टी के रत्नाकर चतुर्वेदी ‘शिवा’ और चित्रकूट से सुभाष शर्मा ‘डोली’ की।सब एक जैसी ही स्थिति में चुनाव में उतरे हैं।
-अतिमहत्वाकांक्षा बिगाड़ेगी समीकरण?
सतना विधानसभा क्षेत्र से युवाओं में खासे लोकप्रिय रत्नाकर चतुर्वेदी ‘शिवा’ ने कोरोना काल में लोगों की खूब मदद की और जनमानस में अपनी अच्छी छवि बनाई। उन्‍होंने भाजपा की उंगली पकड़ कर ‘राजनीति’ की सीढिय़ां चढऩा सीखा। पार्टी ने भी उनकी योग्यता और नेतृत्व क्षमता की परख करते हुए पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का मंच देकर छात्र संघ अध्यक्ष बनाया और बाद में भाजयुमो के जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी। परंतु दौड़कर सीढिय़ां चढऩे की ख्वाहिश ने उन्हें हाथी की सवारी करवा दी। अब वे सतना से बहुजन समाज पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। परिणाम क्‍या होगा यह तो वक्त बताएगा परंतु उनकी ‘हाथी की सवारी’ पर सारा शहर हैरान है।
-डोली भी ‘डोल’ गये..!
कमोबेश कुछ ऐसी ही कहानी चित्रकूट से बसपा प्रत्याशी सुभाष शर्मा ‘डोली’ की भी है। वे 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे। हालांकि कांग्रेस ने उन्हें युवक कांग्रेस का लोकसभा प्रभारी बनाया था। परंतु 2018 के चुनावों में जब कांग्रेस से विधानसभा टिकट नहीं मिला तो वे भाजपा में शामिल हो गए। यहां भी महत्वाकांक्षा टिकट की ही थी। लेकिन भाजपा ने टिकट की जो कसौटियां तय की थीं संभवत: वे उस पर खरे नहीं उतरे और वे भी हाथी पर सवार हो गए।
नागेंद्र सिंह जू-देव को मिला धैर्य का फल
प्रत्याशियों में सबसे वरिष्ठ एवं वयोवृद्ध भाजपा विधायक एवं पूर्व मंत्री नागेंद्र सिंह जू देव हैं। 80 वर्ष के नागेंद्र सिंह नागौद राज परिवार से हैं और जनता के बीच उनकी लोकप्रियता भी कायम है। वे पांच बार विधायक बने और खजुराहो से लोकसभा चुनाव भी जीते। 2023 के चुनाव में नागेंद्र सिंह ने अपनी आयु का हवाला देकर चुनाव न लडने के संकेत दिए थे पर भाजपा ने एक बार फिर उन्‍हीं पर भरोसा जताते हुए चुनाव में ‘जीत की विरासत’ संभालने का जिम्मा सौंप दिया। लिहाजा नागेंद्र सिंह की ना, हां में बदल गई और अब वे चुनाव मैदान में हैं।
शायद युवाओं में खुद को ‘राजनीति की भट्ठी’ में तपाने और फिर टिकट की मांग करने का धैर्य अब नहीं रहा है। ऐसे युवाओं को राजघराने से संबंध रखने वाले वयोवृद्ध नेता नागेंद्र सिंह जू-देव से सीख लेना चाहिए कि जल्दबाजी का फल हमेशा ‘मीठा’ नहीं होता और धैर्य की अग्निपरीक्षा में तप कर ही जन आकांक्षाओं पर खरा उतरने वाले नेतृत्व का निर्माण होता है।

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