रमेश रंजन त्रिपाठी
‘आप सुबह उठकर अपने सोशल मीडिया अकाउंट की स्टेटस क्यों चैक करते हैं?’ उसने पूछा तो इसने बताया- ‘मैं जिंदगी को युद्ध का मैदान मानता हूं और जंग में हथियारों की जरूरत कभी भी पड़ सकती है। इसलिए अपने हथियारों को चुस्त दुरुस्त रखना जरूरी है। देवताओं को देखिए, वे हमेशा अपने हाथों में अस्त्र-शस्त्र धारण किए रहते हैं।’
‘तो क्या…?’ पूरी बात उसकी समझ में आई नहीं थी, लेकिन इसने उसकी जिज्ञासा भांप ली और समझाने लगा- ‘मेरा शस्त्रागार मेरा मोबाइल है। इसमें ट्विटर, वॉट्सऐप, फेसबुक, इंस्ट्राग्राम जैसे अनेक आयुध चौबीसों घंटे पूरी मुस्तैदी से ड्यूटी पर डटे रहते हैं। आजकल लड़ाई इन्हीं हथियारों से लड़ी जाती है।’
उसने नासमझ की तरह इनका मुंह ताकना जारी रखा तो उसको समझ में आ गया कि इसे अभी और समझाइश की आवश्यकता है। उसने बताना बंद नहीं किया- ‘लोग सामने नहीं आते अपितु इनके माध्यम से हल्ला बोला करते हैं। जैसे पुरानी कहानियों में सुनने को मिलता है कि कुछ लोग अदृश्य होकर विरोधियों पर बाणों की बौछार किया करते थे, लोग भी बिना ‘वन टू वन’ हुए सामनेवाले पर ट्वीट, फेसबुक पोस्ट, वॉट्सऐप मैसेज या इंस्टाग्राम, मैसेंजर जैसे अनेक प्लेटफॉर्म से अपने हमले जारी रखते हैं।’
इसने चमत्कृत भाव से सवाल किया- ‘इन प्रहारों से विरोधी पक्ष के लोग अपना बचाव कैसे करते हैं?’
‘वे पलटवार करते हैं।’ उसने जवाब दिया- ‘अफेन्स इज गुड डिफेंस। सामनेवाले की बात का सीधा जवाब नहीं दिया जाता बल्कि अर्थ का अनर्थ करते हुए अनेक दोषारोपण कर दिए जाते हैं। विपक्षी को तिलमिलाने पर मजबूर किया जाता है। इस तू तू-मैं मैं में दोनों पक्ष एक-दूसरे से बड़ी गलती होने की प्रतीक्षा करते हैं। ऐसा मौका आने पर उस बात को ले उड़ते हैं, ढिंढोरा पीटनेवालों की जमात दोनों ओर मौजूद होती है। दहाड़ मारना, छाती कूटना, ओवर एक्टिंग से लेकर जुलूस-प्रदर्शन तक होने लगते हैं। तमाशाई जनता की तालियां इनकी खुराक होती हैं। दोनों तरफ इन्हीं तालियों-सीटियों और कमेंट्स को बटोरने की होड़ लगी रहती है।’
‘यह तो बड़ी विकट लड़ाई है।’ वर्णन सुनकर ही इसके हाथ-पैर फूल गए- ‘लोगों को बहुत चौकन्ना रहने की जरूरत होती होगी। अपने अस्त्र-शस्त्र हमेशा बेहतरीन कंडीशन में रखने पड़ते होंगे। इसके लिए आप क्या करते हैं?’
‘अपने इन हथियारों को हमेशा शब्दों से चमकाना पड़ता है।’ उसने बताया- ‘यद्यपि भाषा की संजीदगी को बनाए रखने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है लेकिन अप्रत्याशित परिस्थितियों से निपटने के लिए भाषा के स्तर में फेरबदल के लिए भी तैयारी रखी जाती है।’
‘तलवार और बंदूक के घाव तो दिखाई देते हैं किंतु सोशल मीडिया के माध्यम से होनेवाले आक्रमण की चोट कहां लगती है और उनका इलाज कैसे होता है?’ इसने अपनी शंका सामने रखी।
‘तुम्हारा प्रश्न अति सुंदर है।’ उसने प्रशंसा के भाव से देखते हुए कहा- ‘इस लड़ाई की चोट बहुत गहरी नहीं होती। लोग सोशल मीडिया की बातों को लंबे समय तक याद नहीं रखते। यदि ऐसा होता तो कई लोग अपने ट्विटर अकाउंट की वजह से मुंह दिखाने काबिल नहीं रहते। जनता इन माध्यमों से तात्कालिक मनोरंजन करती है और भूल जाती है। इन चोटों को शांत करने के लिए जोरदार जवाबी मैसेज रूपी मलहम पर्याप्त होता है।’
‘तो, क्या सोशल मीडिया के हमले कोई दीर्घकालिक प्रभाव नहीं डालते?’ इसने पूछा।
‘एक ही बात को बार-बार दोहराने पर असर तो पड़ता ही है।’ उसका स्वर गंभीर हो गया- ‘रसरी आवत जात से सिल पर पड़त निसान।‘ इसलिए जवाबी हमले का दबाव भी लगातार बनाए रखना पड़ता है जिससे विरोधी भी उस निसान से जूझते रहें। लोग कितने भी एडवांस हो जाएं लेकिन आमना-सामना होने पर जो प्रभाव पैदा होता है उसकी बराबरी केवल मैसेज करने से नहीं हो सकती। आज भी भाषण और जनसम्पर्क का कोई तोड़ नहीं है।’
‘क्या इसीलिए महामारी में भी नेता संक्रमित होने की परवाह किए बिना गली-गली भटक रहे हैं?’ इसने चुटकी ली।
‘पता नहीं।’ उसने सीधा जवाब नहीं दिया- ‘सियासत गंभीर और बड़ा विषय है। मैं तो आम नागरिक हूं। सोशल मीडिया पर छोटे-मोटे मैसेज करके खुद को तीस मार खां कैसे समझ सकता हूं? ‘बाप’ तक कैसे पहुंच सकता हूं?’
‘फिर, इतने हथियार लेकर क्यों चलते हैं?’ इसने सकुचाते हुए पूछा।
‘रौब झाड़ने के लिए।’ उसने हंसते हुए जवाब दिया- ‘इन हथियारों के लिए कोई लायसेंस तो लगता नहीं! फिर, कंजूसी क्यों करना? आजकल सोशल मीडिया स्टेटस सिम्बल है और कमाई का साधन भी। तुम भी इन हथियारों को धारण कर ही लो।’
इसने हां में सिर हिलाया और हंस दिया।