भोपाल में भाजपा के विधायक रहे शैलेंद्र प्रधान ने शनिवार को फेसबुक पर लिखा-
धर्म और मजहब का फर्क समझिये-
‘’कठुआ बलात्कार मामले में किये गए ट्वीट: जावेद अख्तर 37, बॉलीवुड 78, राजदीप 17, बरखा दत्त 18, निधि राजदान 14, राहुल गांधी 9…
मंदसौर बलात्कार पर इनके ट्वीट: जावेद अख्तर 0, बॉलीवुड 0, राजदीप 0, बरखा दत्त 0, निधि राजदान 0, राहुल गांधी 0…’’
उनकी इस पोस्ट पर भोपाल के ही सामाजिक कार्यकर्ता और उद्योग संगठनों के प्रतिनिधि राजेंद्र कोठारी ने टिप्प्णी की- ‘’और आपने रामपाल के बारे में क्या कहा। भाजपा के उत्तर प्रदेश के बलात्कारी विधायक के बारे में क्या कहा…’’
मध्यप्रदेश में ही भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे अखिलेन्दु अरजरिया ने फेसबुक पर सवाल उठाया- ‘’जैसी वीभत्स घटना मंदसौर में हुई है, वैसी ही घटना पिछले माह ग्वालियर में हुई थी। फर्क केवल इतना है ग्वालियर की अबोध बालिका जीवित नहीं रह सकी, उसकी लाश मिली थी, जबकि मंदसौर की बालिका का इंदौर में इलाज चल रहा है। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि मंदसौर की घटना को मीडिया में अधिक कवरेज क्यों? वहाँ मुख्यमंत्री की संवेदना अधिक क्यों? राजनीतिक दलों और समाज की सक्रियता वहाँ अधिक क्यों? क्या दोनों घटनाओं में आरोपियों का मजहब देख कर ऐसा हो रहा है? दुष्कर्म तो दुष्कर्म है। इसकी कड़ी निन्दा की जानी चाहिए। अपराधियों को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए।‘’
उधर वाट्सएप पर मेरे पास आया एक संदेश कह रहा था- ‘’मंदसौर पर एक घण्टे पहले राहुल गांधी का ट्वीट आ गया है, पूरे 3 दिन बाद… रवीश कुमार तक अभी भी ये खबर नही पहुँची… अरविंद केजरीवाल से उम्मीदें अभी खत्म नही हुई है… ये वो तीन लोग है जिन्हें सोशल मीडिया पर मुस्लिम समुदाय सबसे बड़ी तादाद में फॉलो करता है…’’
मंदसौर में सात साल की बच्ची से हुई दुष्कर्म की जघन्य और बर्बर घटना को लेकर इसी तरह के कई सारे संदेश सोशल मीडिया पर सैकड़ों की तादाद में चल रहे हैं। ऐसे संदेशों की प्रमुख रूप से दो दिशाएं हैं- पहली दिशा किसी शोध विषय की तरह, ‘’बलात्कार के हिन्दू/मुस्लिम आरोपियों के साथ मीडिया और राजनेताओं का व्यवहार: एक तुलनात्मक अध्ययन’’ पर केंद्रित है तो दूसरी दिशा ऐसी घटनाओं में मीडिया, खासकर नैशनल टीवी मीडिया द्वारा किए जाने वाले कवरेज पर।
मीडिया से वास्ता रखने के कारण आज मैं ऐसी घटनाओं के कवरेज को लेकर मीडिया की नीयत पर अकसर उठाए जाने वाले सवालों पर बात करना चाहूंगा। दरअसल जब भी ऐसी कोई घटना होती है उसके कवरेज को अलग अलग चश्मे से देखने की होड़ शुरू हो जाती है। और जब अपेक्षित कवरेज नहीं मिलता तो लोग मीडिया को गरियाना शुरू कर देते हैं।
मेरा मानना है कि इस स्थिति के लिए मीडिया खुद दोषी है। उसने खुद ऐसे हालात निर्मित किए हैं कि लोग या तो उसकी भूमिका पर उंगली उठाने लगे हैं या फिर उसे गरियाते हुए दबाव बनाने लगे हैं कि वह उनकी मर्जी के मुताबिक घटनाओं की रिपोर्टिंग या कवरेज करे। आज यदि मीडिया को गालियां पड़ रही हैं तो उसका जिम्मेदार वह खुद है क्योंकि उसने घटनाओं के ‘ऑब्जेक्टिव’ कवरेज के बजाय ‘सब्जेक्टिव’ कवरेज का चलन शुरू किया। वह अपराधी को अपराधी की तरह नहीं बल्कि हिन्दू मुसलमान की तरह प्रस्तुत करने लगा है। और उसने घटना को सनसनी में तब्दील करने के लिए लोगों की दाढ़ में जो खून लगाया है, उस खून का स्वाद अब अपना रंग दिखाने लगा है।
मूल रूप से यह खेल राजनीति ने शुरू किया था और बाद में इसे मीडिया ने लपक लिया। अब राजनीति को ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता, वह चुपचाप इस तमाशे को देखती रहती है, क्योंकि इसी बहाने उसका हितसाधन होता रहता है। चाहे किसी भी कारण से हो, मीडिया जब भी ऐसी घटनाओं को सांप्रदायिक रंगों में प्रस्तुत करता है या फिर उनका एकपक्षीय प्रस्तुतीकरण होता है तो राजनीति को अपने आप वह सबकुछ मिल जाता है जो वह चाहती है।
एक तरफ रवीश कुमार सवाल पूछते हैं तो दूसरी तरफ सुधीर चौधरी सवाल उछालते हैं। टीवी एंकर्स को देखकर ऐसा लगता है मानो पत्रकार नहीं, अपनी अपनी लाइन लिए दो राजनीतिक दलों के प्रवक्ता उस घटना पर अपने हिसाब से बयान दे रहे हों। सबका एजेंडा फिक्स है। लोगों को मालूम है कि किस घटना पर अमुक पत्रकार क्या कहेगा और उसे किस रूप में प्रस्तुत करेगा। और यहीं से मीडिया और पत्रकार ट्रोल होने लगते हैं…
यही वजह है कि आप जब अपने टीवी स्क्रीन पर दिल्ली की निर्भया को लेकर मोमबत्तियां जलवाते हैं तो मंदसौर की मासूमा पर भी उतनी ही मोमबत्तियां जलवाने की मांग उठती है। जब आप कठुआ को लेकर दर्जनों नेताओं के बयान दिखाते हैं तो मंदसौर में भी अपेक्षा होने लगती है कि वहां की घटना को लेकर उतने ही बयान आने चाहिए।
यहां मेरा आशय यह कतई नहीं है कि छोटे शहरों में होने वाले वैसी ही घटनाओं को हलके में लिया जाना चाहिए। लेकिन ध्यान से देखें, और गंभीरता से सोचें तो क्या आपको नहीं लगता कि दिल्ली, कठुआ या मंदसौर की ऐसी घटनाओं को साजिशन ऐसे विवादों में लिपटा दिया जाता है ताकि मूल कारणों पर बहस हो ही न सके।
चूंकि मुख्य मीडिया के समानांतर, किंतु उससे बहुत बड़ा एक सोशल मीडिया भी अस्तित्व में आ गया है और वह ऐसे मामलों में ज्यादा उग्र और ‘असरकारी’ है, इसलिए ऐसी घटनाओं के साथ होने वाले मीडिया व्यवहार को वही नियंत्रित करने लगा है। ऐसे मामलों का किस तरह कवरेज होना चाहिए और उस पर किसको, क्या बोलना चाहिए इसके परोक्ष दिशानिर्देश भी वहीं से जारी होने लगे हैं।
सबसे बड़ी दिक्कत यह हो चली है कि ज्यादातर लोगों को ‘रूट कॉज’ यानी घटना की असली वजह से कोई मतलब नहीं। उन्हें इस बात पर आपत्ति होती है कि आपने ‘उस’ घटना पर यदि 10551 शब्द बोले थे तो ‘इस’ घटना पर 10550 शब्द ही क्यूं बोले? और हर बार जोर इस बात पर होता है कि यदि उनके बारे में 10551 शब्द बोले तो हमारे बारे में 11551 शब्द बोलिए।
इस तरह शब्दों की सीमाएं हर बार बढ़ती जाती हैं और दुराग्रह की भी। नतीजा क्या…? नतीजा यह कि अंत में सिर्फ जुबानी जमा खर्च ही खाते में बचा रह जाता है, भावनाएं, संवेदनाएं और समस्या के निराकरण की सार्थक पहल जैसी बातें तिरोहित हो जाती हैं। घटना की गंभीरता का पैमाना यह रह जाता है कि किस घटना पर कितनी मोमबत्तियां जलीं…
कल बात करेंगे- आप बलात्कारी को सजा दिलाना चाहते हैं या किसी हिन्दू अथवा मुसलमान को…