स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं में सुधार केवल बातों से नहीं होगा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्‍ट्रपति के अभिभाषण पर धन्‍यवाद प्रस्‍ताव का जवाब देते हुए बुधवार को राज्‍यसभा में जब, बिहार में चमकी बुखार से हुई मौतों का हवाला देते हुए यह कहा कि आधुनिक युग में ऐसी घटनाओं का होना हम सभी के लिए दुख और शर्मिंदगी की बात है, तो वे शायद एक तरह से नीति आयोग की स्‍वास्‍थ्‍य सूचकांक संबंधी उस रिपोर्ट को ही प्रासंगिक बना रहे थे जो आयोग ने संयोग से प्रधानमंत्री के बयान से ठीक एक दिन पहले जारी की थी।

प्रधानमंत्री ने बिहार के संदर्भ में संसद में कहा- मैं मानता हूं कि पिछले सात दशक में सरकारों के रूप में और समाज के रूप में हमारी जो विफलताएं हैं, उसमें यह एक सबसे बड़ी विफलता है। इसको हम सभी को गंभीरता से लेना होगा।… हम जितना जल्दी हो सके लोगों को इससे बाहर निकालेंगे। पोषण, टीकाकरण, आयुष्मान योजना आदि के जरिये लोगों की मदद करेंगे।

देश में स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की स्थिति को लेकर जारी नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि इस मामले में 21 राज्‍यों की सूची में उत्‍तरप्रदेश सबसे अंतिम पायदान यानी 21 वें नंबर पर है जबकि राजस्‍थान 20वें, बिहार 19 वें, ओडिसा 18 वें और मध्‍यप्रदेश 17 वें नंबर पर । ऊपर से नीचे वाले राज्‍यों की बात करें तो स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के मामले में केरल सबसे बेहतर राज्‍य है और उसके बाद पंजाब, तमिलनाडु, गुजरातऔर हिमाचल प्रदेश का नाम है।

नीति आयोग ने यह रिपोर्ट वर्ष 2014-15 को आधार वर्ष और 2015-16 को संदर्भ वर्ष मानकर तैयार की है। यानी एक तरह से यह मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान रहा देश का सेहतनामा है। रिपोर्ट में आधार वर्ष से लेकर संदर्भ वर्ष के बीच विकसित हुई स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं के आधार पर राज्‍यों को रैंक दी गई है। रैकिंग तय करते समय भी राज्‍यों को तीन भागों में बांटा गया- बड़े राज्‍य, छोटे राज्‍य और केंद्र शासित प्रदेश।

दरअसल बिहार में चमकी बुखार से लेकर लू लगने से हुई करीब 400 मौतों ने देश में स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की बदतर हालत को उघाड़कर रख दिया है। खासतौर से चमकी बुखार के मामले में हुई मौतें तो ऐसी हैं जिन्‍हें समय रहते एहतियाती कदम उठाकर अगर पूरी तरह रोका भी नहीं जाता तो भी काफी हद तक कम किया जा सकता था। ऐसा भी नहीं है कि राज्‍य सरकार और बिहार का स्‍वास्‍थ्‍य विभाग एवं अन्‍य मैदानी अमला इस रोग व उसकी रोकथाम के लिए किए जाने वाले एहतियाती उपायों के बारे में जानता न हो।

बिहार से ही आने वाली खबरें बताती हैं कि 2015-16 के बाद से ही राज्‍य सरकार इस संबंध में पहले से ही रोकथाम के उपाय करती आई थी और उसके चलते इस बुखार से होने वाली मौतों पर काफी हद तक काबू पा लिया गया था। लेकिन देश के स्‍वास्‍थ्‍य राज्‍य मंत्री रहे अश्विनी चौबे का यह कथन स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं के प्रति हद दर्जे की लापरवाही और उदासीनता को उजागर करने वाला है कि इस बार लोकसभा चुनाव में व्‍यस्‍तता के चलते ऐसे उपाय नहीं किए जा सके।

ऐसे में प्रधानमंत्री का संसद में दिया गया यह बयान सरकारों से और भी जिम्‍मेदारीपूर्ण व्‍यवहार की मांग करता है कि ये मौतें पिछले सात दशकों के दौरान सरकार व समाज के स्‍तर पर हुई विफलताओं में से एक सबसे बड़ी विफलता है। नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि प्रदर्शन के लिहाज से अंतिम पांच राज्‍यों में शुमार बिहार में स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की बदहाली के प्रमुख कारणों में कम वजन के बच्‍चों का जन्‍म, टीबी के उपचार में अपेक्षित सफलता हासिल न करना, सार्वजनिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की गुणवत्‍ता में सुधार न लाना और राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के फंड को ट्रांसफर करने में बहुत समय लगाना जैसे कारण शामिल हैं।

इसी तरह उत्‍तरप्रदेश में ऊपर गिनाए गए कारणों के साथ साथ स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं से जुड़े विभिन्‍न प्रमुख पदों पर अफसरों का बहुत कम टिकना भी एक कारण बताया गया है। अब यदि राज्‍य सरकारें उन्‍हें दिए गए फंड को समय रहते जरूरतमंदों के लिए न पहुंचा सकें या फिर प्रमुख अफसरों को लगातार बदलती रहें तो इसके लिए तो नियति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ये काम तो ऐसे हैं जिसमें आपको सिर्फ प्रशासनिक विवेक और प्रबंधन की क्षमता चाहिए। यानी हमारी सरकारें गवर्नेंस की इन मूलभूत मांगों को भी पूरा नहीं कर पा रही हैं।

इसी सिलसिले में थोड़ी बात अपने प्रदेश पर भी करना जरूरी है। नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि मध्‍यप्रदेश स्‍वास्‍थ्‍य सूचकांक की सूची में अंतिम पांच राज्‍यों में शामिल है। यहां कई मामलों में आधार वर्ष की तुलना में संदर्भ वर्ष में या तो यथास्थिति बनी हुई है या फिर यदि सुधार भी हुआ है तो उसका प्रतिशत नगण्‍य है। मध्‍यप्रदेश जैसे राज्‍य के लिए यह परिदृश्‍य इसलिए भी चिंता में डालने वाला है क्‍योंकि हम पहले से ही शिशु मृत्‍यु दर में देश के अव्‍वल राज्‍यों में शुमार चल रहे हैं।

एक और मामला कुपोषण से लड़ाई का है। कुपोषण दूर करने के लिए करोड़ों रुपए का बजट हर साल आवंटित होता है, लेकिन उसका सदुपयोग बहुत कम हो पाता है। कुपोषण का शिकार हुए बच्‍चे शिशु मृत्‍यु दर में इजाफे का एक बड़ा कारण बनते हैं और उसकी वजह से राज्‍य ओवरऑल स्‍वास्‍थ्‍य सूचकांक में निचले पायदान पर चला जाता है।

एक और बात जो ध्‍यान देने की है वह स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं में सुधार और उनकी गुणवत्‍ता सुनिश्चित करने के प्रति दर्शाई जाने वाली राजनीतिक इच्‍छाशक्ति की है। स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं को लेकर बात बहुत होती है लेकिन मैदानी स्‍तर पर वे बातें कार्यरूप में परिणत उतनी नहीं हो पातीं। जरूरत इस बात की है कि सेवाएं देने का जितना हल्‍ला मचाया जाता है, उतनी सेवाएं सही मायने में लोगों को मिलें भी।

जैसाकि प्रधानमंत्री ने संसद में कहा है कि केंद्र व राज्‍य सरकारों को मिलकर, जनता को स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की इस बदहाली से बाहर निकालना होगा, तो बेहतर होगा केंद्र व राज्‍य में एक ही दल की सरकार होने के कारण बेहतर समन्‍वय और समझ का परिचय देते हुए भाजपा शासित राज्‍य सरकारें इस मामले में उदाहरण प्रस्‍तुत करें। इसके लिए जरूरी है कि उत्‍तरप्रदेश जैसे राज्‍य को सबसे निचली पायदान से उठाकर थोड़ा तो ऊपर लाया जाए…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here