मंगलवार को मैंने अपनी बात गुलाम नबी आजाद द्वारा टीवी चैनल आज तक के एजेंडा कार्यक्रम में कहे गए गालिब के एक शेर से खत्म की थी। गालिब का वह शेर है- ‘’जब तवक्को ही उठ गई गालिब, क्यूं किसी का गिला करे कोई।‘’ और गुलाम नबी ने उसका जिक्र यह कहते हुए किया था कि- ‘’जब तवक्का ही उठ गई गालिब, तुमसे तवक्का क्या करें।‘’
आज की बात इसी शेर से शुरू होती है। दरअसल इस समय देश में जो कुछ हो रहा है, खासतौर से नागरिकता संशोधन कानून को लेकर, उसके पीछे सबसे बड़ी बात भरोसे की ही है। कोई भी सत्ता हो या उस सत्ता के द्वारा बनाया गया कानून, इनका मतलब या जलाल तभी तक है जब तक लोग उस पर भरोसा करें। जिस दिन लोग संविधान, कानून और सत्ता पर भरोसा करना छोड़ देंगे, याद रखें, उस दिन कोई भी डंडा लोगों का मुंह बंद नहीं कर पाएगा। और शायद आज यही हो रहा है…
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर पूर्वोत्तर से भड़की आग दिल्ली तक पहुंच चुकी है। आमतौर पर दिल्ली में ये दिन कड़ाके की ठंड के होते हैं और इन दिनों में लोग बड़े चाव से अलाव जलाकर आग में हाथ तापना पसंद करते हैं। वह आग उन्हें सुकून देती है। पर इन दिनों जो आग दिल्ली में लगी हुई है वह सुकून देने वाली नहीं बल्कि देश के जिस्म को जलाने वाली है। उससे हाथ सिक नहीं रहे, उन पर फफोले पड़ रहे हैं।
यही वजह है कि इस आग की आंच बहुत ऊपर तक पहुंची है और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपील जारी करनी पड़ी है। उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून पर जारी हिंसा रोकने के लिए सोमवार को एक अपील जारी की। इसमें मोदी ने कहा कि- ‘’बहस, चर्चा और असंतोष लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन सार्वजनिक संपत्ति को नुकसाना पहुंचाना और आम जीवन को प्रभावित करना लोकतंत्र का हिस्सा नहीं है। ये वक्त शांति बरतने और एकता दिखाने का है। मैं सभी से अपील करता हूं कि ऐसे वक्त में किसी भी तरह की अफवाह और झूठ से बचें।‘’
प्रधानमंत्री ने एक बार फिर साफ किया कि- ‘’नागरिकता संशोधन कानून, 2019 संसद के दोनों सदनों के द्वारा पास किया गया है। बड़ी संख्या में राजनीतिक दलों और सांसदों ने इस बिल का समर्थन किया है। यह कानून भारत की पुरानी संस्कृति, जो कि भाईचारा सिखाती है, उसका संदेश देता है।’’
‘’मैं भारत के सभी नागरिकों को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि नागरिकता संशोधन कानून किसी भी धर्म के नागरिक को प्रभावित नहीं करता है। किसी भी भारतीय को इस कानून से चिंता करने की जरूरत नहीं है। यह सिर्फ उनके लिए है जिन्होंने बाहर के देश में जुल्म झेला है और भारत के अलावा उनके लिए (शरण पाने की) कोई जगह नहीं है।… समय की आवश्यकता है कि आज सभी भारत के विकास में काम करें और गरीब, पिछड़े लोगों को सशक्त करने के लिए एक हों। हम स्वार्थी समूहों को, इस प्रकार हमें बांटने और अशांति पैदा करने की इजाजत नहीं दे सकते।‘’
शब्दों की दृष्टि से इस अपील में कोई खोट नहीं है। इससे पहले संसद में नागरिकता संशोधन बिल पर हुई बहस के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने भी कमोबेश ऐसी ही बातें कहते हुए, विपक्षी दलों और संसद के माध्यम से देश की जनता को आश्वस्त करने की कोशिश की थी। तो जब देश के गृहमंत्री और प्रधानमंत्री खुद कह रहे हों कि इस कानून से लोगों को डरने की जरूरत नहीं है, तो फिर क्या कारण है कि लोग भड़के हुए हैं और देश में आग लग रही है।
सत्ता पक्ष का आरोप है कि ऐसा विपक्षी दलों द्वारा लोगों में भ्रम फैलाए जाने और उन्हें हिंसा के लिए भड़काए जाने के कारण हो रहा है। पर क्या बात सचमुच इतनी सी ही है। क्या लोग चंद नेताओं के बहकावे या उकसावे में आकर इतनी हिंसा पर उतारू हो गए हैं? और क्या देश के विश्वविद्यालयों में ऊंची शिक्षा की पढ़ाई करने वाले छात्र भी इतने नादान हैं कि वे बहकावे में आकर हिंसा के इस स्तर तक जा रहे हैं।
नहीं, बात इतनी सी नहीं है। मूल बात है सरकार की बात पर से लोगों का भरोसा उठना। सरकार के मन में भले ही सौ फीसदी सच्चाई या खरापन हो लेकिन लोग यह मानने को तैयार नहीं है कि यह जो बात निकली है वह इसी दायरे तक सीमित होकर रहेगी, दूर तलक नहीं जाएगी। उन्हें लगता है कि सरकार आज भले ही ऐसा कह रही हो लेकिन भविष्य में ऐसा ही होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
और यही वह बिंदु है जिसने मामले को इतना उलझा दिया है। आप बहुमत से या बहुमत के जोड़तोड़ से संसद में कानून तो बनवा सकते हैं, उन्हें पास भी करवा सकते हैं, लेकिन बहुमत से या जोड़तोड़ से लोगों के मन में भरोसा पैदा नहीं कर सकते। और डंडे के जोर पर तो कतई नहीं। यहां मुझे एक बार फिर गुलाम नबी आजाद को ही कोट करना पड़ रहा है जिन्होंने लोगों को विपक्ष द्वारा भड़काए जाने के आरोप का जवाब देते हुए सोमवार को मीडिया से कहा था कि- ‘’यदि कांग्रेस में इतनी ही ताकत होती कि इतना बड़ा विद्रोह करा सके तो आज आप सत्ता में नहीं होते।‘’
असल बात यह है कि अव्वल तो भरोसा बहुत मुश्किल से पैदा होता है और यदि एक बार वह टूट जाए तो उसे जोड़ना और भी मुश्किल होता है। यदि आप उसे जोड़ना या बनाए रखना चाहते हैं तो उसके लिए जरूरी है कि आपकी जुबान और आपके आचरण से फफोले पैदा न हों। यदि ऐसा हो भी जाए तो आपके पास वह मरहम भी होना चाहिए जो तत्काल उन फफोलों से राहत दे सके। हिंसा करने वालों की पहचान उनके कपड़ों से करके आप फफोलों को ठंडा नहीं कर रहे, बल्कि उन पर अंगारे रख रहे हैं।