मुझे नहीं पता कि सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश सरकार से जो सवाल किया है उसका सरकार के पास क्या जवाब है? और एक बार को यदि सरकार उस सवाल का कागजी जवाब तैयार करके सुप्रीम कोर्ट को दे भी दे तो भी उस कड़वी सचाई का क्या करेगी जो कभी गले के नीचे उतरने वाली नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को मध्यप्रदेश सरकार से बहुत तल्ख अंदाज में पूछा कि क्या आप दुष्कर्म की कीमत 6,500 रुपए लगाते हैं? क्या सरकार इतनी कम राशि देकर ‘चैरिटी’ कर रही है? शीर्ष अदालत ने इस बात पर हैरानी जताई कि जो मध्यप्रदेश निर्भया फंड से सबसे ज्यादा राशि पाने वालों में शुमार है वहां दुष्कर्म पीड़िताओं को सिर्फ छह-साढ़े छह हजार रुपए ही दिए जा रहे हैं।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट इन दिनों निर्भया फंड की राशि खर्च किए जाने संबंधी एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है। 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में हुए निर्भया सामूहिक दुष्कर्म कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षण को लेकर कोर्ट में छह याचिकाएं लगाई गई हैं। कोर्ट ने इन सभी याचिकाओं को एकसाथ जोड़ते हुए इन पर सुनवाई शुरू की है।
दिल्ली के निर्भया कांड के बाद सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा का ढांचा विकसित करने और पीडि़ताओं को मदद देने के लिहाज से 2013 में निर्भय फंड की शुरुआत की थी। इसके तहत केंद्र सरकार हर साल एक हजार करोड़ रुपए देती है। इस फंड की राशि के उपयोग को लेकर कई बार सवाल उठे हैं। 2013 से 2016 तक निर्भया फंड में तीन हजार करोड़ रुपए दिए गए। इस राशि के इस्तेमाल के बारे में महिला एवं विकास मंत्रालय का कोर्ट में कहना था कि इन तीन वर्षों में करीब 600 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं।
इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि बाकी बचे हुए 24 सौ करोड़ रुपए का इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ। 19 दिसंबर, 2017 को लोकसभा में सरकार के एक बयान के मुताबिक निर्भया फंड से मध्यप्रदेश को विभिन्न मदों में 21.80 करोड़ रुपए मिले, जो उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक है। लेकिन राज्य ने 1,951 दुष्कर्म पीड़िताओं पर सिर्फ एक करोड़ रुपए खर्च किए है।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले माह सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को यह हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया था कि निर्भया फंड के तहत पीड़िता को मुआवजा देने के लिए उन्हें कितनी राशि मिली, कितनी राशि उन्होंने बांटी और राज्य में यौन हिंसा पीडि़त कितनी महिलाएं हैं।
सुप्रीम कोर्ट इस बात से भी काफी खफा नजर आया कि उसके निर्देशों के बावजूद 24 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों ने अभी तक हलफनामा दाखिल नहीं किया है। बड़ी नाराजी से उसने कहा ‘आप अपना समय लीजिए और अपने राज्य की महिलाओं को बता दीजिए कि आप उनकी फिक्र नहीं करते।’ कोर्ट ने अब इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को चार सप्ताह में हलफनामा दायर करने को कहा है।
दरअसल इस पूरे मामले के दो पहलू हैं। पहला तो यह कि सरकारें महिलाओं के साथ कोई घटना हो जाने के बाद महिला सुरक्षा को लेकर शोर तो बहुत मचाती हैं लेकिन असलियत में उनका सारा काम परंपरागत ढर्रे पर ही चलता है। घटना के बाद मचा बवाल जैसे ही ठंडा पड़ता है महिला सुरक्षा का मामला भी ठंडे बस्ते में चला जाता है।
सुप्रीम कोर्ट में जो स्थिति बनी वह पूरे देश की शासन प्रणाली पर कलंक की तरह है क्योंकि महिलाओं की हिफाजत का ढिंढोरा पीटने वाली सरकारें कोर्ट को यह तक बता सकने में नाकाम रही हैं कि उनके यहां यौन हिंसा से पीडि़त महिलाओं की संख्या कितनी है, निर्भया फंड के तहत उन्हें कितनी राशि मिली और उसमें से उन्होंने कितनी पीडि़ताओं की मदद की। यानी एक साधारण मुनीम की हैसियत वाला काम भी सरकारों का भारी भरकम अमला नहीं कर पा रहा है।
दूसरी बात पीडि़ताओं को मिलने वाली मदद की राशि की है। आज भी ऐसी घटनाओं में अलग अलग राज्यों में मुआवजे की राशि अलग अलग दी जा रही है। इससे दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या हो सकती है कि पूर्वोत्तर की महिला के साथ यौन हिंसा हो तो उसे मुआवजे की रकम अलग मिले और मध्यप्रदेश, राजस्थान या हरियाणा में दुष्कर्म हो तो रकम कुछ और मिले। वैसे तो किसी भी महिला की अस्मत का मोल कोई नहीं दे सकता, लेकिन यदि आपने उसके लिए भी ‘मुआवजे’ जैसी कोई व्यवस्था(?) बनाई है तो कम से कम उसमें एकरूपता तो हो?
हैरानी की बात तो यह है कि यौन हिंसा से पीडि़त महिलाओं की मदद के नाम पर आई राशि को भी राज्य सरकारें दूसरी मदों में खर्च कर रही हैं। दिसंबर 2017 में खुद निर्भया की मां ने अपनी बेटी की पांचवीं बरसी पर उत्तरप्रदेश के अपने गांव में आयोजित श्रद्धांजलि कार्यक्रम में गहरा दुख जताते हुए कहा था कि निर्भया फंड का मुख्य उद्देश्य महिला सुरक्षा व सशक्तीकरण है। इसके उलट इस राशि का उपयोग अन्य सरकारी विभागों के लिए किया जा रहा है।
रही बात मध्यप्रदेश की, तो कई बार ऐसा लगता है कि कुछ मामलों में हमारा राज्य अव्वल से नीचे आने को तैयार ही नहीं है। पता नहीं क्यों हमने दुष्कर्म और शिशु मृत्य जैसे मामलों में सबसे ऊपर रहने की ही ठान रखी है। गत वर्ष नवंबर में नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने जो आंकड़े जारी किए थे उनके अनुसार देश में 2016 में बलात्कार के 38,947 मामले दर्ज हुए। इनमें सबसे ज्यादा 4,882 मध्यप्रदेश में हुए। बाल अपराधों में भी मध्यप्रदेश देश भर में तीसरे स्थान पर है।
हालांकि एनसीआरबी ने महिला अपराधों के दोषियों को सजा दिलाने के मामले में राज्य की स्थिति को सराहा भी था। ब्यूरो ने माना कि यहां चार्जशीट दायर करने की दर 90 प्रतिशत है, जो बड़े राज्यों में प्रथम है। इसके अलावा मध्यप्रदेश देश का ऐसा पहला राज्य है जिसने 12 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों और गैंगरेप के मामले में दोषियों को फांसी की सजा के प्रावधान वाला कानून बनाया है।
लेकिन इसके बावजूद हमें तय करना होगा कि हमारे लिए अपराध हो जाने के बाद, अपराधियों को सजा दिलाने वाली व्यवस्था ज्यादा सही है या अपराधों पर लगाम लगाने वाली व्यवस्था?