जी हां, मैं संगीत खरीदता हूं 

गिरीश उपाध्‍याय 
———-
जी हां,
मैं संगीत खरीदता हूं
कुछ सुर होंगे तुम्हारे पास
जो मचलते दिल को बहला सकें
कुछ तानें होंगी तुम्हारे पास
जो डबडबाई आंखों का पानी
वापस लौटा सकें
क्या कुछ ‘आलाप’ हैं तुम्हारी टोकरी में
जो मेरे हाथों को इतना लंबा कर दें
कि मैं आकाश को छू सकूं
कुछ ‘जोड़’ हों तो बताओ मुझे
दिल के किरचे बिखरे पड़े हैं
जरा कोई ‘क्लॉसिक’ दिखाओ
मन को अतीत की सुरंग में कुछ तलाशना है
कोई ‘सुगम’ भी चलेगा
पांव में छाले बहुत हैं
सुना है तुम तो हर तरह का संगीत रच लेते हो
कोई ऐसा संगीत है तुम्हारे पास
जो इस कोलाहल में
बसंती हवा के गुजरने का अहसास करा दे
अभी न हो तो कोई बात नहीं
थोड़े दिन बाद आ जाना
पर आना जरूर…
वो सुर, वो संगीत लेकर
जिसकी धुन इंसानियत के तारों से निकली हो
कहा ना मैंने-
मैं संगीत खरीदता हूं…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here