अनिल यादव
वो फरवरी 2013 की एक दोपहर थी। सड़क के दोनों ओर खेतों में खड़ी फसलें पक चली थीं। मैं उस दिन सागर की ओर निकला था। हमेशा की ही तरह मेरे साथ, मेरे सहयोगी छायाकार राजा छारी भी थे। अचानक दर्जन भर से भी ज्यादा कुत्तों के साथ, कन्धों पर बल्लम-भाला रखे कुछ लोग एक खेत से निकलते दिखे। जब तक मैंने गाड़ी रोकी वे सड़क पार करके दूसरी तरफ के खेतों में खड़ी फसलों में गायब हो चुके थे।
ये एक असामान्य नजारा था और ऐसा कुछ मैंने पहली बार देखा था। मुझे अनुमान लग गया था कि यदि मैं धीरज रखूँ तो जल्दी ही मुझे कोई अविस्मरणीय घटनाक्रम देखने को मिल सकता है। हमने गाड़ी साइड में लगा ली और फिर उन लोगों के आने का इन्तजार करने लगे। करीब घंटे भर बाद खेतों से कुत्तों के भौंकने की आवाजें आने लगीं। फिर वे लोग एक-एक कर खेतों से निकलते दिखे। लगभग सभी रस्सियों से कुत्तों को थामे हुए थे। सबसे पीछे चल रहे अंतिम दो लोग कुछ घसीट कर ला रहे थे। वो एक ताजा-ताजा शिकार किये गए जंगली शूकर की लोथ थी।
मैं कई घुमक्कड़ जातियों-जनजातियों में आता जाता रहता हूँ, उनमें से कई शिकारी जनजातियाँ भी हैं। लेकिन कम से कम ये तो मुझे एक नई शिकारी जाति के सदस्य लगे, जिनके साथ इतने सारे कुत्ते भी थे। मैंने कुत्तों को गिनने की कोशिश की वे बीस से भी अधिक थे और सब के सब रस्सियों से बंधे हुए थे। मैंने उन लोगों से बातचीत करने की कोशिश की लेकिन किसी ने भी मुझ से बातचीत करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
मेरा दिल मुझे विवश कर रहा था कि मैं उनके बारे में सबकुछ जानू-समझूँ। लेकिन सुनसान-अनजान से इलाके में खतरनाक कुत्तों और भालों से लैस लोगों को नाराज करना मँहगा भी पड़ सकता था। वे सड़क से उतर कर एक पठार की ओर बढ़ रहे थे जहाँ कुछ डेरे लगे हुए नजर आ रहे थे। फिर मैंने उन सबके पीछे आते हुए एक बड़े-बड़े गलमुच्छेधारी बुजुर्ग को देखा और उनसे राम-राम करके बात करने की एक नई कोशिश और की। वे वाहन सवार एक अनजान व्यक्ति की अप्रत्याशित राम-राम से हैरान से हो गये और उसका जवाब देते हुए रुक गये।
मैंने उन्हें बताया कि मैं सिर्फ उन सबकी जीवनचर्या देखना चाहता हूँ और मेरी वजह से किसी को भी कोई नुकसान नहीं होगा, वे मेरा यकीन करें, और मुझे अपने साथ चलने दें। उन ने पहले मुझे गौर से देखा और सहमति दिखाते हुए अपना सिर हिला दिया। मैंने उन्हें अपने साथ ही गाड़ी में बैठा लिया।
रास्ते में उन्होंने बताया वे नटों की ही एक शाखा ’नौना’ हैं, उनका समुदाय सदियों से यूं ही गांव-गांव घूमते-फिरते जीवन-यापन करता आया है। खेतों को उजाड़ने वाले जंगली सुअरों का शिकार करना उनका मुख्य पेशा है। इन दिनों जंगलों से लगे हुए खेतों में जंगली सुअरों के बड़े-बड़े झुण्ड फसलों को बहुत नुकसान पंहुचाते हैं। हम यहाँ उन्हीं का शिकार करने के लिए अपने डेरे डाले हुए पड़े हैं। हमारे बाप-दादा भी यही करते आये हैं, अब हम भी यही करते हैं। जब हमें खेतों में जंगली सुअर नहीं मिलते तो हम मेहनत-मजदूरी कर लेते हैं, वरना हमेशा से हम यूँ ही खेतों में जंगली शूकर मारकर अपना पेट भरते आए हैं।
जब हम उनके डेरों पर पंहुचे तो देखा वे सभी डेरे, पुरानी धोतियों और बांसों से बने हुए अस्थाई रहवास थे। (कड़ाके के जाड़े में, इस खुले जंगल में, उन डेरों में क्या ठंड बच पाती होगी?) बाहर उनकी दर्जनों बकरियां और खच्चर चर रहे थे। लगभग सभी डेरों के बाहर बने चूल्हों पर रोटियाँ बनाने की तैयारियाँ हो रहीं थीं। कुछ जगह खुले आसमान तले सिलबट्टों पर मसाले पीसे जा रहे थे। सामने के एक मैदान में एक जगह आग धधक रही थी और बच्चे-बूढ़े-जवान उसे घेरे बैठे थे। वहाँ वह ताजा शिकार भूना जा रहा था। फिर हर डेरे से बच्चे अपने बर्तन ले आए। देखते ही देखते सब डेरे वाले अपना ‘बांटा’ (हिस्सा) ले गए।
हमने उनसे अनुमति लेकर इस पूरे आयोजन को फिल्माया और तस्वीरें उतारीं। मेरी जिज्ञासा शांत हो गई थी और मैंने उस घुमक्कड़ समुदाय की वो जिन्दगी बहुत करीब से देख ली थी जो अब आगे के कुछ सालों में ‘शायद’ पूरी तरह बदल जाने वाली थी। हो सकता है जो हमने देखा, फिल्माया, तस्वीरें लीं वो भारत की आने वाली पीढ़ी को अजूबा लगे और यकीन ही न हो कि हमारे देश में इसी सदी के आरम्भ में कई घुमक्कड़ समुदाय इस तरह भी जीवन गुजारते थे।
और यह भी हो सकता है कि कुछ लोगों को ये तस्वीरें और वृतांत आपत्तिजनक भी लगें लेकिन ये हमारे भारत का एक अनदेखा सच दिखाती हैं। जिससे आँखे फेरने की नहीं उसे बेहतर बनाने की जरूरत है।
———————-
आग्रह
कृपया नीचे दी गई लिंक पर क्लिक कर मध्यमत यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें।
https://www.youtube.com/c/madhyamat
टीम मध्यमत