वाम पड़ताल-5
कुछ भी हो, वामपंथियों और समाजवादियों के साथ मुझे एक बात अच्छी लगती है और वह है उनके सवाल। वे सवाल करते भी हैं और उठाते भी हैं। दूसरों से सवाल करने का अवसर न मिले तो आपस में सवाल करने लगते हैं। समाजवादियों के बारे में तो मुझे किसी ने मजाक में बहुत मार्के की बात कही थी कि दूसरों के कपड़े उतारने या फाड़ने में उन्हें महारत है। दूसरों के साथ ऐसा न कर पाएं तो खुद अपने ही कपड़े फाड़ने लगते हैं।
व्यक्ति हो या विचार, परिवार हो या समाज, प्रश्न का होते रहना सभी के लिए जरूरी है। लेकिन इसके साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न हों या सिर्फ उत्तर ही उत्तर हों तो भी काम नहीं चल सकता। प्रश्न और उत्तर का सिलसिला होना चाहिए। ताकि समाधान भी होता रहे और जिज्ञासा भी पनपती रहे। इस लिहाज से आज यदि वाम बैठकर ‘प्रगतिशीलता की विरासत और हमारा समय’ पर चर्चा के बहाने यह सवाल कर रहा है कि आज क्यों दक्षिण का सूरज शिखर पर है और वाम दूर कहीं ढलती हुई शाम सरीखा क्यों लगता है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
स्वागत इसलिए कि सौ साल बाद ही सही, अस्त होने की नौबत आ जाने के बाद ही सही, यदि यह सवाल किया जा रहा है और इस पर विमर्श किया जा रहा है तो यह इस बात का संकेत है कि सांसें अभी पूरी तरह बंद नहीं हुई हैं। वाम और दक्षिण में एक बड़ा अंतर यह है कि वाम के पास तर्क और प्रश्नों का जखीरा है तो दक्षिण के पास सिर्फ ‘उत्तर’ या निर्देश हैं। वहां प्रश्न के लिए गुंजाइश बहुत कम है और जब प्रश्न के लिए गुंजाइश बहुत कम बचे तो मानकर चला जाना चाहिए कि कभी न कभी पोटली में रखे वे सारे उत्तर आपके सामने प्रश्न बनकर खड़े हो जाएंगे और हो सकता है फिर आपके सामने उत्तर का संकट खड़ा हो जाए।
लेकिन अभी हम बात कर रहे हैं वाम के आत्मनिरीक्षण की। वाम यदि प्रश्न करके अपनी विरासत को टटोलते हुए अपनी दुर्दशा पर गमगीन है, तो दक्षिण ने उत्तर की सीढ़ी का सहारा लेकर उस विरासत का उत्तराधिकार हथिया लिया है। ऐसे में वाम जो सवाल उठा रहा है उन्हें उठाते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि कहीं उन सवालों से उसकी समूची विरासत, परंपरा और उत्तराधिकार के ही संदिग्ध या खारिज हो जाने का खतरा तो नहीं है।
उदाहरण के तौर पर आशुतोष कुमार की कही हुई यह बात कि ’’अब हमारे लेखकों की पहचान बदली जा रही है। चाहे सूरदास हों, निराला हों, सबको ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ सिद्ध किया जा रहा है।‘’ लेकिन आशुतोष यहीं नहीं रुके। उन्होंने इससे भी आगे बढ़कर ‘आंदोलन को आंबेडकरी बनाने और आंबेडकर (विचार) को रेडिकल बनाने की आवश्यकता बताई।‘’ जिस तरह सूरदास के लिए ‘हमारा लेखक’ और दक्षिण के द्वारा उन्हें ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ सिद्ध करने की बात चौंकाती है उसी तरह प्रगतिशील आंदोलन को आंबेडकरी बनाने और आंबेडकर (विचार) को रेडिकल बनाने की बात भी हक्का बक्का कर देती है। समझना मुश्किल है कि आंबेडकर को रेडिकल बनाने के मायने और मंशा क्या है? क्या आने वाले दिनों में हम यह भी सुनने को तैयार रहें कि बुद्ध और गांधी को भी रेडिकल बनाने की जरूरत है?
जब हम विरासत की बात कर ही रहे हैं और आंबेडकर का जिक्र भी आया है, तो बेहतर होगा हम विरासत और इतिहास को थोड़ा सा खंगाल कर देख लें। आंबेडकर के जीते जी (विचार के स्तर पर) वाम और उनके रिश्ते क्या और कैसे थे यह बात किसी से छिपी है क्या? फिर भी यदि किसी को जानना और नई पीढ़ी को यह बात समझना हो तो बहुत मंथन करने के बजाय भारतीय संविधान को अंतिम रूप देकर उसे स्वीकार किए जाने से पहले, ड्राफ्ट कमेटी के मुखिया होने के नाते संविधान सभा के सामने 25 नवंबर 1949 को दिया गया आंबेडकर का भाषण पढ़ लेना पर्याप्त होगा।
आंबेडकर ने सभा को संबोधित करते हुए कहा था- ‘’संविधान की निंदा मुख्य रूप से दो दलों द्वारा की जा रही है- कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी। वे संविधान की निंदा क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि वह वास्तव में एक बुरा संविधान है? मैं कहूंगा, नहीं। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है। वे संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। सोशलिस्ट दो बातें चाहते हैं। पहली तो वे चाहते हैं कि संविधान यह व्यवस्था करे कि जब वे सत्ता में आएं तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे मुआवजे का भुगतान किए बिना, समस्त निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण या सामाजिकरण कर सकें। सोशलिस्ट जो दूसरी चीज चाहते हैं, वह यह है कि संविधान में दिए गए मूलभत अधिकार असीमित होने चाहिए, ताकि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आने में असफल रहती है तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे न केवल राज्य की निंदा कर सकें, बल्कि उसे उखाड़ फेंकें।‘’
आंबेडकर ने कहा था- ‘’मुख्य रूप से ये ही वे आधार हैं, जिन पर संविधान की निंदा की जा रही है। मैं यह नहीं कहता कि संसदीय प्रजातंत्र राजनीतिक प्रजातंत्र का एकमात्र आदर्श स्वरूप है। मैं यह नहीं कहता कि मुआवजे का भुगतान किए बिना निजी संपत्ति अधिगृहीत न करने का सिद्धांत इतना पवित्र है कि उसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। मैं यह भी नहीं कहता कि मौलिक अधिकार कभी असीमित नहीं हो सकते और उन पर लगाई गई सीमाएं कभी हटाई नहीं जा सकतीं। मैं जो कहता हूं, वह यह है कि संविधान में अंतनिर्हित सिद्धांत वर्तमान पीढ़ी के विचार हैं। यदि आप इसे अत्युक्ति समझें तो मैं कहूंगा कि वे संविधान सभा के सदस्यों के विचार हैं। उन्हें संविधान में शामिल करने के लिए प्रारूप समिति को क्यों दोष दिया जाए? मैं तो कहता हूं कि संविधान सभा के सदस्यों को भी क्यों दोष दिया जाए?’’
आज प्रगतिशील या वाम आंदोलन को आंबेडकरी बनाने और आंबेडकर (विचार) को रेडिकल बनाने की जो बात की जा रही है, तो क्या उसके साथ साथ 1949 में आंबेडकर की इन बातों में छिपे सवालों, निहितार्थों आदि को भी स्वीकार करते हुए, इतिहास में दर्ज अपनी विरासत के उन पन्नों को जला देने पर भी रजामंदी है?