पिछले 24 घंटों के दौरान मैं कई बार तमाम टीवी न्यूज चैनलों को बदल बदलकर देख चुका हूं कि कहीं तो मुझे उस मामले पर कोई चर्चा करता या बयान देता हुआ दिखाई दे। कोई तो हो जो मुंह में माइक ठूंस कर लोगों से पूछे कि इस बारे में आपका क्या कहना है? कोई तो हो जो चीख-चीख कर कहे कि ध्यान से देखिए इन गुनहगारों को जिन्होंने तमाम कानून कायदों, सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइनों और अपनी खुद की नैतिकता और आचार संहिता की धज्जियां उड़ाई हैं…
लेकिन मुझे कहीं कोई दिखाई नहीं दिया। सडि़यल से सडि़यल बात पर भी, अपने पैनलों को किसी भी ऐरे गैरे को बिठाकर आबाद कर लेने वाले चैनलों पर मुझे ऐसी कोई पेशकश दिखाई नहीं दी जिसमें उस विषय पर बात की गई हो। न ही किसी ने इस पर घंटी बजाई, न ही कोई क्रांतिकारी… बहुत क्रांतिकारी कार्यक्रम प्रस्तुत किया और न ही किसी ने इसका डीएनए टेस्ट किया…
अपनी इस अवांछित तलाश में अंतत: मैंने अपनी हार स्वीकार कर ली और खुद के सवाल का खुद ही जवाब दिया कि हम मीडिया वाले अपनी जांघ कभी नहीं उघाड़ा करते, हमारा काम सिर्फ और सिर्फ दूसरों की चड्डी उतारना है। अपने आप को ‘होली काऊ’ बताने के लिए हम अपनी चमड़ी पर खुद की आचार संहिता का सुनहरा रंग पोत लेते हैं ताकि उस सुनहरी परत के नीचे अपना नितांत कालापन और बदसूरती छिपा सकें।
मामला उस कठुआ का है जो इन दिनों सबसे अधिक चर्चा में है। जिसको लेकर मीडिया और सोशल मीडिया में क्या-क्या नहीं कहा सुना गया होगा। एक बच्ची के साथ हुई जघन्य घटना पर समूचा देश इन दिनों आंदोलित है। मैं यहां न तो उस घटना के सच और झूठ पर बात करने जा रहा हूं और न ही उसको लेकर हो रही राजनीति पर।
एक मीडियाकर्मी होने के नाते आज मेरी चिंता के केंद्र में दिल्ली हाईकोर्ट का वह फैसला है जिसमें उसने कठुआ मामले की गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग को लेकर 12 मीडिया संस्थानों पर 10-10 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। बुधवार को मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने मीडिया को चेतावनी देते हुए कहा कि भविष्य में यदि कोई ऐसा करता पाया गया तो उसे सख्त सजा दी जाएगी।
सुनवाई के दौरान मीडिया संस्थानों ने हाईकोर्ट के सामने माफी मांगी। एक्टिंग चीफ जस्टिस गीता मित्तल और जस्टिस सी. हरिशंकर की पीठ ने इन मीडिया घरानों को आदेश दिया कि मुआवजे की राशि एक सप्ताह के अंदर हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल के पास जमा की जाए और उसे जम्मू-कश्मीर की लीगल सर्विस अथॉरिटी के खाते में डाला जाए। इस राशि का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर में पीड़ितों के उत्थान के लिए किया जाएगा। मामला अभी चल रहा है और इसकी अगली सुनवाई 25 अप्रैल को होगी।
खबरें कहती हैं कि कोर्ट की कार्यवाही के दौरान मीडिया हाउसेस की पैरवी कर रहे वकीलों ने कहा कि ‘’कानून की सही समझ न होने के कारण कठुआ गैंगरेप पीड़िता की पहचान गलती से उजागर हो गई।‘’ मीडिया को फटकार लगाने के साथ ही कोर्ट ने पीड़िता के बारे में ऐसी कोई भी जानकारी प्रकाशित अथवा प्रसारित करने पर रोक लगा दी है जिससे उसकी पहचान उजागर होती हो। इसमें उसका नाम, पता, फोटो,पारिवारिक ब्योरा, स्कूल संबंधी जानकारी, पड़ोस का ब्योरा आदि शामिल है।
कठुआ मामले में मीडिया की तरफ से जो सबसे गंभीर अपराध हुआ है वह पीडि़ता की पहचान उजागर करने का है। मैं यहां अपराध शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर कर रहा हूं क्योंकि यह गलती या चूक नहीं है। मीडिया घरानों के वकीलों का कोर्ट में यह कहना समझ से परे है कि कानून की सही समझ न होने के कारण उनसे ऐसी गलती हो गई।
ऐसा कैसे हो सकता है कि ऊपर से नीचे तक इतने सारे मीडिया हाउसेस का सारा संपादकीय स्टाफ एक साथ गफलत में आ गया हो और सभी ने सामूहिक रूप से वह गलती कर डाली जो नैतिक रूप से ही नहीं बल्कि कानूनी रूप से भी अक्षम्य है। ऐसे में यदि मीडिया पर यह आरोप लगता है कि उसने जानबूझकर यह काम किया तो इस आरोप को खारिज या नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है?
जब आप दूसरों से नैतिकता या कानून कायदों के पालन की अपेक्षा करते हैं और उनके द्वारा ऐसा न किए जाने पर अपने कार्यक्रमों और पैनल चर्चाओं में आड़ी टेढ़ी भंगिमाएं बनाते हुए ऐसे लोगों या समूहों की चमड़ी उधेड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखते तो आपसे अपेक्षा यह भी की जाती है कि अब कुछ कोड़े अपनी पीठ पर भी बरसाएं।
मुद्दे की गंभीरता इस लिहाज से और भी बढ़ जाती है कि बात बात पर राजनेताओं और राजनीतिक दलों को गाली देने वाले मीडिया के इस अपराध पर राजनीतिक क्षेत्र ने भी चुप्पी साध ली। क्या राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र से इस बात को उठाकर मीडिया को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए था कि वह हाईकोर्ट का फैसला आने के 24 घंटे के भीतर अपने इस पाप का प्रायश्चित करे।
छोड़ दीजिए पैनल चर्चा और विशेष कार्यक्रमों की बात, उसका साहस तो आप शायद ही जुटा पाएं, लेकिन क्या पीडि़ता का नाम और पहचान उजागर करने के अपराध पर क्षमायाचना करते हुए कुछ समय के लिए ही सही कोई स्क्रोल (खबर पट्टी) भी नहीं चलाया जा सकता था?मीडिया का यह व्यवहार उसे चोर और सीनाजोर दोनों बता रहा है।
जैसाकि मैंने कहा, मैं उस बहस में तो पड़ ही नहीं रहा कि किस तरह इस घटना का राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की गई, किस तरह एक अपराध को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश हुई, किस तरह समुदायों को फंसाने या बदनाम करने का षडयंत्र रचा गया… लेकिन क्या मीडिया अब भी यह मानने को तैयार नहीं है कि जो बवाल मचा उसमें बड़ा हाथ पीडि़ता की पहचान उजागर हो जाने का भी था।
दुर्भाग्य देखिए कि जो मीडिया एक बुजुर्ग राज्यपाल द्वारा एक महिला पत्रकार का गाल थपथपा दिए जाने को नारी अस्मिता से जोड़कर आसमान सिर पर उठा रहा है, उनके खिलाफ कार्रवाई करने और उनसे माफीनामे की बात कर रहा है, वही दूसरी ओर खुद अपने ही द्वारा एक मासूम बच्ची के खिलाफ किए गए जघन्य अपराध पर चुप्पी साधे हुए है…