स्त्री से भागता कोरोना

अरुण कुमार त्रिपाठी

पिछले महीने जब एक महिला शिक्षिका रजिया बेगम की बहादुरी की कहानी सुनी थी तो लगा था कि महामारी के खौफ से मातृत्व का साहस ही लड़ सकता है। रजिया बेगम तेलंगाना के निजामाबाद के बांधन में एक स्कूल टीचर हैं। उनका बेटा नेल्लौर में मेडिकल की कोचिंग करने गया था और तालाबंदी के दौरान वहीं फंस गया। रजिया ने एक डीएसपी से अनुमति पत्र लिया, स्कूटी उठाई और 7 अप्रैल को चल कर 1400 किलोमीटर की दूरी तय करके 8 अप्रैल को बेटे निजामुद्दीन के साथ घर लौट आईं।

उनकी इस साहसिक कथा को कई अखबारों और चैनलों ने उठाया और लगा कि संकट के समय यह एक मां की ओर से प्रदर्शित असाधारण साहस है। लेकिन इस पूरी महामारी में स्त्रियों का संघर्ष और प्रकृति की उन पर मेहरबानी ने महामारी से निपटने में पूरे आख्यान को बदल कर रख दिया है।

इजराइली इतिहासकार और अपनी ‘सेपियन्स’, ‘होमो डियस’ और ‘ट्वेंटीवन लेसन्स फार ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ जैसी बेस्टसेलर किताबों के कारण चर्चित जुआल नोआ हरारी ने महामारी से मानवता को बचाने में स्त्रियों के अद्वितीय योगदान को रेखांकित किया है। हरारी कहते हैं और यह उचित भी लगता है कि कोरोना से बचने का जो भी प्रयास चल रहा है वह युद्ध नहीं है। दरअसल युद्ध की शब्दावली पुरुष प्रधान समाज की शब्दावली है।

पुरुष बंदूक उठाने और लोगों की हत्या करने को श्रेष्ठ कार्य मानता है। जबकि स्त्रियां युद्ध नही सेवा का काम करती हैं। यहां उनका सेवा और प्रबंधन का गुण ही काम आ रहा है। वास्तव में यह एक प्रकार का स्वास्थ्य संकट है। इस संकट में स्त्रियों का योगदान पूरी दुनिया में निखर कर आया है। इसे अलग प्रकार से चिह्नित किया जाना चाहिए।

पहले उन देशों पर निगाह दौड़ाएं जहां पर स्त्रियों का नेतृत्व है। इस क्रम में जर्मनी, ताइवान और न्यूजीलैंड का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। उनके साथ डेनमार्क और फिनलैंड को भी जोड़ा जा सकता है। इन देशों ने उन देशों के मुकाबले कोरोना से बेहतर लड़ाई लड़ी है जहां पर पुरुष नेतृत्व है या नेतृत्व पर पुरुष का युद्धवादी अहंकार हावी रहा है।

ताइवान की पहली महिला राष्ट्रपति साई-इंग-वेन कानून की पूर्व प्रोफेसर हैं। वे 2016 में उसी समय ताइवान की राष्ट्रपति बनी हैं जब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप जैसे रियल्टी टीवी के स्टार और बिजनेसमैन राष्ट्रपति बने। ट्रंप ने अपने देश में कोरोना से निपटने को एक अदृश्य शक्ति से युद्ध करार दिया और बड़ी आबादी की बलि दे दी। लेकिन वेन ने ऐसे किसी रूपक के बिना कोरोना को रोकने में अपने देश का नेतृत्व किया और सफल रहीं।

हालांकि उनका देश चीन के करीब स्थित है जहां महामारी ने सबसे पहले विकराल रूप लिया। फिर भी वेन ने न सिर्फ ताइवान को संभाल लिया बल्कि आज उनका देश 11 यूरोपीय देशों को एक करोड़ मास्क देने की स्थिति में है। वहां कोरोना से सिर्फ 7 मौतें हुईं।

दूसरा उदाहरण न्यूजीलैंड की राष्ट्रपति जसिंडा अरडेन का है। हालांकि न्यूजीलैंड न्यूयार्क से भी छोटा और 50 लाख की आबादी का देश है। पर जसिंडा की चुस्ती और चौकसी से वहां कोरोना से होने वाली मौतों का आंकड़ा महज 21 है। वहां करीब डेढ़ हजार लोग संक्रमित हुए थे और सारे ठीक हो गए। तीसरा उदाहरण जर्मनी का है। जर्मनी अन्य यूरोपीय देशों की तरह बुरी तरह प्रभावित था। वहां की चांसलर और यूरोपीय संघ की महत्त्वपूर्ण नेता एंजेला मर्केल ने बिना किसी हो हल्ले के अपने देश को इस संकट से निकाला और अन्य यूरोपीय देशों के मुकाबले ज्यादा बेहतर तरीके से निकाला।

अगर इटली, स्पेन, ब्रिटेन और फ्रांस में संक्रमित होने वालों की मृत्यु दर 10 प्रतिशत से ज्यादा रही तो जर्मनी में यह दर 5 प्रतिशत के करीब रही। वहां सात हजार से अधिक लोगों की मौत हुई। एंजेला मर्केल क्वांटम केमिस्ट्री में डाक्टरेट हैं और शायद उन्होंने अपनी वैज्ञानिक विशेषज्ञता और स्त्री होने के संयम का उपयोग बीमारी पर काबू पाने में किया होगा। डेनमार्क की प्रधानमंत्री मेट्टे फेडरीकसन और फिनलैंड की पीएम सन्ना मेनिन ने भी अपने देश में बेहतरीन प्रबंधन किया और लोगों को निरापद किया।

इसका अर्थ यह नहीं कि दक्षिण कोरिया जैसे छोटे और चीन जैसे बड़े देशों के उन बेहतरीन कामों को खारिज किया जा सकता है जहां पर पुरुष नेतृत्व है। लेकिन सवाल सिर्फ नेतृत्व का नहीं है। सवाल जमीनी स्तर पर काम करने वाले चिकित्साकर्मियों का भी है। पूरी दुनिया में चिकित्साकर्मियों की कतार में महिलाओं की बड़ी संख्या है और वे अपने घर परिवार और बच्चों को छोड़कर बीमारों के इलाज और सेवा में लगी हैं।

स्वास्थ्य सेवा के विविध हिस्सों में स्त्रियों की संख्या 78 प्रतिशत है। यह संरचना अमेरिका जैसे विकसित देश से लेकर भारत जैसे विकासशील देश तक विद्यमान है। महामारी के इस खौफनाक दौर में वे निरंतर अपनी सेवाएं दे रही हैं और लोगों को बचा रही हैं। भले ही महिला डाक्टरों (फिजिशियन) की संख्या 78 प्रतिशत न हो लेकिन नर्सिंग के काम में वे बड़ी तादाद में हैं। इतना ही नहीं भारत के उड़ीसा प्रांत से लेकर दुनिया के अन्य हिस्सों में मास्क जैसे जरूरी उपकरण को तैयार करने में उन्होंने अद्वितीय योगदान किया है।

इससे भी ज्यादा रोचक तथ्य यह है कि सार्स बीमारी की तरह ही कोरोना की बीमारी से भी मरने वालों में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों की संख्या ज्यादा है। चीन में दो तिहाई पुरुषों को महामारी ने ज्यादा गंभीर रूप से जकड़ा है। ऐसा यूरोप के भी अन्य देशों में पाया गया है। एक तात्कालिक सर्वेक्षण के अनुसार कोविड-19 से मरने वाले पुरुषों की संख्या महिलाओं से 2.4 गुना अधिक है।

कोरोना काल में समाज और सरकार के कर्म को महिलाओं ने कितना मानवीय बनाया इसका विश्लेषण विस्तार से किए जाने की जरूरत है। अगर पुरुषों ने इसे एक युद्ध का रूप देकर दमन और सख्ती का रूप प्रदर्शित किया तो स्त्रियों ने अपनी सेवा से इसे एक अहिंसक संघर्ष का रूप दिया। कोरोना काल में यातना सह रहे मजदूरों की तरह ही घर से अस्पताल और दफ्तरों तक अपना मोर्चा संभाले महिलाओं की तमाम कहानियां हैं। उनका वर्णन भी किया जाना चाहिए और उनकी विशिष्टता का विश्लेषण भी होना चाहिए।

उनके अनुभव और क्षमता से यह जानने में मदद मिलेगी कि कहां चूक हुई और कैसे महामारी के खौफ और विषाणु को भगाया जा सकता है और युद्ध की ओर बढ़ते आख्यान को बदला जा सकता है।

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निवेदन

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टीम मध्‍यमत

3 COMMENTS

  1. कोविड 19संक्रमण प्रबंधन में सफलता हासिल करने हेतु ताइवान जर्मनी न्यूजीलैंड फिनलैंड आदि देशों में महिलाओं के नेतृत्व वाली सरकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है‌ उनके कार्य अनुकरणीय उदाहरण हैं । श्री अरूण कुमार त्रिपाठी जी ने अच्छा सवाल उठाया है ।
    हमारे विचार से “लोकतंत्र में पुरुष नेतृत्व और समूचा सिस्टम सख्ती से पेश आते हैं परिणाम स्वरूप स्थितियां नियंत्रित लगती हैं परन्तु वह खदबदाती हुई बाहर भी आती हैं।स्त्रियां सृष्टि और प्रेम की पोषक है इसलिए वे बुद्धिमत्ता से प्रभावी कदम उठाने से पहले अपने मानवतावादी दृष्टिकोण को सामने लाती है फलत:क्षति न्यूनतम हैं । कठोरता से प्रभावी उपचार की प्रक्रिया भी पीड़ित को असहज कर उसकी जिजीविषा शक्ति को क्षीण कर देती है समूची दुनिया में भय का माहौल है चिकित्सा आतंक जैसे हालात पैदा हो गये हैं पूरी दुनिया बैक्सीन खोज में होड़ कर रही हैं जबकि सहजता से उपचार हेतु व्यवहार और दवा की जरूरत है ।”
    कमलेश कुमार दीवान
    10/5/2020

    • बिलकुल ठीक कहा कमलेश जी। आपकी यह प्रतिक्रिया हम अरुण त्रिपाठी जी तक भी पहुंचाएंगे। आप इसी तरह अपने विचारों से अवगत कराते रहें। संभव हो तो विचारों के इस स्‍वतंत्र मंच पर योगदान भी करें।

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