राकेश अचल
कोरोनाकाल में नजरबंदी काट रहे हम लोगों को अपने शहर की हकीकत का अंदाजा नहीं है, लेकिन जब आंकड़े सामने आते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है और समाज के साथ समाज की रक्षा के लिए काम करने वाली पुलिस के चेहरे से घिन आने लगती है। महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान और मृगनयनी की प्रेमकथाओं के गवाह ग्वालियर में बीते आठ महीनों में जितने अपराध दर्ज हुए वे चौंकाने वाले हैं, इस अपराधवृत्ति में ग्वालियर ने मध्यप्रदेश के दूसरे शहरों को भी पीछे छोड़ दिया है।
देश के दूसरे शहरों की तरह ग्वालियर में भी शहरीकरण तेजी से बढ़ा है। गांवों में असुरक्षा और रोजगार का संकट इसका मुख्य कारण है और इसी के साथ बढ़े हैं महिलाओं पर अपराध के आंकड़े। ये वे आंकड़े हैं जो किसी तरह से पुलिस के रोजनामचे में दर्ज हो गए, उन आंकड़ों का तो पता ही नहीं जो पुलिस रोजनामचों का हिस्सा बन ही नहीं पाए। स्वच्छता में देश में नंबर एक पर रहे इंदौर में आठ माह में महिलाओं अपराधों के 1552 मामले दर्ज हुए। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में इसी अवधि में 1575 मामले दर्ज हुए, लेकिन ग्वालियर में ये आंकड़ा 1976 तक जा पहुंचा। इस तुलना में हमने प्रदेश के दूसरे शहरों को शामिल नहीं किया है। मुमकिन है कि वहां की स्थिति ग्वालियर से भी बदतर हो।
ग्वालियर 116 साल पहले प्रदेश का सबसे आधुनिक शहर था, लेकिन आज सबसे पिछड़ा हुया शहर है। मुख्यधारा से कटे इस शहर में हर काम में राजनीति का हस्तक्षेप यहां बढ़ रहे अपराधों की मुख्य वजह है। एक जमाने में जब प्रदेश के दूसरे शहरों में बिजली, टेलीफोन, रेल और सीवर लाइनें नहीं थीं तब ग्वालियर के पास सब कुछ था। लेकिन आज सिर्फ बेरोजगारी और अपराध के अलावा कुछ नहीं है। यहां आठ महीने में 144 महिलाओं की अस्मत लूटी गयी, 264 महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की गयी, 406 को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया, 137 महलाओं का अपहरण किया गया, 16 की हत्या कर दी गयी और 05 की हत्या का प्रयास किया गया। लेकिन इन आठ महीनों में इन अपराधों के खिलाफ न कोई मोमबत्ती जली और न कोई रैली, जुलूस निकला। सबके सब घरों में मौन बैठे रहे।
महिलाओं के प्रति अपराध के ये आंकड़े भयभीत करते हैं। पुलिस व्यवस्था पर सवाल खड़े करते हैं, लेकिन जब समाज और सियासत सुन्न हो जाती है तो इन आंकड़ों के प्रति उदासीनता बढ़ती जाती है। ये आंकड़े खबरों की सुर्ख़ियों में सिमटकर रह जाते हैं। ग्वालियर की इस बदतर स्थिति पर न सड़कें आंदोलित हुईं और न विधानसभा। विधानसभा तो मात्र 9 घंटे में अपना कामकाज निबटाकर सो गयी। प्रदेश के गृहमंत्री से न सवाल पूछने की नौबत आई और न उन्हें किसी को इस बारे में जवाब देना पड़े। सत्ता और सियासत के लिए तो ये कोरोनाकाल सबसे ज्यादा मुफीद समय साबित हो रहा है।
ग्वालियर की सड़कों से पुलिस गायब है, उसे गायब होना भी चाहिए। आखिर कोरोना उसे भी सताता है। पुलिस कोई रोबोट तो नहीं है जो इस संक्रमणकाल में महिलाओं को अपराधियों से बचाती फिरे? इस संक्रमणकाल में महिलाओं को अपनी जान और इज्जत खुद सम्हालकर रखना चाहिए। अपनी कार में बैठी महिलाओं को गुंडे छेड़ें तो पुलिस क्या करे? महिला घर से बाहर निकली ही क्यों? गुंडे महिलाओं को मकान खाली करने के लिए उनके बच्चों के अपहरण की धमकी दें तो पुलिस क्या करे? महिलाओं को मकान खाली कर देना चाहिए न! अरे भाई जिस पुलिस से शहर का ट्रैफिक नहीं सम्हलता, वो पुलिस किसी महिला की अस्मत की रक्षा कैसे करेगी?
ग्वालियर की किस्मत है कि यहाँ एक ही समय में दोनों सदनों के तीन सदस्य रहते हैं। विधायकों की भी कमी नहीं है, हाँ तीन, सदन से स्तीफा देकर आजकल उपचुनाव की तैयारी में लगे हैं, ग्वालियर के पास एक केंद्रीय और चार मंत्री हैं लेकिन ग्वालियर को सुकून नहीं है। यहां केवल शिवराज ही नहीं महाराज भी है, पर महिलाएं सुरक्षित नहीं है।
बढ़ते महिला अपराधों को लेकर चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। हमारे मुख्यमंत्री हैं न सभी पीड़ितों को राहत देने के लिए। हमारे पास पुलिस महानिदेशक नाम के अधिकारी भी हैं लेकिन वे अदृश्य रहते हैं, जनता से संवाद करना क्या पूरी सरकार भूल चुकी है। कोरोना से पहले प्रति मंगलवार होने वाली जनसुनवाई एक बार बंद हुई तो दोबारा शुरू ही नहीं हो पाई। जब अदालतें बंद हैं तो जन सुनवाई खोलने का क्या औचित्य। जनता के पास आखिर सुनाने के लिए है ही क्या? शायद ये कोरोनाकाल, राम राज जैसा है। जिसमें कोरोना को छोड़ और कुछ होता ही नहीं है। ‘रामराज बैठे त्रैलोका, हर्षित भये, गए सब शोका’ की तरह मामा के शपथ ग्रहण के बाद से प्रदेश में अमन-चैन है।
कुलजमा बात ये है कि प्रदेश में दूसरे मोर्चों की तरह क़ानून और व्यवस्था भी कोरोना की भेंट चढ़ चुकी है। समाज का ऑक्सीजन स्तर कम हो चुका है। सरकार के पास न ऑक्सीजन है और न वेंटिलेटर। अब भगवान ही प्रदेश की रक्षा कर सकता है, पुलिस के बूते का ये काम रहा नहीं। सबको अपने बूते अपनी रक्षा करना चाहिए। जब तक बहुत जरूरी न हो तब तक अपने घर से नहीं निकलें , निकलें भी तो मुंह छिपकर निकलें, सुरक्षा के लिए अपने इंतजाम साथ लेकर चलें और बहुत आवश्यक हो तभी पुलिस कंट्रोल रूम को फोन करें।
मुझे लगता है कि आज मैंने इस समस्या के लिए मोदी जी को जिम्मेदार नहीं ठहराया है इसलिए आस्थावान मित्र मुझसे नाराज नहीं होंगे। नाराज होना वैसे भी अच्छी बात नहीं है। मैं तो जब भी नाराज होने की नौबत आती है तब लम्बी-लम्बी सांस लेकर खुद को समान्य कर लेता हूँ। जानता हूँ कि इस समय सड़क से लेकर संसद तक किसी की कोई सुनने वाला नहीं है।