अजय बोकिल
कोरोना संकट हमें बहुत कुछ देकर जाने वाला है, इनमें से एक है ‘वर्क फ्रॉम होम’ कल्चर। यूं इसकी शुरुआत भारत में इस दशक के आरंभ में ही हो गई थी, लेकिन आम लोगों तक यह शब्द अब पहुंचा है। ‘वर्क फ्रॉम होम’ (डब्ल्यूएफएच) से तात्पर्य ‘घर से काम करना’ है। कोरोना प्रकोप के बाद पिछले माह भारत सरकार ने एडवायजरी जारी कर कॉरपोरेट जगत से कहा था कि वो ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के मद्देनजर यथासंभव कर्मचारियों को ‘वर्क फ्रॉम होम’ के लिए कहें। तदनुसार देश की कई कंपनियों और संस्थानों ने इसे अपने यहां लागू भी कर दिया है। इसके ‘सकारात्मक’ अनुभव को देखते हुए कॉरपोरेट जगत में यह व्यवस्था स्थायी रूप से लागू करने पर विचार हो रहा है।
माना जा रहा है कि तकनीकी तौर पर और उत्पादकता के लिहाज से यह नई कार्य संस्कृति लाभदायक है, लेकिन दूसरी तरफ यह सोशल डिस्टेंसिंग थ्योरी को उस मुकाम पर ले जा सकती है, जो मनुष्य के सामाजिक होने के मूल स्वभाव को ही खत्म कर देगी। दरअसल कोरोना ‘नरसंहार’ ही नहीं कर रहा है, वह सामाजिकता और मनुष्यता की परिभाषा बदलने पर भी आमादा है। यानी केवल खुद को बचाओ, खुद के बारे में सोचो। सबसे दूरी बनाओ। यही इसका सबसे डरावना और चिंताजनक पहलू है। हम इससे कैसे बचेंगे, हमें नहीं पता।
वैसे ‘वर्क फ्रॉम होम’ नया कनसेप्ट नहीं है। दुनिया में यह ‘टेलीकम्युटिंग’ अथवा ‘टेलीवर्किंग’ नाम से पहले से प्रचलित है। फर्क इतना है कि ‘टेलीकम्युटिंग’ तकनीकी-सा शब्द है और ‘वर्क फ्राम होम’ आम बोलचाल का। कुछ लोग इसे ‘वर्क एट होम’ भी कहते हैं। दोनों में बुनियादी फर्क यह है कि घर पर किया जाने वाला काम निजी भी हो सकता है, जबकि ‘वर्क फ्रॉम होम’ आपको किसी के द्वारा एक निश्चित परिमाण और लक्ष्य के साथ दिया गया काम है, जो आपको तय समयावधि में पूरा करना है। इसके लिए आपको कहीं जाना नहीं है। घर बैठे ही कम्प्यूटर पर करना है।
‘टेलीकम्युटिंग’ शब्द दुनिया में सबसे पहले 1970 में तब आया, जब हमारा देश अनाज की कमी से जूझते हुए हरित क्रांति की शुरुआत कर रहा था। यह शब्द तब उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जो संचार और सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े थे। 21 वीं सदी में संचार क्रांति के बाद यह शब्द ज्यादा प्रचलन में आया। लैपटॉप, स्मार्ट फोन आदि हमारी जिंदगी का जरूरी हिस्सा बने। एक जानकारी के मुताबिक आज दुनिया भर में करीब 3 करोड़ लोग ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहे हैं। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि ‘मिलेनियल पीढ़ी’ अब गुजरे जमाने के ‘दस से पांच’ वाली कार्य संस्कृति में यकीन नहीं रखती। वो उत्पादकता के हिसाब से ज्यादा काम करना चाहती है, लेकिन अपनी सुविधा से। दफ्तर और घर में संतुलन की उसकी अपनी परिभाषा और तकाजे हैं।
इसके अलावा महानगरों में आवास मिलने की कठिनाई, भयंकर ट्रैफिक और उसमें जाया होने वाला समय, कार्यस्थलों की घरों से बहुत दूरी, दफ्तर का तनाव, परिवार के लिए बहुत कम समय बचना आदि भी इसके कारण हैं, जिनकी वजह से युवा ‘वर्क फ्रॉम होम’ ऑप्ट कर रहे हैं। भारत में इसे इन्फोसिस, आईबीएम इंडिया, याहू इंडिया जैसी आईटी कंपनियों ने पहले ही अपनाना शुरू कर दिया था। अब कोरोना ने इस डब्ल्यूएफएच संस्कृति को निचले स्तर पर फैला दिया है। इसके पीछे मुख्य कारण घर से बाहर न निकलने की मजबूरी, सुरक्षा का आग्रह और काम की अनिवार्यता भी है।
‘वर्क फ्रॉम होम’ के पक्ष में बड़ा तर्क यह है कि इससे प्रति व्यक्ति कार्यक्षमता और उत्पादकता बढ़ती है। ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में पिछले दिनों छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक ‘वर्क फ्रॉम होम’ के तहत काम करने वाला एक रिमोट एम्प्लॉयी (दूरस्थ कर्मचारी) एक ऑफिस एम्प्लॉयी के अनुपात में प्रति माह 1.4 दिन ज्यादा काम करता है। यानी साल भर में यह 17 दिन अतिरिक्त काम के बराबर होता है। इसका एक अर्थ यह भी है कि दूरस्थ कर्मचारी सामान्य ऑफिस कर्मचारी की तुलना में काम से ज्यादा और लंबा ब्रेक ले सकता है। वह तुलनात्मक रूप से घर में ज्यादा कंफर्टेबल होकर काम कर सकता है। यानी आप बिस्तर पर, टीवी देखते हुए, बच्चों को दुलराते हुए भी ‘वर्क फ्राम होम’ कर सकते हैं।
दफ्तर में काम करने के दबाव से मुक्ति और न शाम ढलते बार-बार घड़ी की तरफ देखने की बेचैनी। कंपनियों को फायदा यह है कि चाहे कितने कर्मचारी हों, उन्हें बड़े और महंगे कार्यालय लेने और उन्हें मेंटेन करने के खर्च से मुक्ति मिल जाती है। कर्मचारियों को ट्रैवल अलाउंस और चाय-नाश्ते की व्यवस्था की जरूरत नहीं होती। भौतिक रूप से दफ्तर होंगे, लेकिन वहां चुनिंदा लोग ही बैठेंगे, जो केवल मॉनिटरिंग करेंगे। यानी काम तो होगा, लेकिन वह होता हुआ आपको नजर नहीं आएगा।
लेकिन इस नई कार्यसंस्कृति का दूसरा पहलू ज्यादा डरावना और चुनौती भरा है। वो है, सोशल डिस्टेंसिंग का कार्य संस्कृति और आपकी निजी जिंदगी तक विस्तार। ऑन लाइन शॉपिंग के चलते आजकल बहुत से युवा महिनों बाजार नहीं जाते। ‘वर्क फ्रॉम होम’ इसे और बढ़ाएगा। समाज से उनकी दूरी न केवल कार्यालय से होगी, बल्कि वो और ज्यादा आत्मकेन्द्रित और वर्च्युअल दुनिया के नागरिक बनते जाएंगे। कृषि आधारित समाज से औद्योगिक समाज और फिर संचार क्रांति तक मनुष्य के सामाजिक व्यवहार और सामाजिकता में हमने कई बदलाव देखे हैं। लोक संस्कृति को शहरी और फिर मेट्रो संस्कृति में तब्दील होते देखा है। लेकिन इनमें किसी में भी मनुष्य को मनुष्य से दूर रहने का संदेश नहीं था।
महान दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है। यानी सदियों में सभ्यता और संस्कृतियां बदलीं, लेकिन मनुष्य की सामाजिकता का मूल स्वभाव नहीं बदला। उसका स्वरूप जरूर बदला, लेकिन ‘समाज से दूरी’ की बात कभी नहीं हुई। पहले धर्मों ने धार्मिक परंपराओं के निर्वाह के लिए सामूहिक प्रार्थनाओं और कर्मकांडों के लिए सामूहिकता को अनिवार्य किया। संघों में रहने का संदेश दिया। फिर औद्योगिक समाज ने कार्यस्थल की सामूहिकता और सांगठनिक एकता पर जोर दिया। संचार क्रांति ने दुनिया के हर कोने में बसे व्यक्ति को समाज से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। लगा कि दुनिया एक गांव बनती जा रही है, तमाम मतभेदों और अंतर्विरोधों के बावजूद मनुष्य ‘एक समाज’ बनता जा रहा है।
कोरोना ने मनुष्य की सामाजिकता के इसी मूल स्वभाव को तड़का दिया है। आज ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ जिस अर्थ में व्यवहार में लाया जा रहा है, उससे मानव समाज के भविष्य पर ही प्रश्न चिन्ह लग रहा है। हो सकता है कोरोना पर किसी तरह काबू पा लिया जाए। लेकिन उसके जो दुष्परिणाम होने वाले हैं, उनमें सबसे बड़ा है मनुष्य का मनुष्य पर से भरोसा डिग जाना। लॉक डाउन खत्म भी हो जाएगा, लेकिन दिमागी लॉक डाउन को समाप्त होने में लंबा समय लगेगा। पता नहीं कौन संक्रमित है या नहीं है? किससे हाथ मिलाने से कोरोना ही आपसे दोस्ती गांठ ले, किसके साथ दो घड़ी बैठने से भी आपकी ताजिंदगी दूरी बन जाए, किससे गले मिलने से सामाजिक समता तो दूर कितना सामाजिक संक्रमण फैल जाए, कोई नहीं कह सकता।
अब लोग शादी-समारोहों में जाने से या तो बचेंगे या फिर सहमे से हिस्सेदारी करेंगे। बच्चों का आपस में खेलना पहले-सा मासूम नहीं रह जाएगा। दफ्तरों में काम होगा, लेकिन संदेह का मास्क पहन कर। हर स्तर पर संवाद तो बढ़ेगा, लेकिन सुरक्षित ‘दूरी’ रखकर। इस बदले सामाजिक सोच से ‘हाथों में हाथ डालकर’ चलने की वो पुरानी मान्यताएं और ‘संगठन में शक्ति’ जैसे नारे भी ध्वस्त हो सकते हैं, जहां मनुष्य की भौतिक उपस्थिति ही उसकी ताकत के प्रदर्शन का पर्याय है।
‘वर्क फ्रॉम होम’ कल्चर का समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अध्ययन अभी और होना है। संभव है कि ‘वर्क फ्रॉम होम’ से कार्य उत्पादकता बढ़े, काम की क्वालिटी भी सुधरे, लेकिन इससे कार्यालय संस्कृति और अनुभवों को रूबरू साझा करने का कल्चर भी खत्म होगा। इसके अलावा ज्यादा काम और मुनाफे के चक्कर में शोषण का एक नया अध्याय भी शुरू हो सकता है। क्योंकि इस संस्कृति में काम करने के निश्चित नियम-कायदे अभी नहीं है। कुछ जगह तो ‘वर्क फ्रॉम होम’ का मतलब चौबीस घंटे की चाकरी से भी लिया जा रहा है, जो कि कोरोना जितना ही घातक है। ‘वर्क फ्रॉम होम’ हमारी भीड़-भभ्भड़ वाली सोच और सेठ की काम से ज्यादा काम चोरी पर निगाह रखने की मानसिकता को कितना बदलेगी, यह देखने की बात है। डर यही है कि कहीं लोग एक दूसरे की शकलें तक न भूल जाएं।
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