क्या बिहार में बेरोजगारी सचमुच चुनावी मुद्दा बनेगी?

अजय बोकिल

क्या बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार बेरोजगारी जैसी गंभीर जमीनी समस्या सचमुच मुख्‍य चुनावी मुद्दा बनने जा रही है? क्या जातिवाद के महासागर में यह उफान संभव है?  ये सवाल इसलिए क्योंकि राज्य में संभावित विधानसभा चुनाव की पूर्व बेला में प्रदेश की दो मुख्‍य पार्टियों जदयू और राजद ने नौकरी और बेरोजगारी के आसपास अपनी चुनावी रणनीति बुननी शुरू कर दी है। इसी माहौल में प्रदेश की एक और मुख्‍य पार्टी भाजपा ने ‘नए बिहार’ का मुद्दा उछाला है, हालांकि यह ‘नया’ बिहार वास्तव में क्या है और ‘पुराने’ बिहार से कितना अलग है, यह स्पष्ट नहीं है।

बिहार में विधानसभा इस साल नवंबर में होने हैं। राज्य में सत्तारूढ़ राजग की साझीदार जदयू और बीजेपी चाहती हैं कि कोरोना प्रकोप के बावजूद चुनाव समय पर हों। इसी मंशा को बूझते हुए चुनाव आयोग ने भी सूत्रों के हवाले से फ्लैश चलवाया कि चुनाव वक्त पर ही होंगे। इसी के मद्देनजर राज्य में 15 साल से मुख्‍यमंत्री की कमान थामे जदयू नेता नीतीश कुमार ने एक नया पासा यह फेंका कि यदि किसी दलित का मर्डर हुआ तो वो पीडि़त परिवार के एक सदस्य को नौकरी देंगे (बशर्ते कि जनता उन्हें चौथी बार फिर मुख्यमंत्री बनवाए)।

जातीय कार्ड खेलने में नीतीश सिद्धहस्त हैं। नौकरी देने के लिए ‘मर्डर’ की यह शर्त बड़ी अजीब और भयावह भी है। दलितों को रिझाने के इस नीतीशीय दांव को भांपकर मुख्‍य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने प्रदेश के बेरोजगारों को लुभाने ‘बेरोजगारी हटाओ’ नाम से एक वेब पोर्टल लांच किया। साथ ही एक टोल फ्री नंबर भी जारी किया। बेरोजगारों को इस पोर्टल पर अपना रजिस्ट्रेशन कराना होगा। तेजस्वी ने कहा कि अगर बिहार में आरजेडी महागठबंधन की सरकार बनी तो बिना किसी भेदभाव (अर्थात दलित परिवार में मर्डर की शर्त के बिना) सभी को रोजगार मुहैया करवाएंगे। तेजस्वी ने कहा कि बिहार सरकार के अलग-अलग विभागों में साढ़े 4 लाख पद खाली पड़े हैं। इन सभी पर भर्ती की जाएगी।

वैसे देश में बेरोजगारी की हालत कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा उन सरकारी आंकड़ों से लगाया जा सकता है, जिनके मुताबिक देश में मनरेगा के तहत इसी साल अप्रैल से लेकर अगस्त तक पांच महीनों में 83 लाख से अधिक नए जॉब कार्ड बने हैं, जो बीते सात सालों में सर्वाधिक है। जबकि वर्ष 2019-20 में कुल 64.70 लाख मनरेगा कार्ड ही जारी किए गए थे। जाहिर है कि कोरोना और लॉक डाउन ने सबसे ज्यादा गरीबों का काम छीना है।

अकेले बिहार की ही बात करें तो लॉक डाउन के दौरान 40 लाख प्रवासी बिहारी मजदूरों को काम गंवाकर घर लौटना पड़ा था। इनमें से बहुत कम फिर अपने काम पर लौट सके हैं। जो नए मनरेगा कार्ड बने हैं, उनमें भी बिहार दूसरे नंबर पर है। वहां पांच माह में 11.22 लाख नए जॉब कार्ड बने हैं। अर्थात राज्य में इतने बेरोजगार और बढ़ गए हैं। इस ‍परिस्थिति को भी राजनीतिक दल ‘आपदा में अवसर’ के चश्मे से देख रहे हैं। लिहाजा इस बेरोजगार वोट बैंक को लुभाने की होड़ शुरू हो गई है। ध्यान रहे कि पूरे देश में इस साल 3 सितंबर तक कुल 14.36 करोड़ मनरेगा कार्ड बने हैं। यानी इतने लोगों को काम चाहिए।

उधर राज्य में सत्ता में सहयोगी और अपना मुख्‍यमंत्री बनाने का सपना देख रही बीजेपी इन सब मुद्दों से हटकर चुनावी कैम्पेन को पॉजिटिव ( कोरोना पॉजिटिव नहीं) मोड में ले जाने का दावा कर रही है। उसने राज्य में आक्रामक डिजिटल कैम्पेनिंग शुरू भी कर दी है। पार्टी का दावा है कि इससे उसका मतदाताओं तक आउटरीच बहुत बढ़ा है। पार्टी सोशल मीडिया में भी अपने ढंग से विधानसभा चुनाव का नरेटिव सेट करने में लगी है। बीजेपी विपक्ष के इस आरोप को भी खारिज कर रही है कि राज्य में ‘जंगलराज’ है।

पार्टी ने अभी खुलकर साम्प्रदायिक कार्ड खेलने की जगह ‘हारेगा कोरोना, जीतेगा बिहार’ तथा ‘सेवा में तत्पर, बीजेपी निरंतर’ जैसे (कॉस्मेटिक) काउंटर कैम्पेन भी लांच किए हैं। बिहार बीजेपी प्रवक्ता राजीव रंजन का कहना है कि जिस कोरोना को विपक्ष मुद्दा बनाए हुए था,  हमने तथ्यों से जवाब देकर उन्हें मैदान छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। पार्टी बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के आंकड़े देकर बता रही है कि बिहार कैसे बदल रहा है।

बिहार कितना बदला या बदल रहा है, इसके बरक्स यह कड़वी सचाई है कि देश का बेरोजगारी ग्राफ बहुत तेजी से बदल रहा है। सीएमआईई की 4 सितंबर 2020 की रिपोर्ट देखें तो देश में बेरोजगारी की दर बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गई है। जिसमें शहरी बेरोजगारी दर 9.7 तथा ग्रामीण बेरोजगारी दर 7.7 है। यूं बेकारी पहले भी थी, लेकिन कोरोना दंश ने हालात और बदतर कर दिए हैं। अकेले जुलाई में ही देश में 50 लाख लोगों की नौकरियां चली गईं।

मनरेगा में मजदूरी के अलावा कोई स्पष्ट वैकल्पिक रोजगार लोगों के सामने नहीं है। उन्हें सहारा देने के लिए किए गए सरकारी उपाय नाकाफी साबित हो रहे हैं। अगर बेरोजगारी का राज्यवार प्रतिशत देखें तो दो भाजपा शासित राज्य हरियाणा और त्रिपुरा में सर्वाधिक बेकारी है जबकि इस सूची में कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान तीसरे नंबर पर है। हालांकि बिहार इस सूची में तुलनात्मक रूप से नीचे है।

लेकिन राजनीति सबसे ज्यादा और तेजी से ‘आपदा में अवसर’ सूंघ लेती है। शायद इसीलिए नीतीश का नौकरी और तेजस्वी का बेरोजगारी पोर्टल दांव चला गया है। हालांकि इन बातो का व्यावहारिक मतलब कुछ खास नहीं है। क्योंकि बिहार में दलित परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी इसी विचित्र ‘शर्त’ पर मिलेगी कि उसमें किसी का मर्डर हो। इसका पलटवार तेजस्वी ने यह किया कि वो बिना किसी भेदभाव यानी (मर्डर की पूर्व शर्त के बगैर ही) नौकरी देने को तैयार हैं बशर्ते उनको मुख्यमंत्री बनने का मौका‍ मिले।

अहम बात यह है कि गले-गले तक जातिवाद में डूबे बिहार जैसे राज्य में बेरोजगारी को कोर चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है। यह कितनी कामयाब होगी, यह देखने की बात है। भारतीय राजनीति की विडंबना यह है कि यूं तो हर चुनाव में बेरोजगारी और महंगाई जैसे जमीनी मुद्दे उछाले जाते हैं, लेकिन दूसरे भावनात्मक मुद्दों के आगे ये निस्तेज हो जाते हैं। शायद यही कारण है कि बेरोजगारी टाइप मुद्दों से बेफिकर भाजपा ‘नए बिहार’ का सपना सजाने में लगी है, जो शायद प्रधानमंत्री नरेन्द्र के ‘न्यू इंडिया’ से प्रेरित है।

हालांकि पार्टी ने पिछला बिहार विस चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर लड़ा था, लेकिन नीतीश का चेहरा उन पर भारी पड़ा था। सो पार्टी इस बार सावधानी बरत रही है। वैसे अंदरूनी तौर पर भाजपा भी जातीय कार्ड ही खेल रही है। माना जा रहा है कि टीवी चैनलों के माध्यम से बिहारी मूल के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मुंबई में संदिग्ध मौत के मुद्दे को जिस तरह सुलगाए रखा जा रहा है, उसकी पूर्णाहुति बिहार विधानसभा चुनाव का आखिरी वोट डाले जाने के बाद होगी।

अब इस 24×7 इशु में नया एंगल ठाकुर बनाम ब्राह्मण का भी आ गया है। वो ये कि सुशांत सिंह अगर राजपूत है तो मामले की मुख्‍य आरोपी रिया चक्रवर्ती ब्राह्मण है। प्रकारांतर से बिहार बनाम महाराष्ट्र, जदयू/भाजपा बनाम शिवसेना और कांग्रेस तो पहले ही चल रहा था। चूं‍कि बिहार में जातियों का विभाजन/उप विभाजन माइक्रो लेवल तक है, इसलिए हर मुद्दे, दांव और चाल में जातीय क्लिक अपना काम खुद करता है।

यूं भी नीतीश कुमार इस तरह की राजनीति के हेड मास्टर हैं। उन्होंने सुशांत-रिया प्रकरण के समानांतर विपक्षी महागठबंधन की पर्तें भी जातीय दांव खेल कर उधेड़नी शुरू कर दी हैं। दिग्गज नेता शरद यादव की जद यू में संभावित वापसी में उनके यादव होने का एंगल खास है। महागठबंधन को छोड़ दलित नेता जीतनराम मांझी की ‘घर वापसी’ राजद के ओबीसी-दलित गठजोड़ पर बड़ा आघात है। साथ ही दलित राजनीति करने वाली, एनडीए की सहयोगी तथा नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली लोजपा को भी चेतावनी है। क्योंकि इस पार्टी के नेता चिराग पासवान नीतीश के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोले हुए हैं।

इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है ‍कि चिराग ने पिछले दिनो पटना के अख़बारों में अपनी पार्टी के फुल पेज विज्ञापनों में दो लाइन लिखी ‍कि “वो लड़ रहे हैं हम पर राज करने के लिए और हम लड़ रहे हैं बिहार पर नाज़ करने के लिए।‘ यानी ये ‘राज’ और ‘नाज’ का फर्क है। यह बात अलग है कि चिराग न तो सही अर्थों में ‘दलित’ हैं और न ही ‘बिहारी’ हैं। ‍इन सबके बावजूद नीतीश कुमार ही इस चुनावी खेल के मुख्य सूत्रधार हैं। उनकी स्वीकार्यता अब भी बनी हुई है।

दलित को नौकरी के बहाने उन्होंने भी दलित बेरोजगारी का नया कार्ड खेला है। अगर यह सही में कामयाब हो गया तो हो सकता है कि अगले चुनावों में हमें जमीनी मुद्दे ही मिसाइल की तरह चुनाव की अग्रिम चौकियों पर तैनात मिलें। लेकिन क्या ऐसा होगा?

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