कोरोना: कहीं दो घूंट चाय का भी मोहताज न होना पड़े…

अजय बोकिल

लॉक डाउन में चाय पीकर वक्त काटने वालों को यह खबर बेचैन कर सकती है कि अगर हालात जल्द न सुधरे तो चाय की प्याली भी आपके लिए दूर की कौड़ी साबित हो सकती है। चाय की गुमठी पर पहले ही घूंट के हिसाब से मिलने वाली कट चाय का आकार अब बूंदों तक सिमट सकता है। कारण कि लॉक डाउन में चाय की पैदावार भी प्रभावित हुई है और बाजार में चाय के भाव भी उबलने लगे हैं। घरबंदी के चलते चूंकि लोग अभी जरूरत का सामान कम खरीद रहे हैं, इसलिए चाय की इस आंच का अहसास उन्हें नहीं हो रहा है, लेकिन लॉक डाउन खुलने पर होगा।

इसकी वजह यह है कि लॉक डाउन के चलते चाय बागानों में चाय पत्ती की पर्याप्त तुड़ाई ही नहीं हो सकी है। इससे करोड़ों रुपये की चाय की फसल बर्बाद होने का डर है। जिस चाय पत्ती की तुड़ाई हो गई थी, उसका माल निर्यात के लिए अटका पड़ा है। आलम यह है कि देश के चाय उत्पादकों और निर्यातकों ने केन्द्र सरकार से तत्काल मदद की मांग की है। ‘टी प्लांटर्स एसोसिएशन’ के मुताबिक लॉक डाउन के कारण देश में 1.10 करोड़ किलो चाय का नुकसान होने का अंदेशा है। जिसका बाजार मूल्य करीब 1200 करोड़ रुपये होता है।

जाहिर है कि चाय का उत्पादन बड़े पैमाने पर प्रभावित हुआ तो चाय महंगी होना तय है। इसका मतलब यह कि अमीर से लेकर गरीब तक रिश्तों की प्रतीक और थकान‍ की दुश्मन चाय भी आम आदमी की पहुंच से दूर हो सकती है। हालांकि सरकार ने चाय बागानों में आंशिक रूप से काम की अनुमति दे दी है, लेकिन चाय की गाड़ी पटरी पर कब तक आएगी, अभी कहना मुश्किल है।

अंगरेज जो विरासत यहां हमेशा के लिए छोड़ गए हैं, उनमें सबसे प्रमुख चाय है। बीसवीं सदी की शुरुआत में हम भारतीयों में चाय पीने की आदत डालने के लिए तकरीबन वैसे ही प्रयास‍ किए गए, जैसे बच्चों को मैगी का दीवाना बनाने के लिए किए जाते रहे हैं। कहते हैं कि चाय का चस्का लगने से पहले भारतीय परिवारों में आगंतुक का स्वागत अमूमन पानी और गुड़ अथवा छाछ-दूध आदि से करने की परंपरा थी।

इस संस्कार को चाय ने एक सुनियोजित मार्केटिंग के जरिए प्रतिस्थापित किया। लिहाजा बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक चाय हमारी सामाजिक अनिवार्यता बन गई। यानी ‘चाय तक के लिए नहीं पूछा’ जैसी लोकोक्ति किसी व्यक्ति के अ-सामाजिक होने की पराकाष्ठा या फिर किसी को नीचा दिखाने का परिचायक बन गई। आज चाय पीना, चाय पर बुलाना, चाय पीकर टाइम पास करना हमारी जिंदगी का हिस्सा है।

आलम ये कि रईस से लेकर फटेहाल तक चाय का मुरीद है बल्कि यूं कहें कि गुलाम है। चाय हमारे चारों प्रहर की साथी है। सुबह इसलिए कि उसे पीए बगैर सुबह नहीं होती या फिर ‘प्रेशर’ नहीं बनता। दोपहर में इसलिए कि उसे पीए बगैर काम का उत्साह नहीं बनता। शाम को इसलिए कि वह थकान मिटाती है और रात को इसलिए (हालांकि ऐसे लोगों की संख्या कम है) कि चाय की लगी नींद सुबह ही खुलती है। हालांकि चाय के चैम्पियनों पर यह फार्मूला फिट नहीं बैठता, क्योंकि वो तो दिन में कितने भी कप चाय पी सकते हैं।

चाय शायद अकेला ऐसा पेय है, जो फाइव स्टार होटलों से लेकर गुमठी, ठेले और टपरी पर समान रूप से मिलता है। उतना ही लोकप्रिय भी है। कई चायचाहकों का मानना है कि ठेले की गिलास वाली समाजवादी चाय ‘अमृततुल्य’ होती है। खड़े होकर सुड़कते हुए चाय पीना और चाय पीते हुए दुनिया जहान की ऐसी तैसी करना ऐसा अनोखा शगल है, जिसकी प्रतीति केवल चाय पीने वालों को ही हो सकती है।

वैसे भी भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है। वर्ष 2019 में भारत में कुल 138.9 करोड़‍ किलो चाय की पैदावार हुई। इसमें आधी हिस्सेदारी असम की थी और बाकी एक तिहाई बंगाल की। दस फीसदी चाय दक्षिण में नीलगिरी पहाडि़यों में होती है। इसमें भी सबसे बेहतरीन चाय दार्जिलिंग की मानी जाती है। लेकिन लॉक डाउन के चलते चाय बागानों में चाय की तुड़ाई समय पर नहीं हो पाई।

चाय एक बेहद नाजुक और नखरैल फसल है। अगर समय पर उसकी देखभाल और तुड़ाई आदि नहीं हुई तो पैदावार पर उसका सीधा असर होता है। अगर पैदावार घटी तो चाय नीलामी में प्रतिकिलो भाव ज्यादा बैठेगा और वही चाय हमारे घरों ठेलों तक पहुंचते-पहुंचते काफी मंहगी हो जाएगी। यूं देश का चाय उद्योग पिछले साल से ही संकट में है। तब तो कोरोना भी नहीं था। उस वक्त भी चाय उत्पादकों की शिकायत थी कि बाजार में चाय की कम कीमत और ज्यादा मजदूरी के कारण यह उद्योग मुश्किल में है।

उनका यह भी कहना था कि चाय के उत्पादन पर जितनी लागत आती है, उससे कम कीमत में उन्हें बाजार में बेचना पड़ रहा है। तब चाय उत्पादकों के संगठनों ने सरकार से बेल आउट पैकेज की भी मांग की थी। लेकिन केन्द्र सरकार ने उनकी बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। अलबत्ता असम सरकार ने जरूर चाय पर सेस हटाकर कुछ राहत दी थी।

अगर चाय के अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर नजर डालें तो दुनिया में पांच सबसे बड़े चाय उत्पादक देश हैं। ये हैं चीन, भारत, केन्या, श्रीलंका और विएतनाम। ये पांचों मिलकर पूरी दुनिया की 82 फीसदी चाय पैदा करते हैं। जानकारों के मुताबिक अगर लॉक डाउन के चलते चाय उत्पादन में 1.20 करोड़ किलो की भी कमी आई तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में निर्यात के मामले में हम पिछड़ जाएंगे। इसका लाभ केन्या और श्रीलंका उठा सकते हैं। पिछले साल शुरू के आठ महीने में हमने 16.2 करोड़ किलो चाय का निर्यात‍ किया था।

वैसे भारत में ज्यादातर लोग ज्यादा दूध, ज्यादा शकर और कम पानी वाली कड़क चाय पीकर ही जिंदगी का आनंद लेते हैं। यानी एक ‘कट’ में जिंदगी का ‘फुल’ मजा देने वाला पेय चाय ही है। लेकिन जिसे असल चाय या अमीरों की चाय कहें, उसका भाव सुनकर आपको पसीना आ सकता है। हमारे यहां दा‍र्जिलिंग के मकईबाड़ी में पैदा होने वाली चाय की एक किस्म ‘सिल्वर टिप्स इंपीरियल’ है। इसे ‘चायों में शैम्पेन’ भी कहा जाता है। खास बात यह है कि इस चाय पत्ती की तुड़ाई केवल पूर्णिमा की रात में होती है। यानी इस चायपत्ती की तुड़ाई का अंदाज भी रोमांटिक है, स्वाद न जाने क्या होगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसका भाव 30 डॉलर प्रति 50 ग्राम है।

कहते हैं कि इस चाय में ‘एंटी एजिंग’ गुण होता है। यह दुनिया की सबसे महंगी चाय फिर भी नहीं है। यह दर्जा चीन की ‘दा होंग पाओ’ चाय को हासिल है। जिसका अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम 1400 डॉलर प्रति ग्राम है। हकीकत तो यह है कि जिस चाय को पीकर हम ‘धन्य’ महसूस करते हैं या फिर दूसरे को पिलाकर ‘कृतार्थ’ करते हैं, वह चाय फैक्ट्रियों की ‘डस्ट’ होती है। लेकिन हमारे लिए तो यही रिश्तों की जान है, जानी‍ रिश्ता है।

चाय पीने के मामले में तो हम दुनिया में नंबर वन हैं। असम में चाय राज्य का अधिकृत पेय ही है। बीते साल ही हम भारतीयों ने कुल 1 अरब किलो चाय पी डाली और यह रफ्तार कम नहीं हो रही है, क्योंकि तुलनात्मक रूप से चाय ही सबसे सस्ता पेय है। गर्म चाय के दो घूंट ठंडे रिश्तों को पल में ‘रिन्यू’ कर सकते हैं। जाहिर है कि चाय अगर महंगी हुई तो कोरोना की ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की बुरी मंशा को ही हवा मिलेगी। क्योंकि ‘चाय-पानी’ इस देश में गरीबी की न्यूनतम सा‍माजिक रेखा है।

‘चाय पानी’ के पैसे शब्द अत्यल्प कमाई अथवा मेहनताने की न्यूनतम अपेक्षा का सामाजिक मानंदड है। इसे भाषा से भी खारिज नहीं किया जा सकता। आगे क्या होगा, यह अभी दावे के साथ कहना मुश्किल है। क्योंकि लॉक डाउन में तो घर से बाहर एक कप चाय मिलना भी दूभर है। मशहूर शायर बशीर बद्र ने इसी के मद्देनजर काफी पहले कहा था ‘’छप्पर के चाय खाने भी अब ऊंघने लगे, पैदल चलो कि कोई सवारी न आएगी..!’’

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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