अजय बोकिल
अपने देश में कोरोना काल में जन्मी एक बच्ची का नाम मां-बाप ने कोरोना रखा तो इतना बवाल नहीं मचा, जितना अमेरिकी अरबपति और टेस्ला मोटर्स के सीईओ एलन मस्क द्वारा अपने नवजात बेटे का यूनीक नाम X Æ A-12 Musk रखने पर मचा। लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि ऐसा नाम रखने का मकसद बच्चे को ‘सबसे अलग’ या एकदम ‘टेक्निकल’ दिखाना है या फिर उसके व्यक्तित्व का अभी से मजाक उड़ाना है। अमेरिका में कैलिफोर्निया के लोक स्वास्थ्य विभाग ने इस नाम से बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र देने यह कहकर इंकार कर दिया कि इससे कुछ समझ नहीं आता। न बच्चे का लिंग और न ही उसके मनुष्य होने का संकेत। हालांकि मस्क युगल अभी भी अपनी बात पर अड़ा है।
इस प्रसंग में एक नया मोड़ तब आ गया, जब भारतीय स्टेट बैंक ने एक विज्ञापन जारी कर अपने ग्राहकों से कहा कि वे इंटरनेट बैंकिंग के लिए मस्क के बेटे के नाम जैसा ही मजबूत पासवर्ड बनाए ताकि कोई उसे चुरा न सके। इस पूरे प्रसंग से यह सवाल फिर चर्चा में है कि आखिर मां-बाप को अपने बच्चों के नाम किस आधार पर रखने चाहिए? नाम रखने का उद्देश्य क्या है? क्या इन नामकरणों में मानवीय गरिमा का ख्याल नहीं रखा जाना चाहिए?
और यह भी कि जो नाम रखे जाएं वो किसकी सुविधा से होने चाहिए? ऐसा नाम रखने से क्या फायदा, जिसका उच्चारण तक बच्चा ठीक से न कर सके? और ऐसे अटपटे अथवा ऊलजलूल नाम रखना बच्चों के हित में है या उनका मजाक उड़ाने जैसा है? यह युग तकनीकी का भले हो, लेकिन मनुष्य की पहचान को भी तकनीकी बना देने का क्या मतलब है? यह किस सोच की निशानी है?
मूलत: दक्षिण अफ्रीका निवासी और अब अमेरिका में रह रहे 49 वर्षीय एलन मस्क एक इंजीनियर, इंडस्ट्रीयल डिजाइनर, टैक्नालॉजी आंत्रप्रिन्योर, वैज्ञानिक और परोपकारी हैं। वे टेस्ला कंपनी के सीईओ भी हैं। 2016 में फोर्ब्स ने उन्हें दुनिया का 21 वां सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना था। मस्क की कुल संपत्ति 39.4 अरब डॉलर की है। मस्क ने 18 साल पहले अंतरिक्ष ट्रांसपोर्ट कंपनी स्पेस एक्स की स्थापना की। उनके पिता पन्ना खदान के मालिक थे।
बता दें कि मस्क युगल अभी भी अपने बच्चे के नामकरण को सही ठहरा रहा है। क्योंकि आप भले इसका कोई मतलब न समझें, लेकिन बच्चे की मां ग्रिम्स ने ट्वीट कर समझाया कि बच्चे के नाम में X का अर्थ (‘द अननोन वेरिएबल’, Æ से मतलब ‘लव एंड आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ तथा A-12 से तात्पर्य प्रीकर्सर टू SR-71 से है, यह उस विमान का नाम है, जो इस युगल की खासी पसंद है। इस विचित्र नाम की सबसे बड़ी मुसीबत इसका उच्चारण है और अगर यह कर भी लिया जाए तो उससे कुछ भी स्पष्ट नहीं होता।
हालांकि दुनिया में इस तरह का यह पहला मामला नहीं है। 1991 में स्वीडन में एक दंपती एलिजाबेथ हालिन और लास्से डिडिंग ने अपने बच्चे का नाम brfxxccxxmnpcccclllmmnprxvclmnckssqlbb11 रख दिया। स्वीडिश भाषा में इसका उच्चारण अल्बिन होता था। दरअसल दंपती ने यह ‘मेराथन नाम’ उस कानून के विरोधस्वरूप रखा था, जिसके तहत स्वीडन में बच्चों के नाम रखने से पहले उसे सरकारी एजेंसी से स्वीकृत कराना पड़ता है (यहां नाम से तात्पर्य बच्चे के पहले नाम से है)।
वैसे कई देशों में बच्चों के नामकरण के अलग-अलग कानून हैं। लेकिन सब में एक समानता है कि जो नाम रखा जाए, वह अर्थबोध, लिंग बोध कराने वाला और उच्चारण में सरल हो। ताकि बच्चे को बड़े होने के बाद किसी तरह की शर्मिंदगी या असहजता का सामना न करना पड़े। नामकरण के लिए अमूमन किसी भी भाषा के सुंदर और सकारात्मक शब्दों का ही चयन किया जाता है। लेकिन मस्क युगल का मामला जरा अलग है। यहां मस्क बेटे का नाम कम्प्यूटर विज्ञान की भाषा में रखना चाहते हैं। जिसे बोलने के लिए भी मेहनत करनी पड़ेगी।
हमारे भारत में सनातन परंपरा में बच्चे का नामकरण सोलह संस्कारों में पांचवां संस्कार है। बच्चे का नाम विधिवत और समारोहपूर्वक रखने की परंपरा है। ताकि नवजात को इस दुनिया में आने के बाद एक पहचान मिले। कोशिश यही रहती है कि बच्चे के नाम से सुरूचि और उसका व्यक्तित्व झलके। लेकिन कई बार हमारे यहां भी बच्चो के अजीबोगरीब, निरर्थक या ऊटपटांग नाम रख दिए जाते हैं।
इसके बारे में यह अंधविश्वास बताया जाता है कि जिस दंपती की संतानों की अकाल मृत्यु हो जाती थी, वे विचित्र अथवा ऊलजलूल नाम रखने का टोटका करते थे, ताकि बच्चा किसी तरह बच जाए। सही में ऐसा होता था या नहीं पता नहीं, लेकिन अपने विचित्र, गंदे अथवा अश्लील से लगने वाले नाम के कारण कई बच्चों को जिंदगी भर असहज स्थिति का सामना करते हुए जीना पड़ता है।
यहां गौरतलब है कि किसी वायरस और मनुष्यों के बच्चों के नामकरण के तरीके अलग-अलग हैं। आज जिस वायरस से पूरी दुनिया त्रस्त है, उसका नामकरण कोविड-19 किया गया है। यहां अंग्रेजी के ‘को’ से तात्पर्य कोरोना और ‘वि’ से तात्पर्य वायरस से है। अंतिम अक्षर ‘डी’ का अर्थ डिसीज (बीमारी) से है और चूंकि यह बीमारी पहली बार 2019 में खोजी गई, इसलिए कोविड के अंत में 19 का अंक है।
दुनिया में तमाम वायरसों और उनसे होनी वाली बीमारियों के नामकरण का काम ‘अंतरराष्ट्रीय वायरस नामकरण समिति’ (आईसीटीवी) करती है। जाहिर है कि वैज्ञानिक नामों के नामकरण का एक अंतरराष्ट्रीय सर्वमान्य नियम है। लेकिन मनुष्यों के नामकरण को लेकर ऐसा कोई सर्वमान्य नियम या आचार संहिता नहीं है। इस मामले में हर नस्ल, समुदाय, धर्म या जाति की अपनी परंपराएं और मान्यताएं भी काम करती हैं।
तो क्या मस्क दुनिया में बच्चों के नामकरण की एक नई प्रथा की नींव डाल रहे हैं? इसे कितने लोग मान्य करेंगे? अगर यह ट्रेंड बढ़ा तो मनुष्य की पहचान किस रूप में होगी? क्या मनुष्य के रूप में हमारा वजूद अब एक पासवर्ड में समाहित होने जा रहा है? मनुष्य ने अंकों की खोज गणना के लिए और शब्दों की खोज अभिव्यक्ति के लिए की है। इसलिए कि मानव सभ्यता इसके माध्यम से आपस में नए सूत्रों से बंधे, नए रिश्तों के साथ पल्लवित हो।
लेकिन अगर ऐसे बेजान से अंकीय नामों का चलन बढ़ा तो यह उन लप्पू-गप्पू, टंपू-रंपू, लंगड़-लूले या फिर मक्खनलाल या लड्डूमल से भी खराब होगा, जिनके जरिए कम से कम किसी प्रिय वस्तु या अवस्था का बोध तो होता है। कई मां-बाप अपने बच्चों के नाम किसी नामी शख्सियत के नाम पर भी रखते हैं, भले ही औलाद कैसी निकले। ऐसा करने के पीछे उनकी सदिच्छा ही होती है।
यानी आंख से अंधे होने पर भी नाम नैनसुख हो सकता है। लेकिन इससे भी किसी इंसानी भाव अथवा दिव्यांगता का तो पता चलता ही है। लोग अगर नंबरों में ही तब्दील हो जाएंगे तो मानवीय संवदेनाओं और अस्मिता का क्या होगा? क्या यह सही है?
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टीम मध्यमत