10 अगस्त की आधी रात से ही सोशल मीडिया, कांग्रेस में हुए कथित नेतृत्व परिवर्तन पर टीका टिप्पणियों से भरा पड़ा है। इन टिप्पणियों में ज्यादातर का भाव यह है कि कांग्रेस ने गणेश परिक्रमा की परंपरा को जारी रखा है और एक बार फिर वह घूम फिरकर नेहरू-गांधी परिवार की दहलीज पर आ टिकी है। लोग हमेशा की तरह टिप्पणी कर रहे हैं-‘’यह पार्टी कभी परिवारवाद से बाहर नहीं निकल सकती।‘’
कांग्रेस के वर्तमान संकट की शुरुआत 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार से हुई थी। यह हार कितनी मारक थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव में पार्टी की कमान संभालने वाले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही,गांधी परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के हाथों पराजित हो गए।
वो तो शुक्र है कि उन्होंने परिस्थितियों को भांपते हुए अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित रखने के लिहाज से पहले ही नाकेबंदी कर ली थी और अमेठी के साथ-साथ केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ लिया था। राहुल अमेठी में हारे लेकिन वायनाड में जीत गए इससे उनके संसदीय जीवन की यात्रा में कोई ब्रेक नहीं आया वरना उनकी मुश्किल और बढ़ जाती।
लोकसभा चुनाव परिणामों के तत्काल बाद राहुल ने पहला काम यह किया कि हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफे का ऐलान कर दिया। राहुल का यह ऐलान वैसे तो 25 मई को आया था लेकिन इसकी आधिकारिक पुष्टि और इसका पूरा ब्योरा 3 जुलाई 2019 को उनके द्वारा ट्वीट की गई इस्तीफे की चिट्ठी से सामने आया। उसके बाद से राहुल और कांग्रेस के बीच मानो रस्साकशी चल रही थी।
राहुल अपने इस्तीफे पर अड़े हुए थे और कांग्रेस उनका इस्तीफा मंजूर न करने पर डटी हुई थी। मामले में एक पेंच और था जो राहुल ने यह कहकर खुद ही डाल दिया था कि कांग्रेस अपना नया अध्यक्ष चुने और नया अध्यक्ष गांधी परिवार से न हो। यानी उन्होंने खुद तो अपने को नेतृत्व से अलग किया ही था, अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा और मां सोनिया गांधी को भी प्रक्रिया से अलग कर दिया था।
तब से लेकर 10 अगस्त को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक होने तक किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर कांग्रेस का होने क्या वाला है? असमंजस इसलिए भी गहराया हुआ था कि तमाम तरह के नाम हवा में तैरने के बावजूद कांग्रेस यह तय नहीं कर पा रही थी कि वह गांधी परिवार को कैसे अलग करे? या यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि वह गांधी परिवार से अलग कैसे हो?
और अंतत: वही हुआ, जो वैसा ही होना था। कांग्रेस को गांधी परिवार से अलग नहीं होना था और वह नहीं हुई। इतने दिनों की माथापच्ची के बाद कांग्रेस कार्यसमिति सहित पार्टी के तमाम दिग्गजों और प्रतिनिधियों ने फैसला किया कि राहुल गांधी यदि नेतृत्व नहीं संभालते हैं तो उनकी मां सोनिया गांधी यह जिम्मेदारी संभालें। और इस तरह 19 महीनों बाद सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर एक बार फिर कांग्रेस का नेतृत्व संभाल रही हैं। वे तब तक इस पद पर बनी रहेंगी जब तक पार्टी अपना कोई और स्थायी अध्यक्ष नहीं चुन लेती।
कांग्रेस के इस फैसले के बाद खासतौर से भाजपा को मौका मिल गया है, यह बात उठाने का कि कांग्रेस अंतत: एक परिवार की पूंजी है और उससे बाहर वह कुछ सोच ही नहीं सकती। रही बात सोशल मीडिया की तो वह तो ऐसे मौकों पर अतिरंजित प्रतिक्रिया देने, भद्दे मजाक करने के लिए हमेशा तैयार ही बैठा रहता है। इसीलिए वहां कांग्रेस की हालत पर तमाम तरह के कमेंट्स की बाढ़ आई हुई है।
सोशल मीडिया की प्रतिक्रियाओं को मैं ज्यादा भाव नहीं देता क्योंकि उन प्रतिक्रियाओं के पीछे कई तरह के दिमाग और कई तरह की साजिशें रचने वाले गिरोह ज्यादा होते हैं। राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का जहां तक सवाल है, उनके भी अपने निहितार्थ होते हैं। इन्हें उसी तरह देखा जाना चाहिए जिस तरह समाज में अपने घर के झगड़े के बजाय पड़ोसी के घर के झगड़े में रुचि लेने की प्रवृत्ति ज्यादा होती है।
सवाल यह है कि कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया और ऐसा करने के मायने क्या हैं? दरअसल कांग्रेस आज जिस स्थिति से गुजर रही है यह उसके लिए अपने अस्तित्व को बनाए रखने के संकट का दौर है। कांग्रेस के पास दो ही विकल्प थे- या तो वह गांधी परिवार से अलग होकर या गांधी परिवार को नेतृत्व से अलग करके अपने बिखराव की प्रक्रिया को और तेज कर देती या फिर गांधी परिवार के गोंद को जिंदा रखते हुए कोशिश करती कि जो भी कुछ टूटने-बिखरने से बचा हुआ है वह बचा रहे, चिपका रहे।
जाहिर है कांग्रेस ने दूसरा रास्ता चुना। और शायद ऐसा करके उसने पार्टी को बचाए रखने का ही उपक्रम किया है। बाहर वाले चाहे जो कहते रहें, घर की हालत घरवालों से ज्यादा कोई नहीं जानता। बाहर वाले या तो आपके मजे ले सकते हैं या फिर आपको उलटी-सीधी सलाह दे सकते हैं, पर अंतत: यह फैसला आपको ही करना होता है कि परिवार के लिए क्या ठीक है और क्या गलत?
निश्चित रूप से सिद्धांतत: यह स्थिति कांग्रेस के लिए, उसके भविष्य के लिए ठीक नहीं है। कोई भी पार्टी एक व्यक्ति या एक परिवार पर निर्भर होकर नहीं चल सकती। कांग्रेस का बहुत पुराना इतिहास है, वह बसपा, सपा, डीएमके, टीएमसी जैसी एक व्यक्ति केंद्रित पार्टी नहीं है। उसे ऐसा होना या बनना भी नहीं चाहिए। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा ने पहले ही दिन से ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा देकर जो संकट के बादल कांग्रेस पर तारी कर दिए हैं, उनसे निपटने के लिए कांग्रेस के पास गांधी परिवार की छतरी के नीचे बने रहने के अलावा कोई चारा नहीं है।
हां, राजनीतिक और गैर राजनीतिक बाहर वालों की नजर में यह कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि इतने सालों में भी वह एक परिवार से अलग होकर जीना नहीं सीख पाई। पार्टी के भीतर भावी नेतृत्व की कोंपलें विकसित ही नहीं होने दी गईं। राहुल गांधी को आप उनकी नादानियों और असफलताओं के लिए कितना ही कोस लें, लेकिन उनकी ऐसी कोशिशों को खुद पार्टी के लोगों ने ही नोच खाया।
अब असली मुद्दा यह है कि 49 साल के राहुल गांधी के बाद फिर से 72 साल की सोनिया गांधी के हाथों में कमान सौंपकर कांग्रेस जवानी की ऊर्जा में कैसे लौटेगी। सोनिया गांधी स्वयं स्वास्थ्यगत समस्याओं से पिछले वर्षों में जूझती रही हैं। ऐसे में आया नेतृत्व का यह दबाव उनके लिए और नुकसानदेह होगा। उन पर दोहरी जिम्मेदारी होगी, पहली पार्टी को टूटने, बिखरने से बचाना और दूसरे, भावी नेतृत्व को विकसित करना। बेटे और बेटी से अलग यदि वे पार्टी को नेतृत्व की अगली पीढ़ी देकर जा सकें तो यह कांग्रेस के इतिहास में किसी भी नेता के सबसे बड़े योगदान में शुमार होगा। क्या ऐसा हो पाएगा?