उपचुनाव बमौरी
डॉ.अजय खेमरिया
गुना जिले की बमौरी विधानसभा सीट क्या राजा औऱ महाराजा के लिए प्रभुत्व की लड़ाई का केंद्र तो नहीं बनने जा रही है? दस साल तक सीएम रहने के बाबजूद अपने गृह जिले पर सिंधिया के वर्चस्व को दिग्गीराजा ने लंबे समय तक सहा है। इसे नियति मानकर ही शायद लक्ष्मण सिंह ने अपने किले के लिये दूसरे जिले की पहल की थी जिसे चाचौड़ा के नाम से कमलनाथ जाते जाते स्वीकृति दे गए है।
लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में राजा गुना को भी अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहेंगे। गुना जिले की चार में से दो सीट पर तो राघोगढ़ किले का कब्जा रहता ही है। गुना अनुसूचित जाति के कोटे में है। शेष बची नई सीट बमौरी। यहां कैबिनेट मंत्री संजू सिसौदिया (महेंद्र सिसौदिया) दो बार से एमएलए थे। सिसोदिया कट्टर सिंधिया भक्त हैं।
इस सीट के इतिहास को समझने के लिए पुरानी गुना सीट के मिजाज को भी समझना होगा, क्योंकि 2008 में अस्तित्व में आई बमौरी का 60 फीसदी से ज्यादा हिस्सा गुना सीट का ही है। यहां से माधवराव सिंधिया के बालसखा राजा शिवप्रताप सिंह लंबे समय तक विधायक, मंत्री रहे। मौजूदा विधायक संजू सिसौदिया के पिता भी यहां विधायक रहे हैं और छत्तीसगढ़ के कैबिनेट मंत्री राजा टीएस सिंहदेव उनके समधी हैं।
बमौरी पर कब्जे के लिए लड़ाई बड़ी ही रोचक होने की संभावना है। फौरी तौर पर यहां आपको मैदान में केवल संजू सिसोदिया और केएल अग्रवाल नजर आ रहे हों लेकिन यह दोनों खेल के डमी मोहरे ही हैं। संजू सिसौदिया का खुद का कोई खास केन्डिडेचर इस सीट के नजरिये से नहीं है, क्योंकि यहां उनकी जाति की संख्या नगण्य है। परिस्थितिजन्य चुनावी समीकरण दो बार से उन्हें एमएलए बना रहे हैं।
दलित, सहरिया आदिवासी, भील, पटेलिया, मीणा, यादव, किरार, कारोड जैसी बड़ी जातियों के प्रभाव वाले इस क्षेत्र में संघ ने अपनी जमीनी पकड़ स्थापित की है। इस विधानसभा का एक प्रमुख सूत्र इंजी. ओएन शर्मा भी हैं। जी हां 21 लाख कोरोना फंड में देने वाले कारोबारी ओएन शर्मा के बगैर इस सीट का नतीजा निर्धारित नहीं हो सकता है।
करीब एक दशक से इस क्षेत्र के गांव गांव पर्यावरण और पृथ्वी सरंक्षण के जनअभियान में जुटे शर्मा, संघ की गुरिल्ला स्टाइल में यहां खुद को सामाजिक राजनीतिक रूप से स्थापित कर चुके हैं। 2019 में सिंधिया की इस विधानसभा सीट से हार की शर्मा की अग्रिम घोषणा को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था, लेकिन संजू सिसोदिया, गोविन्द राजपूत, केएल अग्रवाल जैसे दिग्गज भी यहां सिंधिया की हार नहीं रोक सके, तो इसके मूल में ओएन शर्मा का संगठन ही था। करीब 200 गांव, मजरों तक फैले इस संगठन के जरिये यहां आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण का भी महीन काम हुआ है।
राजस्थान की सीमा से सटा यह इलाका आज भी बहुत पिछड़ा है। मंत्री के रूप में बीजेपी के प्रत्याशी महेंद्र सिसोदिया के पास सिवाय अपने कुछ समर्थकों की शिकायतों के कुछ नहीं है। यहां इंफ्रास्ट्रक्चर के मोर्चे पर भी मंत्री के रूप में कोई माइल स्टोन आपको नजर नहीं आएगा। खुद के श्रम मंत्रालय की भी कोई विशिष्ट सौगात इस पिछड़ी विधानसभा में आपको नहीं दिखेगी। हालांकि यही बात पूर्व मंत्री रहे के. एल. अग्रवाल पर भी लागू होती है।
योजनागत सड़क, सब स्टेशन या अन्य कार्यों के अलावा यहां पिछड़ेपन पर कोई बुनियादी काम नजर नहीं आता। आलम यह था कुछ समय पहले तक कि बमौरी के किसान मंडी में नहीं गुना के चंद व्यापारियों को बमौरी में ही अपनी फसल बेचने के लिये बाध्य थे। ओएन शर्मा के संगठन ने किसानों के शोषण के इस रैकेट को यहां से समाप्त किया है जिसमें पुलिस वाले भी शामिल थे।
इस सीट पर संजू 2018 में 64598 वोट लेकर जीते थे और 2013 में 71804 वोट से। यानी मतदाता बढ़ने के साथ वोट घट गए। यह एक तथ्य है कि 2018 में कांग्रेस को यह सीट बीजेपी ने गिफ्ट कर दी थी, बृजमोहन आजाद को उम्मीदवार बनाकर। टिकट अगर ओएन शर्मा या किसी भी अन्य दावेदार को दे दिया जाता तो यह सीट कांग्रेस के खाते में नहीं जाती।
केएल अग्रवाल निर्दलीय लड़कर 24488 वोट ले गए और बीजेपी के आजाद 36678 वोट पा सके। यह बीजेपी वोटों में बिखराब ही था क्योंकि आजाद को उम्मीदवार के रूप में यहां कैडर और वोटर दोनों ने स्वीकार नहीं किया। उनकी खुद की जाति ने उन्हें नकार दिया।
असल में बमौरी की मीणा, यादव, किरार, कारोड़ जातियां अपने आप में मार्शल कौम हैं। यह स्थानीय किसी नेता को विधायक स्वीकार करेंगी इसमें सदैव संशय है, इसलिए बाहर के लोग यहां जीतते रहे हैं। अपने ही गांव से बीजेपी उम्मीदवार को समर्थन न मिलना यह प्रमाणित करता है। यह भी तथ्य है कि यहां बीजेपी का कोर वोटर नहीं है। एक लाख के आसपास दलित आदिवासी वोट हैं जो परम्परागत रूप से कांग्रेस के वोटर रहे हैं।
यहां बीजेपी के केएल अग्रवाल भी परिस्थितिजन्य कारणों से ही जीते हैं। 2003 में वे गुना से जीते तब उमा लहर और व्यापारी वर्ग साथ था। 2008 में वे 28767 वोट लेकर जीते थे। इस चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता देवेंद्र सिंह रघुवंशी बसपा के टिकट पर 17046 वोट ले गए थे। जाहिर है यहां बीजेपी के लिए मैदानी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। नई परिस्थितियों में संजू सिसौदिया के लिए भी यही समस्या खड़ी है। यह भी समझ लेना होगा कि यहां महल का भी कोई खास प्रभाव नहीं है क्योंकि वोट डेमोग्राफी ही कुछ इस तरह की है।
तस्वीर यहां साफ है। न बीजेपी न कांग्रेस के पास कोई समीकरण है न कोई चेहरा। संजू सिसोदिया बीजेपी के उम्मीदवार हैं। संभव है मंत्री बनकर ही लड़ें। केएल अग्रवाल सिंधिया के साथ कांग्रेस में गए थे सो तकनीकी रूप से वे भी बारस्ता कांग्रेस बीजेपी में ही आ गए हैं। खबर है कि विधिवत बीजेपी में आने के लिये डील फाइनल हो रही है। बेटे ऋषि को गुना नपा टिकट की कंडिका में समय लग रहा है। सिंधिया भी चाहते हैं कि केएल की यह डील हो जाये ताकि कांग्रेस से एक केन्डिडेचर खत्म कर दिया जाए। शेष बीजेपी में कोई बगाबत करेगा नहीं। ओएन संघ के खूंटे से बंधे हैं।
उधर कांग्रेस इस खेल में अभी रणनीतिक चुप्पी अख्तियार किये है। सूत्र बताते हैं कि कोशिश यही है कि केएल अग्रवाल को किसी भी तरह चुनाव में लाया जाए ताकि बीजेपी वोटर जो संजू को नहीं देना चाहे केएल के खाते में चले जाएं। संभव है दिग्विजयसिंह अपनी पत्नी अमृता सिंह या लक्ष्मण सिंह के बेटे या पुत्रवधू को इस सीट से ऐन वक्त पर उतार दें। तब बीजेपी के लिए यहां संभावनाए बुरी तरह गड़बड़ा जाएंगी।
अगर राघोगढ़ किले से उम्मीदवार नहीं आता है, तब कांग्रेस सुमेर सिंह गढ़ा को टिकट दे सकती है। गढ़ा मतलब दिग्गीराजा और उनकी छवि एक सरल, ईमानदार नेता की भी है। यहां के दलित आदिवासी और मार्शल टाइप जातियों के लिए संजू और सुमेर में से चुनना बहुत कठिन नहीं होगा। इसलिए बमौरी में असली लड़ाई की पृष्ठभूमि तो अभी नजर ही नहीं आ रही है। बमौरी फतह का मतलब है गुना जिले से महाराजा की विदाई औऱ राघोगढ़ की वापसी। क्या सफल होंगे राजा?
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टीम मध्यमत