अजय बोकिल
रोजमर्रा की जरूरत और हर घर में खामोशी से जलने वाली रसोई गैस की होम डिलीवरी के लिए एलपीजी कंपनियां सुरक्षा के नाम पर जो नई ओटीपी व्यवस्था लागू करने जा रही हैं, उससे एलपीजी ग्राहकों को सुविधा होगी या फिर नई समस्याएं पैदा होंगी? क्योंकि यह देश के करीब 28 करोड़ गैस कनेक्शनधारियों से जुड़ा मामला है। अगर एक दिन भी गैस नहीं मिली या अचानक गैस सिलेंडर दम तोड़ दे तो घर में कोहराम कैसे मचता है, यह समझने के लिए किसी गृहविज्ञान या गृहिणी तनावशास्त्र का अध्ययन करने की जरूरत नहीं है। बात छोटी सी है, लेकिन बड़े बवाल का कारण बन सकती है।
यूं आज भारत में 97.5 प्रतिशत घरों में चूल्हा एलपीजी (लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस) जिसे आम बोलचाल में रसोई गैस कहते हैं, से जलता है। ईंधन का यह गैस रूप अपने आप में समाजवादी आग्रह लिए हुए हैं, क्योंकि अमीर से लेकर गरीब तक के घर खाना अब ज्यादातर इसी से बनता है। फर्क केवल इस गैस से भरे सिलेंडरों की कीमत का है। सबसिडी और गैरसबसिडी का तथा खाना क्या बनता है, इसका है।
वरना आज से करीब 50 साल पहले तक देश में ज्यादातर लोग ‘रसोई गैस’ के नाम से ही नाक-भौं सिकोड़ते थे। वो लकड़ी, कोयले के ईंधन या फिर केरोसिन से चलने वाले स्टोव का जमाना था। घर में स्टोव आ जाना आधुनिकता का लक्षण था। इसके बाद प्रेशर कुकर और कुकिंग गैस मध्यमवर्गीय घरों में आधुनिकता का प्रतीक बने, जो सामान्य बात बन चुकी है। अलबत्ता ईंधन का प्रकार बदलने से खाने का स्वाद और आदतें भी कुछ बदलीं।
मजे की बात है कि ईंधन के मुताबिक पाकशास्त्र का तरीका और व्यंजनों का जायका भी काफी कुछ बदलता है। साथ में सामाजिक आग्रह या दुराग्रह भी। मसलन हमारे पूर्वज हजारों साल तक लकड़ी पर बना खाना खाते रहे। लकड़ी की लौ में सिकीं और कुछ धुएं में पगी-सी रोटी का स्वाद आज भी भूले नहीं भूलता। ‘लकड़ी की टाल’ भी हमें फिल्मों में शायद आखिरी बार ‘सूरमा भोपाली’ की टाल के रूप में ‘शोले’ में दिखी थी। तब जंगल में लकड़ी से लकड़ी का कोयला भी तैयार किया जाता था।
60 के दशक में ईंधन नवाचार के रूप में लकड़ी के साथ नलीदार कोयला भी नमूदार हुआ। तब एक ‘बुरादे की सिगड़ी’ नाम की चीज भी हुआ करती थी, जो लकड़ी के बुरादे और लकड़ी के मिश्रित ईंधन के रूप में जलती थी। लकड़ी के कोयले पर सिके फुलकों का स्वाद आज भी बेमिसाल है। कुछ शादियों में कोयले पर सिके फुलकों के स्टाल की खास डिमांड रहती है, क्योंकि वो बात रसोई गैस पर बने फुलकों में आज भी नहीं आती। 21 वीं सदी आते-आते ईंधन की दुनिया में एलपीजी की निर्बाध सत्ता कायम हो गई। आज अगर कुकिंग गैस न मिले तो दिल की धड़कन रुक सकती है।
रसोई गैस की यह ‘किचन विजय’ इतनी आसान न थी। क्योंकि गैस पर खाना भी बन सकता है, अव्वल तो यह संकल्पना ही मन को विचलित करने वाली थी। दुनिया में सबसे पहले अमेरिकी वैज्ञानिक वाल्टर स्नेलिंग ने पता लगाया कि कुछ गैसों को तरल रूप में बदल कर उसे साधारण प्रेशर पर स्टोर किया जा सकता है। इसी आधार पर एलपीजी तैयार हुई। 1913 में दुनिया का पहला एलपीजी गैस स्टोव वजूद में आ चुका था।
लेकिन स्वाद के मुरीद और खाने के मामले में बहुत ज्यादा पारंपरिक भारतीयों ने रसोई गैस का स्वागत बहुत उत्साह से नहीं किया। इसका कारण शायद यह भी रहा होगा कि हमारे ज्यादातर व्यंजन लकड़ी या कोयले की आंच, तासीर और तेवर के हिसाब से बनते आए हैं। इसीसे उनमें एक अनोखा स्वाद उपजता है। फिर भी भारत में सबसे पहले एलपीजी लाने का श्रेय सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी ‘इंडियन ऑइल कॉरेपोरेशन’ को जाता है। कंपनी ने ‘इंडेन’ ब्रांड से देश का पहला रसोई गैस कनेक्शन 22 अक्टूबर 1965 को धनतेरस के दिन कोलकाता में जारी किया था।
आज इस कंपनी के पास देश भर में करीब 10 करोड़ गैस कनेक्शन हैं। कंपनी रोजाना औसतन 20 लाख गैस सिलेंडर सप्लाई करती है। लेकिन शुरुआती दौर में गैस से खाना अच्छा, जल्दी और सुरक्षित बनता है, यह समझाने में सालों लग लग गए। प्राकृतिक ईंधन के घटते स्रोतों तथा रसोई गैस वितरण के बढ़ते नेटवर्क के कारण आज (बहुत ही दूरदराज के क्षेत्रों को छोड़ दें) देश के अधिकांश हिस्सों में रसोई गैस, गैस सिलेंडर, रेग्युलेटर आदि रसोईघर के जाने-पहचाने शब्द हैं। वैसे एलपीजी कनेक्शनों की संख्या बढ़ाने में प्रधानमंत्री उज्ज्वला रसोई गैस कनेक्शन योजना का भी बड़ा हाथ है, जिसने गरीबों के घरों में रसोई गैस का प्रवेश करा दिया है। हालांकि दूसरी तरफ सरकार रसोई गैस सिलेंडर महंगा करती जा रही है और इस पर सबसिडी देने से हाथ खींचती जा रही है।
बहरहाल रसोई गैस का होना इस बात की जमानत है कि हमारे गांव अब धीरे-धीरे शहरों में बदल रहे हैं। उनकी रसोई भी अब ‘किचन’ में तब्दील हो रही है। फर्क है भी तो इतना कि गांवों में कई जगह चूल्हा एलपीजी की जगह गोबर गैस से जलता है। कुकिंग गैस पर खाना पकाना आधुनिकता का सहज परिचायक है। बीते कुछ सालों में एक नजारा शहरों में आम होता जा रहा है। बेटियां कुकिंग गैस पर खाना ही नहीं पकाती, वो गैस सिलेंडर ढोकर लाने में पिता या भाई का हाथ भी बंटाती हैं। अमूमन टू व्हीलर पर पीछे बैठी बेटियां हाथ में गैस सिलेंडर थामे जाती दिखाई पड़ती हैं। 14 किलो का गैस सिलेंडर मजबूती से पकड़ना समाज में बेटियों के बढ़ते आत्मविश्वास और ताकत की खामोश पावती भी है।
कहने का आशय यह कि एलपीजी गैस सिलेंडर के बगैर एक दिन भी जीना दुश्वार है। घर-घर तक गैस सिलेंडर पहुंचाने की जो वर्तमान व्यवस्था गैस कंपनियों ने की है, वह निर्दोष भले न हो, लेकिन लोगों ने उसके साथ जीना सीख लिया है। सिंगल गैस कनेक्शन वाले घर से खाली सिलेंडर लाकर लोग गैस एजेंसी से खुद ही भरा सिलेंडर ढोकर ले जाते हैं। यानी पैसा दो और माल लो। जो लोग एडवांस बुकिंग कराते हैं, उन्हें भी अमूमन एक दिन से लेकर हफ्ते भर के बीच गैस वाला घर सिलेंडर लाकर दे जाता है और खाली वापस ले जाता है। यानी गैस पर्ची पर दस्तखत कराए, पैसे लिए, सिलेंडर सौंपा और रवाना।
लेकिन अब गैस सिलेंडर होम डिलीवरी की नई व्यवस्था 1 नवंबर से लागू होने जा रही है। इसमें आपके रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर पर पहले एक ओटीपी आएगा। जब तक यह कोड आप डिलीवरी ब्वॉय को नहीं दिखाएंगे, तब तक आपको गैस की टंकी नहीं मिलेगी। इसे ‘डिलीवरी ऑथेंटिकेशन कोड’ (डीएसी) नाम दिया गया है। शुरू में यह देश की 100 स्मार्ट सिटी में लागू होगा। बताया जाता है कि पायलट प्रोजेक्ट के रूप में यह व्यवस्था जयपुर में चल रही है। गैस कंपनियों का तर्क है कि नई प्रणाली गैस सिलेंडर की चोरी रोकने तथा सही कस्टमर की पहचान के लिए लागू की जा रही है।
अगर किसी कस्टमर का मोबाइल नंबर अपडेट नहीं है तो डिलीवरी ब्वॉय के पास एक ऐप होगा, जिसके जरिए वह तत्काल नंबर अपडेट करवा देगा और उसके बाद कोड जनरेट हो जाएगा। लेकिन यह व्यवस्था कमर्शियल गैस कनेक्शनों पर लागू नहीं होगी। नई व्यवस्था में सबसे बड़ी दिक्कत यह होगी कि अगर रजिस्टर्ड मोबाइल उस वक्त घर में नहीं है तो क्या किया जाएगा। डिलीवरी ब्वॉय के ऐप में इसका क्या समाधान है, यह साफ नहीं है।
व्यावहारिक बात यह है कि हर ग्राहक अपना एक ही नंबर रजिस्टर्ड कराएगा। आज भी गैस की होम डिलीवरी किस दिन और किस समय होगी, इसकी कोई पूर्व सूचना नहीं मिलती। गैस वाला कभी भी आपकी डोर बेल बजा देता है। अगर उसी वक्त रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर घर में न हुआ अथवा जिस व्यक्ति का वह नंबर है, वह घर से मोबाइल लेकर बाहर गया हुआ हो तो क्या गैस टंकी लौटाना पड़ेगी? गैस आने के इंतजार में कोई व्यक्ति दिन भर घर में तो नहीं रह सकता।
वर्तमान व्यवस्था में घर का कोई भी व्यक्ति पैसे देकर सिलेंडर की डिलीवरी ले लेता है। लेकिन नई व्यवस्था में वह ऐसा शायद ही कर सके। ध्यान रहे कि ओटीपी के जरिए बैंक से पैसे निकालने या टैक्सी का पेमेंट करने और गैस सिलेंडर रिसीव करने में फर्क है। पहले की दो व्यवस्थाएं व्यक्ति के साथ चलती हैं, लेकिन गैस सिलेंडर के मामले में ऐसा नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि गैस सिलेंडर चोरी जाने से भले बच जाएं लेकिन भले आदमी को वक्त पर न वह मिल ही न पाएं?