सरयूसुत मिश्रा

राजनीति में काम करने वाले लोगों के लिए चुनाव में पार्टी का टिकट प्राथमिक और अंतिम लक्ष्य होता है। चुनावी स्थानों की संख्या सीमित है और कार्यकर्ता असीमित। इसलिए चुनाव के समय टिकट वितरण पर संग्राम सनातन विषय हो गया है। कोई भी दल हो टिकट वितरण में असंतोष और बगावत से बच नहीं पा रहा है। पार्टी का नेतृत्व अगर मजबूत है तो असंतोष और बगावत को दबाया जा सकता है लेकिन इसको पूरी तौर से रोकना असंभव सा ही है।

हिमाचल और गुजरात विधानसभा चुनाव में अपने को अनुशासित होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी को भी बगावत का सामना करना पड़ रहा है। स्थितियां इतनी विकराल हो गई हैं कि प्रधानमंत्री को भी बागियों को मनाना पड़ रहा है। टिकट के समय जमे जमाए नेताओं और युवाओं को हिस्सेदारी देने के नाम पर रणनीति और सिद्धांतों को प्रचारित तो किया जाता है लेकिन वास्तव में उन पर अमल नहीं हो पाता।

बुजुर्ग नेता जो दशकों तक विधायक और सांसद के पदों पर निर्वाचित होते रहे हैं, सरकार में पदों पर काबिज रहे हैं, यहां तक कि मुख्यमंत्री और मंत्री रह चुके हैं, उन सभी का तो चुनाव में टिकट पाना जन्म सिद्ध अधिकार बन जाता है। जो भी पार्टी इसको तोड़ने की कोशिश करती है, उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

बीजेपी ने गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए अपने प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया है। कुछ ही नामों का ऐलान बाकी है। जो ऐलान हुआ है उसके मुताबिक लगभग 38 सिटिंग एमएलए के टिकट काट दिए गए हैं। परिवर्तन प्राकृतिक है, राजनीति में भी पीढ़ी का बदलाव समय की मांग है। जो लोग दशकों तक पदों पर रहे हैं, उन्हें पद की व्यर्थता और निस्वार्थ सेवा के आनंद की अनुभूति नहीं होने का मतलब है कि उनके द्वारा अपने दायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन नहीं किया गया है।

एक बार किसी को मौका मिल जाता है तो यदि उसमें ईमानदारी से काम करने की जिजीविषा है तो वह सब कुछ कर गुजरता है, जो वह करना चाहता है। उसके लिए दशकों तक पद पर बने रहने की जरूरत नहीं है। जो एक निश्चित समय में कोई परिणाम नहीं दे पाता, वह कई दशकों तक भी पद पर बना रहे, तो उसके लिए तो यह उपलब्धि हो सकती है, लेकिन ना तो पार्टी के लिए यह उपलब्धि होगी और ना सरकार में उन पदों के लिए जिन पर वह व्यक्ति काबिज है।

हर व्यक्ति को निर्धारित समय में अपने दायित्वों को निष्ठा के साथ निभाते हुए आगे बढ़ते जाना चाहिए। पेड़ से पुराने पत्ते जब झड़ते हैं तभी नई कोपलों को विकसित होने का मौका मिलता है। जब नई कोपलें आती हैं तब प्राकृतिक सौंदर्य स्वाभाविक रूप से बढ़ता है। यही स्थिति राजनीतिक जगत में भी है लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया जाता। जमे जमाए नेता हमेशा इस बात की कोशिश करते हैं कि उनके पास ही सत्ता अनंत काल तक बनी रहे। यही मानसिकता राजनीति में पीढ़ी परिवर्तन को बाधित करती है।

सभी राजनीतिक दलों में विशेषकर कांग्रेस और बीजेपी में बुजुर्ग और युवा नेताओं को संतुलन के साथ मौका देने की बातें होती रहती हैं। पहले बीजेपी की चर्चा करते हैं। बीजेपी में तो कई बार यह सिद्धांत चर्चा में आया कि 75 साल के बाद बुजुर्ग नेताओं को सक्रिय राजनीति में अवसर नहीं दिया जाएगा। नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए गए थे उसके बाद लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को सक्रिय राजनीति से दूर कर दिया गया था। बीजेपी की केंद्र में सत्ता होने के बाद भी यह दोनों नेता राजनीतिक संन्यास का जीवन गुजार रहे हैं। 

इसी तरीके से राज्यों में भी इस आयु सीमा के कई नेताओं को सक्रिय राजनीति से अलग कर दिया गया था। मध्यप्रदेश में बाबूलाल गौर और सरताज सिंह इसके उदाहरण थे। वहीं कर्नाटक में येद्दियुरप्पा के मामले में इस आयु सीमा को नहीं माना गया और उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया गया था। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के सीनियर नेता सत्यनारायण जटिया को बीजेपी के संसदीय बोर्ड में सदस्य बनाया गया है जबकि जटिया भी कमोबेश इसी उम्र के नेता हैं। 

बीजेपी में अब बुजुर्ग नेताओं और नेता पुत्रों को टिकट नहीं देने के सिद्धांत की चर्चा की जा रही है। सत्यनारायण जटिया ने हाल ही में बयान दिया है कि यदि नेता पुत्रों में योग्यता है तो उन्हें टिकट क्यों नहीं दिया जाना चाहिए। संसदीय बोर्ड जो टिकट फाइनल करता है उसके सदस्य के रूप में उनकी इस बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए लेकिन वास्तव में उनकी बात पर कैसे और कितना अमल होगा यह भविष्य में ही पता चलेगा।

जीत की संभावना के साथ ही पार्टी के सिद्धांत आधारों पर ही टिकट का निर्धारण किया जाना चाहिए। गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री विजय रुपाणी और पूर्व मुख्यमंत्री नितिन पटेल को विधानसभा चुनाव का टिकट नहीं दिया गया है। हिमाचल प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल भी टिकट नहीं पा सके। सिद्धांततः पार्टी का यह अच्छा कदम हो सकता है लेकिन अगर राजनीतिक उठापटक के लिए पार्टी संगठन पर काबिज नेताओं द्वारा राग द्वेष में फैसले किए जाते हैं तो उसे पार्टी के लिए हितकर नहीं माना जा सकता।

जहाँ तक गुजरात का सवाल है वहां तो एंटी इन्कम्बेंसी के कारण मुख्यमंत्री समेत पूरी सरकार को ही बदल दिया गया था। सरकार में बदलाव इसीलिए किया गया था कि चुनाव के समय एंटी इनकंबेंसी से बचा जा सके। उसी आधार पर पुराने नेताओं के टिकट काटे गए होंगे। राजनीति में बदलाव होते रहना चाहिए। पार्टियों के अंदर इस संबंध में कोई नीतिगत व्यवस्था होना चाहिए कि एक निश्चित टाइम के बाद किसी भी व्यक्ति को ना तो चुनाव में मौका दिया जाएगा और ना ही शासन में पदों पर रखा जाएगा।

कांग्रेस के नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कह रहे हैं कि पार्टी के 50 प्रतिशत टिकट युवाओं को दिए जायेंगे। यद्यपि पार्टी के लिए ऐसा करना संभव नहीं हो पायेगा। राजस्थान में भी अशोक गहलोत की जगह पर युवा सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का कांग्रेस आलाकमान का सपना न केवल धूल धूसरित हो गया है बल्कि इसके प्रयास में नेतृत्व की अस्मिता ही खंडित हो गई है और यह सब मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने ही हुआ जो जयपुर में पर्यवेक्षक बन कर पहुंचे थे।

राजनीति में नेता पुत्रों को आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। कांग्रेस में तो इसके अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे। बीजेपी जरूर इस पर सतर्कता से आगे बढ़ रही है। यद्यपि बीजेपी में भी नेता पुत्रों को अवसर मिलते रहे हैं। अगले चुनाव में मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में नेता पुत्र पार्टी टिकट के लिए संघर्ष कर रहे हैं। किसी सैद्धांतिक आधार या योग्यता को देखते हुए टिकटों का निर्धारण भविष्य की बात है। लेकिन अगर गुजरात चुनाव के नतीजे भाजपा के पक्ष में रहते है तो पार्टी का नए चेहरों पर दांव लगाने का प्रयोग दूसरे राज्यों में दिखाई पड़ने की उम्मीद की जा सकती है।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
(मध्‍यमत)
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