राकेश अचल
नए किसान क़ानून के विरोध में राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने नए किसान क़ानून को लागू करने से इंकार कर दिया है। क्या देश की दूसरी गैर भाजपा सरकारें इसी तरह नए कानून के खिलाफ खड़ी होकर केंद्र को नया क़ानून वापस लेने के लिए मजबूर कर सकतीं हैं। ये सवाल एक बार फिर से केंद्र और राज्यों के बीच टकराव के संकेत दे रहा है। क्या इस टकराव को टालने के लिए केंद्र अपने कदम पीछे ले सकता है?
पिछले कुछ सालों में केंद्रीय कानूनों को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच टकराव की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। मुझे याद है कि केंद्र में जब कांग्रेस की सरकार थी तब भी जीएसटी जैसे कानूनों को लेकर टकराव की स्थितियां बनी थीं। जीएसटी के मुद्दे पर तो मध्यप्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार के वित्त मंत्री राघव जी ने कहा था कि जीएसटी कानून बना तो वे जान दे देंगे। लेकिन जब भाजपा सत्ता में आयी तो जीएसटी कानून बना और किसी ने जान नहीं दी। आज भी स्थितियां कमोबेश टकराव की ही हैं।
नए किसान कानून संसद के दोनों सदनों से येन-केन पारित करा लिए गए हैं। आने वाले दिनों में राष्ट्रपति की मुहर लगते ही ये क़ानून अमल में भी आ जायेंगे, लेकिन क्या पूरा देश इन कानूनों को मानने के लिए बाध्य होगा? भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के इस नए क़ानून के खिलाफ आंदोलन शुरू होने से पहले ही केंद्रीय मंत्रिमंडल से खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत सिंह कौर अपना इस्तीफा दे चुकी हैं। हालाँकि ये एक राजनीतिक कदम है लेकिन क़ानून के खिलाफ किसान अकेले पंजाब में ही नहीं बल्कि हिंदी पट्टी के सात राज्यों के अलावा सुदूर केरल, बंगाल और कर्नाटक में भी किसान सड़कों पर उतरे हैं।
किसान आंदोलन को भोथरा करने के लिए हालांकि केंद्र सरकार ने अपने जेबी संगठनों को भी विरोध में खड़ा किया था, लेकिन विरोध की आग दावानल की तरह खेतों-खलिहानों में फ़ैल गयी। किसानों के इस आंदोलन से पहले भी देश सीएए और एनआरसी जैसे विवादास्पद कानूनों की वजह से आंदोलित हो चुका है। ये आंदोलन कितने उग्र थे, ये देश-दुनिया ने देखा है। सवाल ये है कि क्या नया किसान क़ानून भी इसी तरह उग्र हो सकता है? क्योंकि असंतोष तो सब दूर है।
इस असंतोष को दूर करने के लिए एनडीए अगले कुछ दिनों में किसानों को समझाने के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाने वाली है। इस अभियान और आंदोलन के प्रतिफल क्या होंगे अभी कहा नहीं जा सकता। लेकिन लगता है कि महाराष्ट्र की ही तरह देश के गैर भाजपा शासित राज्य नए किसान क़ानून की अवज्ञा कर सकते हैं। संयोग से नए किसान क़ानून को लेकर आंदोलन उस समय शुरू हुआ है जबकि बिहार में विधानसभा के चुनाव घोषित किये जा चुके हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने किसानों को लुभाने के लिए हाल ही में कुछ जिंसों के न्यूनतम समर्थन खरीदी मूल्यों में इजाफे का ऐलान भी किया है। लेकिन इसका असर कहीं नजर नहीं आया। आने वाले दिनों में इस घोषणा का कुछ असर बिहार विधानसभा चुनावों पर पड़े तो कहा नहीं जा सकता। मुमकिन है कि बिहार विधानसभा के चुनावों के चलते ये किसान आंदोलन सुस्त पड़ जाये। ये भी मुमकिन है कि ये आंदोलन और उग्र हो जाये। जिस बिहार में विधानसभा के चुनाव होना है उसी बिहार में वामपंथी दलों के साथ राजद ने भी नए क़ानून का जमकर विरोध किया है।
किसान आंदोलन का एपीसेंटर पंजाब है। पंजाब से केंद्र में अकालीदल का प्रतिनिधित्व करने वाली हरसिमरत कौर के इस्तीफे के बाद पंजाब की कांग्रेस सरकार भी नए कानूनों के खिलाफ खड़ी हो गयी है। देश के कोई 350 छोटे-बड़े किसान संगठन नए किसान क़ानून के खिलाफ हैं। देश के जिन राज्यों में खेती का रकबा सबसे ज्यादा है या जो राज्य हरितक्रांति के अगुआ समझे जाते हैं वहां का किसान सबसे ज्यादा आंदोलित है। अगर केंद्र सरकार किसानों को न समझा पाई तो बिहार विधानसभा के चुनावों के साथ ही मध्यप्रदेश विधान सभा के 28 उप चुनावों पर भी इसका असर पड़ सकता है।
सिर्फ सड़कें ही नहीं रेल की पटरियां तक किसानों के आक्रोश की गवाही दे रही हैं। पंजाब के अलग-अलग 31 किसान संगठनों ने बंद का आह्वान किया था। इसमें सबसे प्रमुख भारतीय किसान यूनियन है जो इस आंदोलन का यहां नेतृत्व कर रही है। स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने कहा कि केंद्रीय कृषि मंत्री कहते हैं कि हमारे दरवाजे किसानों के लिए हमेशा खुले हैं लेकिन, उन्होंने तो विधेयक लाकर पहले ही ताला लगा दिया। उन्होंने बिल को पास करने से पहले किसी किसान बात नहीं की, यहां तक कि अपने सहयोगी अकाली दल और आरएसएस से जुड़े किसान संगठनों से भी बात नहीं की। क्योंकि इन्हें पता था कि इनका कोई साथ नहीं देगा, ये काम चोर दरवाजे से ही किया जा सकता है।
देश में पहले भी किसान आंदोलन हुए हैं, उन्हें देखकर लगता है कि देश का किसान जानता है कि सरकार का अहंकार कैसे तोड़ा जाता है। अब तो कानून बन गया, संसद का काम खत्म हो गया। अब सड़क का काम शुरू हो गया है, सड़क पर विरोध होगा और सरकार को घुटने पर लाएंगे। दरअसल किसानों को सबसे बड़ा डर न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होने का है। इस बिल के जरिए सरकार ने कृषि उपज मंडी समिति यानी मंडी से बाहर भी कृषि कारोबार का रास्ता खोल दिया है। मंडी से बाहर भी ट्रेड एरिया घोषित हो गया है। मंडी के अंदर लाइसेंसी ट्रेडर किसान से उसकी उपज एमएसपी पर लेते हैं। लेकिन बाहर कारोबार करने वालों के लिए एमएसपी को बेंचमार्क नहीं बनाया गया है। इसलिए मंडी से बाहर एमएसपी मिलने की कोई गारंटी नहीं है।
ख़ास बात ये है कि सरकार ने बिल में मंडियों को खत्म करने की बात कहीं पर भी नहीं लिखी है। लेकिन उसका असर मंडियों को तबाह कर सकता है। इसका अंदाजा लगाकर किसान डरा हुआ है। इसीलिए आढ़तियों को भी डर सता रहा है। इस मसले पर ही किसान और आढ़ती एक साथ हैं। उनका मानना है कि मंडियां बचेंगी तभी तो किसान उसमें एमएसपी पर अपनी उपज बेच पाएगा।
कुल जमा नए किसान क़ानून फिलहाल तो सरकार के गले की हड्डी बन ही गए हैं। ये हड्डी गले से बाहर निकलेगी या सरकार इसे उदरस्थ कर लेगी, अभी कहना कठिन है, क्योंकि यह तिलिस्मों की सरकार है। केंद्र ने नए क़ानून बनाकर एक जोखिम लिया है। ये जोखिम न लेती तो सरकार को परदे के पीछे से चला रहे उद्योगपति अपना कंधा डालकर सरकार को वक्त से पहले मुसीबत में डाल सकते थे। अब देखते जाइये ‘तेल और तेल की धार’। आप यूं भी कह सकते हैं कि हमें ऊँट की करवट पर नजर रखना होगी कि वह किस करवट बैठता है?